जेएनयू के पूर्व छात्र को नोबेल
भारत में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर रोजाना बुरी खबरें आ रही हैं। मोदी सरकार मान नहीं रही लेकिन जमीनी हालात यही दिखा रहे हैं कि देश आर्थिक रूप से बेहद मुश्किल दौर से गुजर रहा है। आरबीआई, मूडीज के बाद अब विश्व बैंक ने भी जीडीपी अनुमान घटा दिया है। अप्रैल में विश्व बैंक का अनुमान था कि भारत की जीडीपी 7.5 प्रतिशत रहेगी, लेकिन अक्टूबर में इसे घटाकर 6 प्रतिशत से भी नीचे कर दिया गया है। किसी देश की जीडीपी गिरने का मतलब है कि समूचे देश में आय और व्यय का स्तर घट रहा है और इससे लोगों के जीवन स्तर पर भी फर्क पड़ता है। प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन जैसी सब्जियां अब आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही हैं, सितंबर में खुदरा महंगाई दर 3.99 प्रतिशत तक पहुंच गई है, जो अगस्त में 3.21 प्रतिशत थी।
नौकरियां नहीं हैं, सरकार कह रही है कि हमने कभी नहीं कहा कि हम सरकारी नौकरी देंगे, कारखाने अपना घाटा कम करने के लिए लोगों की छंटनी कर रहे हैं और उत्पादन भी घटा रहे हैं। यह सब तब हो रहा है जब देश किसी तरह के युद्ध में नहीं फंसा है। गृहयुद्ध नहीं चल रहा है। हड़ताल, आंदोलन नहीं हो रहे हैं। जो छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन होते हैं, उन्हें भी दबाया जा रहा है, और देश में पूर्ण बहुमत वाली निर्वाचित सरकार है, जिसने लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल की है। जिसके पास इतनी शक्ति है कि वह मनचाहे फैसले ले ले, क्योंकि विपक्ष बेहद कमजोर है। इतनी शक्तिशाली सरकार को तो देश की कायापलट कर रख देनी चाहिए थी। लेकिन मोदी सरकार भारत को उन कमजोर देशों की श्रेणी में ढकेल रही है, जो लगातार आतंकवाद, गृहयुद्ध, बाह्यड्ढ आक्रमण जैसी स्थितियों का शिकार हुए हैं और आर्थिक रूप से बिल्कुल टूटे हुए हैं। भारत अभी बचा है, बहुत कुछ अपने पैरों पर भी खड़ा है, लेकिन कब तक, यही बड़ा सवाल है। अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने कुछ दिन पहले एक व्याख्यान में कहा था कि भारत की अर्थड्ढव्यवस्था की चुनौतियां अब इतनी बड़ी हो चुकी हैं कि उसे सही रास्ते पर लाने के लिए प्रार्थना ही की जा सकती है।
अभिजीत बनर्जी निराशावादी नहीं है, यथार्थवादी हैं। उन्होंने गरीबी को, गरीबों की मानसिकता, उनकी आदतों को समझने के लिए बरसों शोध और अध्ययन किया है, और गरीबी उन्मूलन के लिए दुनिया को कुछ बेहतरीन उपाय सुझाएं हैं। इसलिए 2019 के अर्थशास्त्र में नोबेल के लिए अभिजीत बनर्जी, काम और जीवन में उनकी भागीदार इश्तर डूफलो और माइकल क्रेमर को संयुक्त रूप से चुना गया है। तो इस तरह भारत के लिए अर्थड्ढव्यवस्था के क्षेत्र में एक खुशी की खबर ये है कि एक भारतवंशी को नोबेल पुरस्कार मिला है। अभिजीत कुछ समय पहले ही अमेरिकी नागरिक बने हैं। लेकिन मुंबई में जन्म, कोलकाता में शिक्षा और दिल्ली में उच्च शिक्षा लेने वाले अभिजीत भारत को और यहां की गरीबी को अच्छे से समझते हैं। अभिजीत की मां के मुताबिक वे बचपन से अपने घर के पास गरीब बच्चों के साथ खेलते थे और उनकी जीवनदशा को लेकर फिक्रमंद होते थे। बाद में जेएनयू, हार्वर्ड से होते हुए एमआईटी पहुंचने तक गरीबी उन्मूलन के लिए उनकी फिक्र खत्म नहीं हुई।
2003 में अभिजीत ने अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब की स्थापना की और भारत समेत कई देशों में क्षेत्रवार प्रयोग किए, जिससे गरीबों का जीवन सुधारा जा सके। उन्हें नोबेल भी इसलिए दिया गया कि इनकी रिसर्च गरीबी से लड़ने में मदद कर रही है। अभी आम चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में न्याय का दांव चला था, जिसके तहत 20 प्रतिशत गरीब लोगों को हर महीने 6 हजार रुपए देने का वादा था। इस अवधारणा को विकसित करने में अभिजीत बनर्जी का बड़ा योगदान था। लेकिन भारतीय मतदाताओं ने न्याय के ऊपर पुलवामा-बालाकोट को तरजीह दी और कांग्रेस को सत्ता से फिर दूर कर दिया। अभिजीत बनर्जी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं। नोटबंदी के वक्त उन्होंने कहा था कि मैं इस फैसले के पीछे के लॉजिक को नहीं समझ पाया हूं। जैसे कि 2000 रुपये के नोट क्यों जारी किए गए हैं। मेरे ख्याल से इस फैसले के चलते जितना संकट बताया जा रहा है उससे यह संकट कहीं ज्यादा बड़ा है। वे उन 108 अर्थशास्त्रियों के पैनल में शामिल रहे जिन्होंने मोदी सरकार पर देश के जीडीपी के वास्तविक आंकड़ों में हेरफेर करने का आरोप लगाया था। हाल ही में कार्पोरेट टैक्स में कटौती को भी उन्होंने सही नहीं माना था। उनका कहना है कि लोककल्याणकारी राज्य में अमीरों पर टैक्स लगाना और उससे गरीबों की भलाई के लिए काम करना उचित ही है। अभिजीत की ऐसी बातें मोदीजी को पसंद तो नहीं आई होंगी, लेकिन उन्होंने अभिजीत बनर्जी को बधाई दी है। हालांकि अनंत हेगड़े जैसे लोग भी इस देश में हैं, जो हार्वर्ड के हार्डवर्क को मिले सम्मान को राजनैतिक चश्मे से देख रहे हैं। वैसे मोदी सरकार चाहे तो इस तथ्य से आंखें मंूद लें कि अभिजीत बनर्जी ने जेएनयू से पढ़ाई की है और उनके शिक्षक उन्हें बेहतरीन छात्रों में से एक मानते हैं। इसी जेएनयू में 1983 में कुलपति के विरूद्ध घेराव प्रदर्शन में सैकड़ों छात्रों पर कार्रवाई हुई, जिसमें अभिजीत भी शामिल थे और उन्हें 10 दिन तिहाड़ में रहना पड़ा। तब छात्रों पर राजद्रोह जैसे मुकदमे करने का राजनैतिक चलन नहीं था। 2016 में जब कन्हैया कुमार समेत कई छात्रों पर कार्रवाई हुई, जेएनयू को बदनाम करने की अंतहीन कोशिशें हुईं, जो आज भी जारी हैं, तब अभिजीत बनर्जी ने एक लेख में लिखा था हमें जेएनयू जैसे सोचने-विचारने वाली जगह की जरूरत है और सरकार को निश्चित तौर पर वहां से दूर रहना चाहिए। क्या मोदी सरकार अब एक नोबेल विजेता की बातों पर गौर फरमाएगी।
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रविवार, 20 अक्टूबर 2019
जेएनयू के पूर्व छात्र को नोबेल
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