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रविवार, 20 अक्तूबर 2019

 कांग्रेस का गहराता सियासी ग्रहण

 कांग्रेस का गहराता सियासी ग्रहण -
प्रदीप सिंह
खेत की रक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती है, पर वही बाड़ यदि खेत खाने लगे तो क्या किया जाए? किसी भी किसान से पूछिए तो वह कहेगा कि उसे फौरन काट देना चाहिए। कहना होगा कि नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस के खेत की वही बाड़ है, जो अब खेत खा रही है। लेकिन यहां पर समस्या यह है कि इस किसान (कांग्रेस) को बाड़ से प्रेम हो गया है। वह बाड़ को बचाने के लिए फसल की बलि देने को तैयार है। इसका परिणाम दिखना शुरू हो गया है। परिवार की साख खत्म हो चुकी है और पार्टी अंतः विस्फोट का शिकार हो गई है। लोग पार्टी छोड़ रहे हैं। जो अभी तक बने हुए हैं, वे पार्टी के प्रेम के कारण नहीं, बल्कि इसलिए टिके हैं कि उन्हें आगे का रास्ता नहीं सूझ रहा। आजादी के 72 साल में संसद के भीतर और बाहर विपक्ष इतना दयनीय कभी नहीं रहा। ऐसा लग रहा है कि विपक्ष का कुतुबनामा यानी दिशासूचक यंत्र खो गया है। इसलिए सब एक ही जगह पर गोल-गोल घूम रहे हैं। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता पिछले छह-सात दशक से जिस सूरज की रोशनी में दमक रहे थे, उस सूरज को ही ग्रहण लग गया है। इस वक्त महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। लेकिन चुनाव प्रचार और पार्टी संगठन की हालत देखकर यह पता लगाना कठिन है कि पार्टी अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा से लड़ रही है या आपस में? लोकसभा चुनाव के समय से शुरू हुआ कांग्रेस छोड़ने वालों का सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। नेतृत्व को इसकी कोई चिंता है, ऐसा दिखता नहीं। कांग्रेस इस समय तीन स्वतंत्र द्वीपों में बंट गई है। इनके नाम हैं सोनिया, राहुल और प्रियंका। आप चाहें तो इन्हें द्वीप के बजाय गणराज्य भी कह सकते हैं। काफी समय से यह लड़ाई परिवार के अंदर चल रही थी। अब खुले में आ गई है। तीनों एक-दूसरे के खिलाफ कुछ नहीं बोलते, पर शायद एक-दूसरे की सुनते भी नहीं। उनके गण जरूर बोल रहे हैं और क्या खुलकर बोल रहे हैं। अशोक तंवर और संजय निरुपम खुलेआम बोल रहे हैं कि राहुल गांधी के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। सोनिया गांधी और प्रियंका खामोश हैं। राहुल गांधी को कांग्रेस कार्यकर्ताओं में अपने प्रति अरुचि पैदा करने में करीब 15 साल लग गए। प्रियंका गांधी ने यह कारनामा आठ महीने में ही कर दिखाया। आप उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों से पूछ लीजिए। ताजा उदाहरण कालाकांकर के दिनेश सिंह की बेटी रत्ना सिंह का है। तीन बार की सांसद रत्ना प्रियंका के रवैये से परेशान होकर मंगलवार को भाजपा में शामिल हो गईं। प्रियंका इस साल फरवरी में राजनीतिक रूप से सक्रिय हुईं तो संकेत दिया कि कांग्रेस अब कम से कम उत्तर प्रदेश में जमीन पर दिखेगी। पिछले आठ महीने में एक-दो अवसरों को छोड़कर वह ट्विटर पर ही अधिक नजर आती हैं। उनके ट्वीट पढ़कर उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता का ही नहीं, बल्कि उनकी अज्ञानता के स्तर का भी पता चलता है। सोनिया गांधी ट्विटर या किसी सोशल मीडिया मंच पर हैं ही नहीं। वह दिन दूर नहीं लगता, जब कांग्रेस पार्टी सिर्फ सोशल मीडिया के जरिये चलने वाली पार्टी बनकर रह जाएगी। कांग्रेस के लिए समय 2004 में ठहर गया है। गांधी परिवार सहित तमाम कांग्रेसियों को लगता है कि कुछ करने की जरूरत ही नहीं, यहां भाजपा गलती करेगी और वहां मतदाता हमारे गले में वरमाला डाल देगा। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लगातार दूसरी बार दुर्गति हो चुकी है। लोकसभा चुनाव के बाद हो रहे दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में पार्टी के पास अवसर था कि वह मैदान में कम से कम लड़ती हुईनजर आती। चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी अज्ञात स्थान के लिए रवाना हो गए। कहा गया कि वह नाराज होकर गए हैं। किससे, यह पता नहीं, क्योंकि पार्टी अध्यक्ष तो उनकी मां ही हैं। चुनाव के ऐन मौके पर नेता का गायब होना वैसे ही है, जैसे युद्ध के समय सेनापति का मैदान छोड़ना। प्रियंका गांधी अब पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव हैं। उनके पास उत्तर प्रदेश का प्रभार है। हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के लिए वह कहीं नहीं गईं। अब गईं नहीं या जाने नहीं दिया गया, यह बात परिवार के अलावा कोई जानता नहीं। उत्तर प्रदेश में 12 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो रहा है। प्रियंका वहां भी चुनाव प्रचार के लिए नहीं गईं। चुनाव प्रचार के तीन दिन बचे हैं, लेकिन सोनिया गांधी भी कहीं चुनाव प्रचार के लिए नहीं गईं। राहुल गांधी हो-हल्ले के बाद देश लौटे और चुनाव प्रचार के लिए मुंबई पहुंचे। उनके प्रिय और हाल तक मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष रहे संजय निरुपम सभा में नहीं गए। जैसे हिंदी टीवी सीरियलों में अक्सर किसी न किसी पात्र की याददाश्त अटक जाती है, वैसा ही राहुल गांधी के साथ भी हो गया लगता है। चुनाव महाराष्ट्र विधानसभा का है। उन्होंने अपना भाषण वहीं से शुरू किया, जहां लोकसभा चुनाव में खत्म किया था। वह अभी राफेल के मोहपाश से निकल नहीं पाए हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि वह इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेर रहे हैं या खुद घिर रहे हैं? इस पर भी गौर करें कि सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बने दो महीने से ज्यादा हो गया है, लेकिन किसी को पता नहीं कि वह इस पद पर कब तक रहेंगी? भाजपा भी लोकसभा चुनाव लड़ी और कांग्रेस से कहीं ज्यादा ताकत से लड़ी। उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कह रहे हैं कि दिसंबर तक पार्टी के नए अध्यक्ष का चुनाव हो जाएगा। लोकसभा चुनाव में हार की जवाबदेही से राहुल को बचाने के लिए इस्तीफा दिलाया गया। कहलवाया गया कि नेहरू-गांधी परिवार का कोई व्यक्ति अध्यक्ष नहीं बनेगा। जब लगा कि पार्टी तो इसके लिए तैयार है, तो सोनिया गांधी के पुराने वफादार मैदान में उतरे और सोनिया गांधी को नए अध्यक्ष के चुनाव तक अंतरिम अध्यक्ष बनवा दिया गया। ऐसे में घी गिरा तो सही, लेकिन अपनी ही दाल में। यानी अध्यक्ष पद घर में ही रह गया। साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इंतजार था कि अब बदलाव होगा, तब बदलाव होगा। पर बदलाव की जितनी बात हो रही है, उतनी ही यथास्थिति बनी हुई है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अध्यक्ष रहते सारे बड़े फैसले परिवार की डाइनिंग टेबल पर होते थे। अब पूरी डाइनिंग टेबल ही उठकर कांग्रेस कार्यसमिति में आ गई है। अब परिवार की डाइनिंग टेबल और कार्यसमिति का अंतर खत्म हो गया है। नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस के लिए बोझ बन गया है। इसकी वजह से कांग्रेस पार्टी विपक्ष की राजनीति के लिए बोझ बन गई है। स्वस्थ जनतंत्र के लिए जरूरी है कि विपक्ष संख्या में भले ही कम हो, पर प्रभावी हो। कांग्रेस के रहते यह संभव नहीं लगता।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं) 


 अगला नंबर आपका है

 अगला नंबर आपका है
नवाज देवबंदी की लिखी ये पंक्तियां इस वक्त हिंदुस्तान की जनता को पढ़नी चाहिए और हो सके तो आत्मचिंतन भी करना चाहिए कि आखिर ये आत्मकेन्द्रित सोच हमें कहां ले आई है। दूसरों की तकलीफ को तमाशे की तरह देख लेने की प्रवृत्ति कैसे आत्मघाती बन चुकी है। कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म हुआ, दो महीने से अधिक समय तक राज्य बंदी बना रहा, लेकिन शेष भारत इससे बेपरवाह बना रहा कि हमें क्या, हम थोड़ी न कैद हुए हैं। असम में एनआरसी के बाद 19 लाख लोगों को अनागरिक घोषित कर दिया गया, हम आराम से अपने घरों में बैठे लोगों को उनके घरों,  देश से बेदखल करते देखते रहे। बहुत से अनागरिकों को अमानवों की तरह डिटेंशन सेंटर्स में रखा गया, जिनमें से कुछ की मौत हो गई, लेकिन शेष हिंदुस्तान को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। नोटबंदी के बाद लाखों नौकरियां चली गईं, कुछ लोगों की मौत हो गई। उनके घर वाले परेशान हुए, लेकिन जिनके पास नौकरियां थीं, वे चैन से बैठे रहे। अब महाराष्ट्र में पीएमसी बैंक के खाताधारकों में तीन लोगों की मौत हो चुकी है। इस बैंक में भी करोड़ों की हेराफेरी की गई है, जिसके आरोपी तो पकड़े जा चुके हैं, लेकिन सजा मिल रही है, उन आम लोगों को जिन्होंने सरकार पर भरोसे के साथ अपनी जमापूंजी बैंक में रखी थी। रिजर्व बैंक ने बैंक से रकम निकालने की सीमा तय कर दी, जिससे ईमानदारी से खाने-कमाने वालों की जान पर बन आई। मोदीजी का जुमला था, न खाऊंगा, न खाने दूंगा। इसका बाद वाला हिस्सा अब सच हो गया है। लोग अपने हिस्से का ही नहीं खा पा रहे हैं। मुंबई में कई दिनों से पीएमसी बैंक के खाताधारक धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। वित्त मंत्री से मुलाकात भी कर ली। लेकिन उनका दर्द कोई समझ नहीं पा रहा है। महाराष्ट्र के चुनाव में भी बैंक की यह जालसाजी भाजपा के लिए कोई मुद्दा नहीं है।  मोदीजी कश्मीर का राग वहां अलाप रहे हैं।  पीएमसी के दो पीड़ित दिल का दौरा पड़ने से मर गए, एक ने आत्महत्या कर ली है। इनकी मौत के चिकित्सीय कारण बतलाए जा रहे हैं, लेकिन राजनैतिक कारणों पर चुप्पी है। जो खेल देश की आर्थिक राजधानी में हुआ है, वह कहीं भी हो सकता है। लेकिन जनता इंतजार ही कर रही है कि अपने घर में आग लगेगी, तब पानी के बारे में सोचेंगे। अभी तो उस राम मंदिर के बारे में सोचा जाए, जिस पर कोर्ट में सुनवाई पूरी हो चुकी है, अगले महीने तक फैसला भी आ जाएगा, लेकिन टीवी में अब अयोध्या जीतेगी, जैसी हेडलाइन्स चल रही हैं। राम मंदिर बनाने के लिए इकऋा किए गए पत्थर दिखलाए जा रहे हैं।
पत्थर बन चुके पत्रकारों के लिए यही मुख्य खबर है। उनके पैसे न किसी बैंक में डूब रहे हैं, न उनके घर में कोई इस कदर लाचार होकर मर रहा है। उधर कश्मीर में सरकार का दावा है कि सब कुछ सामान्य है। मोदीजी तो बाकायदा विरोधियों को चुनौती दे रहे हैं। लेकिन इस सरकार में खुद इतनी हिम्मत नहीं कि महिलाओं के शांतिपूर्ण, हथियाररहित विरोध-प्रदर्शन का सामना कर सके। मंगलवार को अनुच्छेद 370 हटाने के विरोध में श्रीनगर में प्रदर्शन कर रही कम से कम एक दर्जन महिलाओं को पुलिस ने हिरासत में लिया, इनमें पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला की वृद्धा पत्नी और बेटी भी शामिल हैं। कायदे से जनता को यह सवाल सरकार से करना चाहिए कि एक लोकतांत्रिक देश में शांतिपूर्ण विरोध कर रहे लोगों को आपने हिरासत में क्यों लिया? हो सकता है जम्मू-कश्मीर के लोगों के मन में यह सवाल उठ भी रहा हो, लेकिन बाकी भारत में तो इस मुद्दे पर खामोशी ही है। उत्तरप्रदेश में सरकार ने एक झटके में होमगार्ड के 25 हजार जवानों को हटाने का फैसला ले लिया था, क्योंकि इन्हें भुगतान के लिए सरकारी खजाने में रकम पूरी नहीं पड़ रही। इन में से बहुत से जवानों ने दुख और गुस्से में प्रदर्शन किया, तो सरकार के मंत्री आश्वासन दे रहे हैं कि किसी की नौकरी नहीं जाएगी। लोग आराम से दीवाली मनाएं। देश में कार्तिक मास की अमावस आने से पहले ही अंधेरा छाया हुआ है, और सरकार सबके लिए उजाले करने की जगह कुछ लोगों के लिए आतिशबाजी का इंतजाम करने में लगी है। जनता भी दूसरों की आतिशबाजी की चकाचैंध देखकर खुश है, यह भूल गई है कि इसके बाद उसके हिस्से केवल बारूद की गंध और धुआं ही बचेगा।
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 विदेशी को हाउडी, स्वदेशी को बाय-बाय 

 विदेशी को हाउडी, स्वदेशी को बाय-बाय 
राजेंद्र शर्मा 
इस तरह भागवत ने आर्थिक नीति तथा फौरी आर्थिक निर्णयों पर, अपने मजदूर बाजू भारतीय मजदूर संघ तथा अपने आर्थिक नीति मंच, स्वदेशी जागरण मंच की आपत्तियों को ही खारिज नहीं किया है बल्कि इन प्रश्नों पर मोदी सरकार के लिए अपने दो-टूक समर्थन के जरिए और इससे भी बढ़कर ठोस आर्थिक सवालों पर, संभवतः पहली बार संघ की बेलाग राय रखने के जरिए, उन्होंने यह भी बता दिया है कि आरएसएस की, मौजूदा नवउदारवादी निजाम से अलग, अपनी कोई स्वतंत्र आर्थिक दृष्टिड्ढ है ही नहीं। वास्तव में, जैसा प्रोफेसर प्रभात पटनायक  रेखांकित करते आए हैं, आरएसएस पर केंद्रित संघ परिवार की मेहनतकश जनता के हितों के नजरिए से मौजूदा नवउदारवादी निजाम से कोई स्वतंत्र नीति ही नहीं होना ही, संघ परिवार के नेतृत्व में हिंदुत्व और कार्पोरेटों के उस गठजोड़ को मजबूती देता है, जिसका आज भारत पर राज चल रहा है। नवउदारवादी व्यवस्था के गहराते संकट के सामने, कार्पोरेटों को अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए, जनता का ध्यान अपनी दशा के वास्तविक मुद्दों से हटाना जरूरी हैऔर हिंदुत्व अपने बहुसंख्यकवादी उन्मत्त राष्टड्ढ्रवाद के जरिए, इसका बहुत कारगर औजार साबित हो रहा है। बेशक, भागवत ने अपने इस बार के दशहरा संबोधन में भी स्वदेशी, स्वसामर्थ्य आदि, का भी काफी मंत्र जाप किया है। यहां तक कि उन्होंने मोदी सरकार के कदमों के तार्किक परिणामों की जिम्मेदारी से, यह कहकर आरएसएस को अलग करने की कोशिश भी की है कि ये कदम परिस्थिति के दबावों का उत्तर देेने के प्रयास में उठाए जा रहे हैं, कि ऐसे कदम भी उठाने को सरकार बाध्य हो रही है आदि। लेकिन, इस सारे शब्दजाल के बावजूद वह इस सच्चाई को छुपा नहीं पाए हैं कि आरएसएस ने अब, फौरी आर्थिक निर्णयों पर भी भाजपा की सरकार से खुद को अलग दिखाना छोड़ दिया है। इसे मोदी-2 के साथ, आरएसएस के पूर्ण एकीकरण का भी संकेतक माना जा सकता है। याद रहे कि मोदी-1 के दौर में भारतीय मजदूर संघ तथा स्वदेशी जागरण मंच पर अंकुश लगाए रखने के बावजूद, आरएसएस को सरकार के आर्थिक निर्णयों का इस तरह खुलकर समर्थन करने की जरूरत महसूस नहीं हुई थी। भागवत के ही पिछली विजयादशमी के संबोधन का आर्थिक चिंतन सिर्फ मोदी सरकार की उपलब्धियों के बखान तक सीमित रहा था। 
वैसे आरएसएस की कार्यनीति में इस बदलाव को भी, गहराते आर्थिक संकट से पैदा हुई जरूरत माना जा सकता है। वास्तव में यह भी मौजूदा संकट की तीव्रता को ही दिखाता है कि जहां मोदी सरकार ने लंबे अरसे तक आर्थिक संकट की सच्चाई को ही नकारने की कोशिश करने के बाद, अब मुश्किल से आर्थिक सुस्ती की बात स्वीकार करना शुरू किया है, वहीं भागवत इसका भरोसा जताना जरूरी समझते हैं कि मंदी के चक्र से हम निश्चित रूप से बाहर आएंगे। हालांकि वह मंदी से पहले तथाकथित लगाना नहीं भूलते हैं। और जाहिर है कि उनके हिसाब से इस आर्थिक सुस्ती या मंदी का संघ समर्थित मोदी सरकार की नीतियों और फैसलों से कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो सिर्फ  विश्व की आर्थिक व्यवस्था (के ) चक्र की गति में आई मंदी के प्रभाव का और श्अमेरिका व चीन में चली आर्थिक प्रतिस्पर्द्घा के परिणामश् का भी, नतीजा है। फिर भी भागवत के विजयदशमी आर्थिक चिंतन की नयी बात यही नहीं है कि इसमें मोदी सरकार की नीतियों का बचाव किया गया है। इसमें नयी बात यह है कि इसमें चाहे बाध्यता कहकर ही हो, विदेशी सीधे पूंजी निवेश की अनुमति देना तथा उद्योगों का निजीकरण जैसे कदमों का भी समर्थन किया गया है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश और निजीकरण के इन कदमों को अर्थव्यवस्था में बल भरने के लिए उठाए गए कदमों के रूप में जरूरी ठहराया जा रहा है। बस, भागवत संघ के बचाव के लिए इसमें इतना जरूर जोड़ते हैं कि कभी-कभी, अपने आर्थिक परिवेश के अनुसार कोई घुमावदार दूर का रास्ता हमें चुनना पड़ सकता है। वैसे आरएसएस के उद्योगों के निजीकरण का समर्थन करने में कुछ भी नया नहीं है। संघ तो हमेशा से ही अर्थव्यवस्था को निजी हाथों में ही छोड़े जाने के पक्ष में रहा है और समाजवाद के औजार बताकर, तमाम सार्वजनिक उद्यमों का विरोध ही करता आया है। इस माने में वह हमेशा से पूंजीवादी आर्थिक नजरिए से बंधा रहा है। नयी बात यह है कि वह अब खुलकर, विदेशी पूंजी के भारतीय अर्थव्यवस्था में आने का भी समर्थन कर रहा है और वह भी कोयले के खनन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से लेकर, प्रतिरक्षा उत्पादन तक में, 100 फीसद विदेशी पूंजी के न्यौते जाने का समर्थन कर रहा है! लेकिन, आरएसएस के ऐसा करने में अचरज की भी कोई बात नहीं है। यह तो मौजूदा नवउदारवादी व्यवस्था का बुनियादी तर्क ही है, जो पूंजी के मामले में स्वदेशी और विदेशी की दीवारों को ढहाने के लिए ही काम करता है। इसी तर्क से पिछली सदी के आखिरी दशक में जब भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने की शुरूआत की गई थी, देसी पूंजी के लिए मैदान खाली करने के साथ ही साथ, विदेशी पूंजी के लिए भी दरवाजे खोलने की शुरूआत की जा रही थी। इस सदी के शुरू के सालों से नरेंद्र मोदी के राज में गुजरात में, बड़ी देशी पूंजी के साथ विदेशी बड़ी विदेशी पूंजी के गठजोड़ पर आधारित विकास का यही मॉडल चला रहा था। और नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से, विदेशी पूंजी के लिए दरवाजे चैपट खोलने की नवउदारवाद की इस मुहिम को, पहले से ज्यादा तेज ही किया गया है। अनेक क्षेत्रों में सौ फीसद विदेशी निवेश की इजाजत देने के फैसले, इसी प्रक्रिया के हिस्से हैं। मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर मोदी सरकार, इन्हीं कदमों को आगे बढ़ा रही है।लेकिन, मोदी सरकार और आरएसएस के दुर्भाग्य से आर्थिक संकट से निपटने के लिए इस रास्ते पर वे ऐसे वक्त पर दौड़ लगा रहे हैं, जब नवउदारवादी व्यवस्था का मूल तर्क ही खतरे में पड़ गया है। खुद सबसे बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था, पूंजी की मुक्त आवाजाही के गीत गाना छोड़कर, अपने देश में रोजगारों की रखवाली के आश्वासन दे रही है। इसके पीछे इस सच्चाई की पहचान है कि उसकी अपनी राष्टड्ढ्रीय सीमाओं में रोजगार का घटना या आयातों के माध्यम से उसकी सीमाओं में बेरोजगारी का आयात होना, मांग को घटाने के जरिए, उसकी अर्थव्यवस्था का आधार ही खोखला कर रहा है।लेकिन, मोदी सरकार तो इस सच्चाई को देखना ही नहीं चाहती है। दस आसियान देशों तथा छरू मुक्त व्यापार समझौते के देशों को जोड़कर, सोलह देशों के प्रस्तावित कंप्रिहेंसिव इकॉनामिक पैक्ट (आरसीईपी) के रास्ते पर मोदी सरकार का बढ़ना भी, इसी सच्चाई को दिखाता है। किसानों तथा खासतौर पर दुग्ध उत्पादकों ही नहीं, ऑटोमोबाइल्स से लेकर इस्पात व कपड़ा तक, अनेक महत्वपूर्ण उद्योगों के भी कड़े विरोध के बावजूद, मोदी सरकार अगले महीने के आरंभ में इस समझौते पर दस्तखत कर सकती है। यह इसके बावजूद है कि भागवत के  उक्त दशहरा संबोधन में ही सरकार से, व्यापार समझौतों के संबंध में सावधानी बरतने का जो आग्रह किया गया था, उससे इशारा पाकर स्वदेशी जागरण मंच ने फौरन प्रस्तावित समझौते के खिलाफ दस दिन के अभियान का ऐलान कर दिया और संघ परिवार के कुछ अन्य संगठनों ने उसके सुर में सुर मिलाया है।बहरहाल, यह मोदी सरकार पर दबाव डालने की किसी वास्तविक कोशिश के बजाय, इसका दिखावा ही ज्यादा लगता है संघ परिवार ने, स्वदेशी से पूरी तरह से मुंह नहीं मोड़ा है। इस मुद्दे पर स्वदेशी जागरण मंच जैसे संघ के बाजुओं के जागकर आवाज उठाने लगने के पीछे एक पेंच और है। इस व्यापार समझौते से अमेरिका बाहर है और जाहिर है कि वह अपने ही कारणों से इसका विरोध कर रहा है। इस मामले में संघ के मोदी सरकार से खुद को जरा सा अलग करने के पीछे, अमेरिका की नाराजगी की चिंता भी हो सकती है। वरना मौजूदा संकट से निपटने के लिए मोदी सरकार द्वारा अब तक उठाए गए सभी कदमों पर, भागवत ने संघ के अनुमोदन की मोहर लगा दी है, जबकि यह स्वतरू स्पष्टड्ढ है कि इन कदमों का एक ही मकसद हैकृकार्पोरेटों के लिए कारोबार करना ज्यादा मुनाफादेह बनाना यानी उनके मुनाफे सुरक्षित करना। जाहिर है कि इससे बढ़ती बेरोजगारी तथा कृषि संकट के चलते पैदा हुए, मांग की कमी के संकट का हल निकलने वाला नहीं है। लेकिन, मोदी सरकार ने इस संकट की तरफ से आंखें ही मंूद रखी हैं। और इसमें भी आरएसएस पूरी तरह से उसके साथ है। यह संयोग ही नहीं है कि मोदी सरकार की तरह, भागवत के आर्थिक चिंतन में भी, बेरोजगारी की दर में रिकार्ड तोड़ बढ़ोतरी का कोई जिक्र तक नहीं है। 


चीन-पाकिस्तान मतभेद के मायने

चीन-पाकिस्तान मतभेद के मायने
प्रो पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
तुर्की ने सीरिया में जो हमला किया है, उसमें एक बात सामने आयी है कि पुराने दोस्त और एक-दूसरे के प्रति सामरिक जरूरतों को समझनेवाले चीन और पाकिस्तान के बीच गंभीर मतभेद उभर रहे हैं. मगर भारत के लिए यह तसल्ली या खुशी का सबब नहीं हो सकता.सीरिया में जो कुछ भी हो रहा है, उसकी असली जिम्मेदारी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की है. जैसे ही उन्होंने यह ऐलान किया कि वह अमेरिकी फौजी-दस्तों को उन इलाकों से हटा लेंगे, तो तुर्की को यह मौका मिल गया कि वह कुर्दों के खिलाफ वंशनाशक अिभयान शुरू कर दे. कुर्द अब तक सीरिया में लगभग अमेरिकी संरक्षण में अपनी लड़ाई लड़ रहे थे. इन कुर्दों को अब लग रहा है कि ट्रंप ने उनके साथ विश्वासघात किया है.अब चाहे ट्रंप कितना ही लाल-पीला क्यों न हों और तुर्की को यह धमकी दें कि वे उसकी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देंगे, लेकिन जो नुकसान होना था हो चुका. हजारों कुर्द अपनी जान गंवा चुके हैं और इसमें शक की गुंजाइश नहीं कि तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान उस जमीन के बड़े हिस्से पर काबिज हो सकेंगे.  हमें यह समझ लेना जरूरी है कि कुर्दों के मामले में चीन और पाकिस्तान एक-राय नहीं हो सकते. पाकिस्तान में जिस तरह का वहाबी इस्लामी कट्टरपंथ अपनी जहरीली जड़ें फैला चुका है, उसके मद्देनजर इस्लाम को माननेवाले किसी अल्पसंख्यक समुदाय के साथ पाकिस्तान के सुन्नी शासकों की हमदर्दी नहीं हो सकती. यह याद रखने लायक है कि कुर्द समुदाय नस्लीय आधार पर भी पाकिस्तान, ईरान, तुर्की और सीरिया की बहुसंख्यक आबादी से अलग जातीय पहचान वाला है. कुर्द लोग जब भी अपने लिए स्वतंत्र अलग देश की बात करते हैं, तो उनकी नस्लीय, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान उन सभी संप्रभु देशों को अपनी एकता और अखंडता के लिए खतरा नजर आती है, जहां-जहां इनकी मौजूदगी है. पाकिस्तान स्वयं इस समय पख्तूनों, बलूचों और सिंधियों के साथ पश्चिमोत्तरी सीमांत वाले आदिवासी बहुल इलाकों में बगावत से परेशान है. पाकिस्तान के लिए यह श्रेष्ठ विकल्प है कि तुर्की बल प्रयोग द्वारा कुर्दों का सफाया कर दे और उसे अपनी एकता-अखंडता की रक्षा के लिए इस रणनीति को तर्कसंगत साबित करने का मौका मिल जाये. जहां तक चीन का प्रश्न है, उसके लिए कुर्दों की उपयोगिता सिर्फ सामरिक है. मध्य-पूर्व में यानी अरब जगत में चीन का मानना है कि फिलहाल जो भी ताकतें तेल की राजनीति से संचालित इस क्षेत्र को अमेरिकी प्रभुत्व से मुक्त कराने में सहायक हो सकती हैं, उनके साथ गठजोड़ किया जा सके. 
इसी सोच के अनुसार चीन ने ईरानियों, हिज्बुल्लाह की सैन्य टुकड़ियों के साथ-साथ कुर्दों का सहकार स्वीकार कर संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया. अब तुर्की इस रणनीति में जब विघ्न डालता नजर आ रहा है, तब चीन की नाराजगी स्वाभाविक है. तुर्की भले ही अपने को एक इस्लामी राज्य मानता है, उसकी पहचान कमोबेश पश्चिमी मिजाज की जनतांत्रिक राज्य वाली रही है. कमाल अतातुर्क के जमाने से ही तुर्की का आधुनिकीकरण खिलाफत के खात्मे के साथ शुरू हुआ था और वहां धर्मनिरपेक्षता बनाम इस्लामी कट्टरपंथी की लड़ाई काफी पुरानी चल रही है. दिलचस्प यह है कि एर्दोगान एक ओर तो फौज के समर्थन से सत्ता में बने हुए हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें इस्लामी तत्वों का भी समर्थन प्राप्त है. विडंबना यह है कि अमेरिका में शरण लिये जो इस्लामी उलेमा एर्दोगान का प्रतिरोध कर रहे हैं, उनके प्रति भी पाकिस्तान भले ही आत्मीय रिश्ता बरकरार रखने को आतुर हो, लेकिन चीन की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है. हम इस बात को अनदेखा नहीं कर सकते कि चीन इस समय अमेरिका के साथ एक कठिन वाणिज्य युद्ध की चुनौती झेल रहा है. चीन को राजनयिक दृष्टि से अपने हित में लगता है कि तुर्की में और शेष अरब जगत में भी अमेरिका कमजोर पड़े. यदि तुर्की अमेरिका की शह पर कुर्दों पर हमला बोलता है (जैसा उसने कर दिया है), तब यह चीन की नजर में एक तीर से दो शिकार है. एक ओर तुर्की की अर्थव्यश्वस्था तहस-नहस होने से सामाजिक अशांति और राजनीतिक उथल-पुथल का सूत्रपात होगा, जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका की स्थिति बहुत कमजोर होगी और चीन को पैर पसारने का मौका मिलेगा. इस समय ट्रंप महाभियोग के कठघरे में भी खड़े हैं और तुर्की को तबाह करने की उनकी धमकी काफी हद तक अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है. उधर, यदि संयोगवश ब्रेक्जिट की गुत्थी सुलझ भी जाती है, तो देर तक फ्रांस या जर्मनी (जो तुर्की शरणार्थियों को लेकर परेशान रहे हैं) तुर्की की तरफ ध्यान देने की स्थिति में नहीं होंगे. यह आशा करना व्यर्थ है कि पुतिन तुर्की में दखलअंदाजी की कोई चेष्टा करेंगे. कश्मीर मसले पर जिन गिने-चुने इस्लामी देशों ने पाकिस्तान का साथ दिया था, उनमें तुर्की एक है. तुर्की का समर्थन पाकिस्तानी इस्लामी तानाशाहों की मजबूरी है. चीन अपने शिनजियांग के उग्यूर में इस्लामी कट्टरपंथी के संकट से न तो अपरिचित है, न ही निकट भविष्य में हांगकांग के सिरदर्द से मुक्त होनेवाला है.पाकिस्तान की ललक यह भी है कि वह खुद को एक आधुिनक इस्लामी राज्य के रूप में पेश कर सके. इसलिए तुर्की का पतन और ईरान का अमेरिका के निशाने पर होना पाकिस्तान को दुस्साहसिक राजनयिक के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. कुल मिलाकर, भारत-पाक संबंधों के संदर्भ में इस मतभेद से कोई अंतर पड़नेवाला नहीं है.


हारी हुई लड़ाई लड़ता विपक्ष

 

हारी हुई लड़ाई लड़ता विपक्ष

नवीन जोशी

वरिष्ठ पत्रकार

लोकसभा चुनावों में मिली बड़ी पराजय को पीछे छोड़कर विपक्ष के पास 'अजेय' नरेंद्र मोदी यानी भाजपा को घेरने का एक अच्छा अवसर हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव थे. चंद महीनों बाद उसे झारखंड, बिहार और दिल्ली में इस अवसर को और बड़ा बनाने का मौका भी मिलनेवाला था. यह था इसलिए कि हालात बता रहे हैं कि विपक्ष यह अवसर अब खो बैठा है. वह अपने में ही घिर कर रह गया है. यही हाल उत्तर प्रदेश का है, जहां ग्यारह विधानसभा सीटों के उप-चुनाव में भाजपा की मोर्चेबंदी के सामने बिखरा हुआ विपक्ष टिक नहीं पा रहा. बीते लोकसभा चुनाव की तरह विपक्ष के पास भाजपा के खिलाफ मुद्दों की कमी नहीं है. आर्थिक मंदी तेजी से पांव पसार रही है और देश-दुनिया के अर्थशास्त्री चिंताजनक बयान दे रहे हैं. पहले से जारी बेरोजगारी को बंद होते कारखाने भयावह बना रहे हैं. कृषि और किसान का हाल सुधरा नहीं है.  महंगाई बढ़ रही है. सामाजिक वैमनस्य और नफरती हिंसा का दौर थम नहीं रहा. आलोचना और विरोध का दमन बढ़ा है. इस सबके बावजूद विपक्ष भाजपा सरकार को जनता के सामने कटघरे में खड़ा करना तो दूर, इन्हें बहस का मुद्दा भी नहीं बना पा रहा. भाजपा के नेता एक ही हथियार से विपक्ष की बोलती बंद कर दे रहे हैं.

आश्चर्य हो सकता था, लेकिन अब नहीं होता कि महाराष्ट्र, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में कश्मीर सबसे बड़ा मुद्दा क्यों है. भाजपा के स्टार प्रचारकों के चुनाव भाषण यह भ्रम पैदा कर रहे हैं कि चुनाव कश्मीर में हो रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी मंच से ललकार रहे हैं कि हिम्मत है, तो विपक्ष कहे कि कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा वापस दिलायेंगे, अनुच्छेद 370 बहाल कर देंगे. अमित शाह, राजनाथ सिंह, योगी आदित्यनाथ, सभी मोदी सरकार के कश्मीर फैसलों को सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कर रहे हैं. कांग्रेस पर लांछन लगा रहे हैं कि वह कश्मीर और सीमा पर हमारे सैनिकों को शहीद होते देखती रही और एक फैसला नहीं ले सकी. विपक्ष इसका कोई जवाब नहीं दे पा रहा. जो जवाब वह दे सकता है, उसका उल्लेख करने का साहस नहीं बचा. हालात ऐसे बना दिये गये हैं कि जनता का बहुमत सरकार के फैसलों के साथ है. उग्र हिंदू-राष्ट्रवाद पर कश्मीर का ऐसा तड़का लगा दिया गया है कि सारा देश एक तरफ और कश्मीर एक तरफ हो गया है. कई विपक्षी नेता भी पार्टी लाइन से हटकर कश्मीर पर सरकार के साथ हो गये थे. ऐसे में कश्मीर की तरफदारी का अर्थ विपक्ष के लिए बचे जनाधार को भी खो देना है. किसी भी चुनाव में विरोधी दलों की सबसे बड़ी सफलता सरकार-विरोधी मुद्दों को जनता का मुद्दा बना देना होती है, लेकिन आज के विपक्षी नेता न आर्थिक बदहाली को मुख्य मुद्दा बनाने में सफल हो रहे हैं, न बेरोजगारी को. कुछ दिन दृश्य से लापता रहने के बाद राहुल गांधी ने फिर से मोदी के खिलाफ मोर्चा संभाला है.वे कह रहे हैं कश्मीर और पाकिस्तान को मुद्दा बनाकर मोदी जनता की बड़ी समस्याओं पर पर्दा डाल रहे हैं, किंतु जैसे उनकी यह बात कोई सुन नहीं रहा. इसलिए वे फिर राफेल विमान सौदे में गड़बड़ी का आरोप लगाकर चैकीदार चोर है पर उतर आये हैं. लोकसभा चुनाव में यह नारा पूरी तरह पिट गया था. रक्षा मंत्री बड़े प्रचार के बीच स्वयं फ्रांस जाकर पहला राफेल विमान ले भी आये हैं. ऐसे में राफेल मुद्दा राहुल की कितनी मदद कर सकता है? इसके अलावा हरियाणा और महाराष्ट्र में विपक्षी खेमा आपसी कलह और दल-बदल से त्रस्त है. पिछले विधानसभा चुनाव में दूसरे नंबर पर रही चैटाला-पार्टी अब विभाजित है. इंडियन नेशनल लोक दल के दो धड़े हो गये. ओमप्रकाश चैटाला के महत्वाकांक्षी पोते दुष्यंत चैटाला ने 'जननायक जनता पार्टी नाम से नया दल बना लिया. कांग्रेस इसका कुछ लाभ उठा सकती थी, लेकिन अनिर्णय के शिकार उसके शीर्ष नेतृत्व ने ही इस अवसर को गंवा दिया. हरियाणा कांग्रेस के नेतृत्व में बदलाव का फैसला बहुत समय तक लंबित रखने के बाद ऐन चुनावों के पहले किया गया. कुमारी शैलजा को नया अध्यक्ष बनाने का फैसला समय रहते किया गया होता, तो उन्हें पार्टी को एकजुट करने का मौका मिलता. पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने नाराजगी में पार्टी ही छोड़ दी और सोनिया गांधी के घर के बाहर विरोध-प्रदर्शन भी किया. टिकट बंटवारे पर भी रार मची रही. चुनावी मंचों पर एकता-प्रदर्शन करके कार्यकर्ताओं को एकजुट रखने की कोशिश दिख रही है, लेकिन जमीन पर गुटबाजी जोरों पर है. असंतोष भाजपा में भी है, लेकिन उसके बड़े नेता इसे चुनावी नुकसान में बदलने से रोकना जानते हैं. वे श्अबकी बार 75 पारश् का नारा लगाकर कार्यकर्ताओं का जोश बढ़ाने में सफल हैं. इसी कारण उन्होंने राज्य में अकाली दल से गठबंधन भी तोड़ लिया है.

महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना का पुराना झगड़ा खत्म होने के बाद उनकी महा-युति बहुत मजबूत है. शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस का श्महा-अगाड़ीश् उसके मुकाबले में बहुत कमजोर है. नरेंद्र मोदी ने वहां अपनी पहली चुनावी रैली 19 सितंबर को की थी, जबकि राहुल की पहली सभा 13 अक्तूबर को हुई. इससे दोनों की तैयारियों का पता चलता है. 

सत्ता में वापसी करने की पूरी आशा लगाये मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने यूं ही तंज नहीं कसा कि इस बार चुनाव में मजा नहीं आ रहा, क्योंकि विपक्ष ने पहले ही हार मान ली है. महाराष्ट्र में कांग्रेस काफी पहले जनाधार खो चुकी है. रहे-बचे नेता असंतुष्ट होकर आपस में लड़ रहे हैं. संजय निरूपम ने तो सीधे शीर्ष नेतृत्व पर ही अंगुली उठाते हुए कह दिया कि कांग्रेस बुरी तरह हारेगी. गठबंधन का दारोमदार शरद पवार पर रहता है, लेकिन अब वे भी उम्र, बीमारी और साथ छोड़कर जानेवाले नेताओं के कारण वैसे ताकतवर क्षत्रप नहीं रहे, जिसके लिए वे जाने जाते हैं. हाल में शरद पवार के दशकों पुराने साथी भाजपा और शिव सेना में चले गये. उत्तर प्रदेश के ग्यारह उप-चुनावों में चतुष्कोणीय मुकाबला है. सपा, बसपा, कांग्रेस सब आपस में लड़ते हुए भाजपा का मुकाबला कर रहे हैं. उनमें जीतने से ज्यादा दूसरे नंबर पर रहने की होड़ मची है. भाजपा उत्साहित है. स्वयं मुख्यमंत्री योगी प्रचार में उतरे हैं. जो परिदृश्य सामने है, उसमें तो यही कहा जा सकता है कि विपक्ष एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है.

 जेएनयू के पूर्व छात्र को नोबेल

 जेएनयू के पूर्व छात्र को नोबेल
भारत में अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर रोजाना बुरी खबरें आ रही हैं। मोदी सरकार मान नहीं रही लेकिन जमीनी हालात यही दिखा रहे हैं कि देश आर्थिक रूप से बेहद मुश्किल दौर से गुजर रहा है। आरबीआई, मूडीज के बाद अब विश्व बैंक ने भी जीडीपी अनुमान घटा दिया है। अप्रैल में विश्व बैंक का अनुमान था कि भारत की जीडीपी 7.5 प्रतिशत रहेगी, लेकिन अक्टूबर में इसे घटाकर 6 प्रतिशत से भी नीचे कर दिया गया है। किसी देश की जीडीपी गिरने का मतलब है कि समूचे देश में आय और व्यय का स्तर घट रहा है और इससे लोगों के जीवन स्तर पर भी फर्क पड़ता है। प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन जैसी सब्जियां अब आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रही हैं, सितंबर में खुदरा महंगाई दर 3.99 प्रतिशत तक पहुंच गई है, जो अगस्त में 3.21 प्रतिशत थी।
नौकरियां नहीं हैं, सरकार कह रही है कि हमने कभी नहीं कहा कि हम सरकारी नौकरी देंगे, कारखाने अपना घाटा कम करने के लिए लोगों की छंटनी कर रहे हैं और उत्पादन भी घटा रहे हैं। यह सब तब हो रहा है जब देश किसी तरह के युद्ध में नहीं फंसा है। गृहयुद्ध नहीं चल रहा है। हड़ताल, आंदोलन नहीं हो रहे हैं। जो छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन होते हैं, उन्हें भी दबाया जा रहा है, और देश में पूर्ण बहुमत वाली निर्वाचित सरकार है, जिसने लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल की है। जिसके पास इतनी शक्ति है कि वह मनचाहे फैसले ले ले, क्योंकि विपक्ष बेहद कमजोर है। इतनी शक्तिशाली सरकार को तो देश की कायापलट कर रख देनी चाहिए थी। लेकिन मोदी सरकार भारत को उन कमजोर देशों की श्रेणी में ढकेल रही है, जो लगातार आतंकवाद, गृहयुद्ध, बाह्यड्ढ आक्रमण जैसी स्थितियों का शिकार हुए हैं और आर्थिक रूप से बिल्कुल टूटे हुए हैं। भारत अभी बचा है, बहुत कुछ अपने पैरों पर भी खड़ा है, लेकिन कब तक, यही बड़ा सवाल है। अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने कुछ दिन पहले एक व्याख्यान में कहा था कि भारत की अर्थड्ढव्यवस्था की चुनौतियां अब इतनी बड़ी हो चुकी हैं कि उसे सही रास्ते पर लाने के लिए प्रार्थना ही की जा सकती है।
अभिजीत बनर्जी निराशावादी नहीं है, यथार्थवादी हैं। उन्होंने गरीबी को, गरीबों की मानसिकता, उनकी आदतों को समझने के लिए बरसों शोध और अध्ययन किया है, और गरीबी उन्मूलन के लिए दुनिया को कुछ बेहतरीन उपाय सुझाएं हैं। इसलिए 2019 के अर्थशास्त्र में नोबेल के लिए अभिजीत बनर्जी, काम और जीवन में उनकी भागीदार इश्तर डूफलो और माइकल क्रेमर को संयुक्त रूप से चुना गया है। तो इस तरह भारत के लिए अर्थड्ढव्यवस्था के क्षेत्र में एक खुशी की खबर ये है कि एक भारतवंशी को नोबेल पुरस्कार मिला है।  अभिजीत कुछ समय पहले ही अमेरिकी नागरिक बने हैं। लेकिन मुंबई में जन्म, कोलकाता में शिक्षा और दिल्ली में उच्च शिक्षा लेने वाले अभिजीत भारत को और यहां की गरीबी को अच्छे से समझते हैं। अभिजीत की मां के मुताबिक वे बचपन से अपने घर के पास गरीब बच्चों के साथ खेलते थे और उनकी जीवनदशा को लेकर फिक्रमंद होते थे। बाद में जेएनयू, हार्वर्ड से होते हुए एमआईटी पहुंचने तक गरीबी उन्मूलन के लिए उनकी फिक्र खत्म नहीं हुई।
2003 में अभिजीत ने अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब की स्थापना की और भारत समेत कई देशों में क्षेत्रवार प्रयोग किए, जिससे गरीबों का जीवन सुधारा जा सके। उन्हें नोबेल भी इसलिए दिया गया कि इनकी रिसर्च गरीबी से लड़ने में मदद कर रही है। अभी आम चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में न्याय का दांव चला था, जिसके तहत 20 प्रतिशत गरीब लोगों को हर महीने 6 हजार रुपए देने का वादा था। इस अवधारणा को विकसित करने में अभिजीत बनर्जी का बड़ा योगदान था। लेकिन भारतीय मतदाताओं ने न्याय के ऊपर पुलवामा-बालाकोट को तरजीह दी और कांग्रेस को सत्ता से फिर दूर कर दिया। अभिजीत बनर्जी मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं। नोटबंदी के वक्त उन्होंने कहा था कि मैं इस फैसले के पीछे के लॉजिक को नहीं समझ पाया हूं। जैसे कि 2000 रुपये के नोट क्यों जारी किए गए हैं। मेरे ख्याल से इस फैसले के चलते जितना संकट बताया जा रहा है उससे यह संकट कहीं ज्यादा बड़ा है। वे उन 108 अर्थशास्त्रियों के पैनल में शामिल रहे जिन्होंने मोदी सरकार पर देश के जीडीपी के वास्तविक आंकड़ों में हेरफेर करने का आरोप लगाया था। हाल ही में कार्पोरेट टैक्स में कटौती को भी उन्होंने सही नहीं माना था। उनका कहना है कि लोककल्याणकारी राज्य में अमीरों पर टैक्स लगाना और उससे गरीबों की भलाई के लिए काम करना उचित ही है। अभिजीत की ऐसी बातें मोदीजी को पसंद तो नहीं आई होंगी, लेकिन उन्होंने अभिजीत बनर्जी को बधाई दी है। हालांकि अनंत हेगड़े जैसे लोग भी इस देश में हैं, जो हार्वर्ड के हार्डवर्क को मिले सम्मान को राजनैतिक चश्मे से देख रहे हैं। वैसे मोदी सरकार चाहे तो इस तथ्य से आंखें मंूद लें कि अभिजीत बनर्जी ने जेएनयू से पढ़ाई की है और उनके शिक्षक उन्हें बेहतरीन छात्रों में से एक मानते हैं। इसी जेएनयू में 1983 में कुलपति के विरूद्ध घेराव प्रदर्शन में सैकड़ों छात्रों पर कार्रवाई हुई, जिसमें अभिजीत भी शामिल थे और उन्हें 10 दिन तिहाड़ में रहना पड़ा। तब छात्रों पर राजद्रोह जैसे मुकदमे करने का राजनैतिक चलन नहीं था। 2016 में जब कन्हैया कुमार समेत कई छात्रों पर कार्रवाई हुई, जेएनयू को बदनाम करने की अंतहीन कोशिशें हुईं, जो आज भी जारी हैं, तब अभिजीत बनर्जी ने एक लेख में लिखा था हमें जेएनयू जैसे सोचने-विचारने वाली जगह की जरूरत है और सरकार को निश्चित तौर पर वहां से दूर रहना चाहिए। क्या मोदी सरकार अब एक नोबेल विजेता की बातों पर गौर फरमाएगी।


 टैक्स कटौती से नहीं हासिल होगा विकास

 टैक्स कटौती से नहीं हासिल होगा विकास
डॉ. भरत झुनझुनवाला 
बीते बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने कंपनियों द्वारा अदा किये जाने वाले आय कर, जिसे कॉर्पोरेट टैक्स कहा जाता है, उसे लगभग 35 प्रतिशत से बढ़ाकर 43 प्रतिशत कर दिया था। उन्होंने कहा था कि अमीरों का दायित्व बनता है की देश की जरूरतों में अधिक योगदान करें। बीते माह उन्होंने अपने कदम को पूरी तरह वापस ले लिया और कंपनियों द्वारा अदा किये जाने वाले आयकर को घटाकर लगभग 33 प्रतिशत कर दिया है। इस उलटफेर से स्पष्ट होता है कि आय कर की दर का आर्थिक विकास पर प्रभाव असमंजस में है। यदि आय कर बढ़ाया जाता है तो इसका प्रभाव सकारात्मक भी पड़ सकता है और नकारात्मक भी। यदि राजस्व का उपयोग घरेलू माल की खरीद से निवेश करने के लिए किया गया, जैसे देश में बनी सीमेंट और बजरी से गांव की सड़क बनाईं गईं, तो इसका प्रभाव सकारात्मक पड़ेगा। इसके विपरीत यदि उसी राजस्व का उपयोग राफेल फाइटर प्लेन खरीदने के लिए अथवा सरकारी कर्मियों को ऊंचे वेतन देने के लिए किया गया तो प्रभाव नकारात्मक पड़ सकता है। कारण यह कि राफेल फाइटर प्लेन खरीदने से देश की आय विदेश को चली जाती है जैसे गुब्बारे की हवा निकाल दी जाए। मैं राफेल फाइटर प्लेन का विरोध नहीं कर रहा हूं लेकिन इसके पीछे जो आर्थिक गणित है वह आपके सामने रख रहा हूं। यदि सरकारी कर्मियों को ऊंचे वेतन दिए जाते हैं तो इसका एक बड़ा हिस्सा विदेशी माल जैसे स्विट्जरलैंड की बनी  चॉकलेट खरीदने में अथवा विदेश यात्रा में खर्च हो जाता है जिससे आर्थिक विकास की दर पुनः गिरती है।  देश में मांग उठ रही है कि व्यक्तियों द्वारा देय आयकर में भी कटौती की जाए। इसका भी प्रभाव सकारात्मक पड़ सकता है अथवा नकारात्मक। इतना सही है कि आयकर घटाने से करदाता के हाथ में अधिक रकम बचेगी जैसे करदाता पहले यदि 100 रुपये कमाता था और उसमे से 30 रुपये आयकर देता था तो उसके हाथ में 70 रुपये बचते थे। यदि आयकर की दर घटाकर 25 प्रतिशत कर दी जाए तो करदाता के हाथ में अब 75 रुपये बचेंगे। वह पहले यदि 70 रुपये का निवेश कर सकता था तो अब 75 रुपये का निवेश कर सकेगा। लेकिन यह जरूरी नहीं कि बची हुई रकम का निवेश ही किया जाएगा। उस रकम को वह देश से बाहर भी भेज सकता है। बताते चलें कि यदि देश में आयकर की दर घटा दी जाए तो भी यह निवेश करने को पर्याप्त प्रलोभन नहीं है क्योंकि अबू-धाबी जैसे तमाम देश हैं जहां पर आयकर की दर शून्य प्रायरू है।  मनिपाल ग्लोबल एजुकेशन के टीवी मोहनदास पाई के अनुसार देश से अमीर बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं। वे भारत की नागरिकता त्यागकर अपनी पूंजी समेत दूसरे देशों को जा रहे हैं और उन देशों की नागरिकता स्वीकार कर रहे हैं। पाई के अनुसार इसका प्रमुख कारण टैक्स कर्मियों का आतंक है। उनके अनुसार आज कर दाता महसूस करता है कि उसके टैक्स कर्मियों द्वारा परेशान किया जा रहा है। मेरा अपना मानना है कि वर्तमान सरकार कंप्यूटर तकनीक के उपयोग से आयकर दाताओं और टैक्स अधिकारियों के बीच सीधा संपर्क कम कर रही है जो कि सही दिशा में है लेकिन इसके बाद जब जांच होती है अथवा अपीलीय प्रक्रिया होती है तो करदाता और टैक्स अधिकारियों का आमना सामना होता ही है। मूल बात यह है कि वर्तमान सरकार टैक्स अधिकारियों को ईमानदार और करदाताओं को चोर की तरह से देखती है। सरकार का यह प्रयास बिलकुल सही है कि देश में तमाम उद्यमी हैं जो देश के बैंकों की रकम को लूट कर जा रहे हैं अथवा टैक्स की चोरी कर रहे हैं। लेकिन एक चोर को दूसरे चोर के माध्यम से पकड़ना कठिन ही है। मनुस्मृति में कहा गया है कि श्राजा के कर्मी मुख्यतरू चोर और फरेबी होते हैं और वे जनता का धन लूटते हैं, राजा इनसे अपनी जनता की रक्षा करे।श् यानी मनुस्मृति के अनुसार सरकार के कर्मी मूलतरू चोर होते हैं। लेकिन वर्तमान सरकार की दृष्टि में सरकार के कर्मी ईमानदार हैं और करदाता चोर हैं। अतरू कंप्यूटर तकनीक से जो सुधार किया जा रहा है उससे कर्मियों का मूल भाव बदलता नहीं दिखता है। परिणाम यह है कि टैक्स के आतंक के चलते देश से अमीरों का पलायन जारी है। अमीरों के पलायन का दूसरा प्रमुख कारण जीवन की गुणवत्ता बताया जा रहा है। देश में वायु की गुणवत्ता गिरती जा रही है। मेरे एक मित्र दिल्ली में रहते थे उनकी पत्नी का वजन बिना किसी कारण के 45 किलो से घटकर 25 किलो हो गया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली को छोड़ा और देहरादून में आकर बसे। बिना किसी दवाई के उनकी पत्नी का वजन पुनरू बढ़ गया। वायु की घटिया क्वालिटी के कारण अमीर अपने देश में रहना पसंद नहीं कर रहे हैं। इसी प्रकार ट्रैफिक की समस्या है जिसके कारण वे यहां नहीं रहने चाहते हैं। इस दिशा में सरकार का प्रयास उल्टा पड़ रहा है। जैसे सरकार ने कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों द्वारा उत्सर्जित जहरीली गैसों के मानकों में हाल में छूट दे दी है। उन्हें वायु को प्रदूषित करने का अवसर दे दिया है। इस छूट का सीधा परिणाम यह है कि बिजली संयंत्रों द्वारा उत्पादन लागत कम होगी और आर्थिक विकास को गति मिलेगी। लेकिन उसी छूट के कारण वायु की गुणवत्ता में गिरावट आएगी और देश के अमीर यहां से पलायन करेंगे और विकास दर घटेगी जैसा हो रहा है। इसी प्रकार सरकार ने गंगा के ऊपर बड़े जहाज चलाने का निर्णय लिया है। सीधे तौर पर बड़े जहाज चलेंगे ढुलाई का खर्च कम होगा और आर्थिक विकास को गति मिलेगी। लेकिन इन्हीं बड़े जहाजों से गंगा का पानी प्रदूषित होगा, गंगा का सौन्दर्य खंडित होगा और जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आएगी। अतरू सरकार को किसी निर्णय को लेते समय जीवन की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान देना होगा और पर्यावरण को बोझ समझने के स्थान पर पर्यावरण की रक्षा के इस आर्थिक लाभ का भी मूल्यांकन करना होगा। तीसरा बिंदु सामाजिक है। अमीर व्यक्ति चाहता है कि उसे वैचारिक स्वतंत्रता मिले। वह अपनी बात कह सके। लेकिन बीते समय में देश में स्वतंत्र विचार को हतोत्साहित किया गया है। जो व्यक्ति सरकार की विचारधारा से विपरीत सोचता है, उसके ऊपर किसी न किसी रूप से दबाव डाला रहा है।  इन तमाम कारणों से अमीरों को भारत में रहना पसंद नहीं आ रहा है और वह देश से पलायन कर रहे हैं। वित्त मंत्री द्वारा टैक्स कॉर्पोरेट कम्पनियों द्वारा अथवा व्यक्तियों द्वारा जो आयकर में कटौती की गई है अथवा जो शीघ्र किये जाने की संभावना है उससे देश के आर्थिक विकास को कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि मूल समस्या सांस्कृतिक है। देश ने जो नौकरशाही को ईमानदार, पर्यावरण की हानि को आर्थिक विकास का कारक और वैचारिक विभिन्नता को नुकसानदेह दृष्टि से देख रखा है उसका सीधा परिणाम है कि देश के अमीर देश को छोड़कर जा रहे हैं और देश की आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ रही है।


 महात्मा गांधी के 150वीं जयन्ती वर्ष में हमारे नये उत्तरदायित्व

 महात्मा गांधी के 150वीं जयन्ती वर्ष में हमारे नये उत्तरदायित्व
डॉ. दीपक पाचपोर
जिन्होंने दो अक्टूबर को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती सच्चे मन से मनाई है, उन भारतीयों ने एक तरह से अपने लिए कुछ नई जिम्मेदारियों को आमंत्रित कर लिया है जिन्हें वे साझा व सामूहिक तौर पर पूरा करने के लिए एक तरह से अनायास ही प्रतिबद्ध हो गये हैं। ये नये उत्तरदायित्व न तो घोषित हैं न ही उन पर थोपे गये हैं। ये नैतिक हैं इसलिए स्वैच्छिक हैं। फिर भी, इन्हें निभाना एक तरह से देश के प्रति अपनी नागरिक जिम्मेदारियों को पूरा करना तो है ही, गांधी के प्रति उऋण होना भी है। नागरिकों के रूप में हमें जन्म से ही जैसे कुछ अधिकार मिलते हैं वैसे ही पैदाइशी कुछ कर्तव्य भी होते हैं। सामान्य परिस्थितियों में तो आप उन जिम्मेदारियों का सरसरी तौर पर निर्वहन न भी करें तो भी न आपका कुछ विशेष बिगड़ता है न ही राज्य उसे बहुत गंभीरता से लेता है। समाज भी उदारतावश उसे नजरंदाज कर देता है। फिर भी हर राष्ट्र-समाज में अक्सर ऐसे घटनाक्रम आते ही हैं जब विशिष्ट हालात पैदा हो जाते हैं और नागरिक बोध के चलते उनके द्वारा कुछ नए-पुराने दायित्वों का निर्वाह करना जरूरी हो जाता है। वैसे ही, जैसे अहिंसा को मानने वाले भी देश पर आए संकट के चलते या नैतिकता के तकाजे पर हथियार उठा लेते हैं। कुछ ऐसी ही स्थिति भारत की भी है। इनके चलते अब कुछ एकदम नई जिम्मेदारियां हैं, जो हाल के समय में हुए परिवर्तनों से उठ खड़ी हुई हैं। इन दायित्वों को जानने से पूर्व उनकी पार्श्वभूमि को जानना जरूरी है। स्वतंत्रता के पूर्व नागरिक के तौर पर हमारे नागरिक दायित्व सीमित थे। हमारे राष्ट्रवादी नेताओं ने आजादी का एजेंडा हमारे जीवन से स्टेपल कर दिया था। महात्मा गांधी ने एक संप्रभु भारत के आर्थिक-सामाजिक जीवन का ब्यूप्रिंट बनाकर आजादी को एक तरह से नागरिकों की अनिवार्यता बनाकर उन्हें श्करो या मरोश् का नारा दिया था। 1947 के तत्काल बाद की पीढ़ी ने गांधी मार्ग को पूरी तरह तो नहीं अपनाया लेकिन बापू के कुछ सिद्धांतों को अपनाने के प्रयास तो हुए ही। स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व का एजेंडा देश और नागरिक दोनों का ही था। यानी नागरिक मिलकर स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के आधार पर देश बनाएं और राज्य इसके अनुरूप नागरिकों में स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व की भावना रचे। इसलिए इसके अनुकूल संविधान बनाया गया। समय के साथ देश की तासीर के अनुकूल इसके धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखने की सांझी जिम्मेदारी राज्य, नागरिक व संविधान की हो गई। अब बड़ा स्पष्ट तो यह हो गया है कि देश, प्रजा और संविधान का यह चरित्र बदलने की कोशिश करने वाले ऐसे व्यक्तियों, विचारों और संगठनों का विरोध करना हमारी नई जिम्मेदारी है। स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व की भावना से हटने वालों की खिलाफत करना आज का हमारा स्पष्ट व प्रारंभिक कर्तव्य बन गया है। वे ताकतें जो देश के धर्मनिरपेक्ष चेहरे को बिगाड़कर उसे एक धर्म के वर्चस्व वाले और बहुसंख्यकवादी समाज में बदलने को लालायित थीं (अब भी हैं) लंबे अरसे तक संविधान की शक्ति से हाशिये पर थीं। वे नागरिकों की सजगता व हमारे पूर्ववर्ती हुक्मरानों के लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष कामकाज के तौर-तरीकों से लगातार पराजित होती रहीं लेकिन अंततरू हाल के वर्षों में नियामक तत्व बन गई हैं। यहीं से हमारे नए उत्तरदायित्वों की शुरुआत हो जाती है। महात्मा गांधी सत्ता को हिंसा व अन्याय का सबसे बड़ा स्रोत मानते थे इसलिए वे उसके पूर्ण विलोपन के पक्षधर थे। हालांकि उन्होंने जीते जी महसूस कर लिया था कि इन्सानी जरूरतों के चलते ऐसा बहुत संभव नहीं लगता। इस करके उन्होंने उच्चादर्शों का समझौता किया। उनका मानना था कि अगर मनुष्य कुछ कमतर आदर्शों को पाने का भी प्रयास करे तो भी वह काफी बेहतरीन समाज रच सकता है। वैसे उनके इन आदर्शों का भी आधार नैतिकता ही थी और संविधान निर्मित स्वतंत्रता-समानता-बंधुत्व की अवधारणा।
इसके ठीक विपरीत आप देखें तो किसी राज्य की बड़ी आबादी को बंधक बनाए रखने, आदिवासी क्षेत्रों में लोगों को बेदखल करने तथा देश के सबसे कास्मोपोलिटन शहर में रात के अंधेरे में सैकड़ों पेड़ काट डालने की जो घटनाएं हुई हैं वे राज्य से निकली हिंसक व अहंकारी शक्ति के बल पर ही हुई हैं। इनमें लोगों की सहभागिता तो दूर, उनसे पूर्ववर्ती या बाद में संवाद की आवश्यकता तक महसूस नहीं की गई। नोटबंदी, जीएसटी, एनआरसी, बैंकों के विलीनीकरण जैसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें संवाद व सहभागिता की शासक वर्ग द्वारा चिंता ही नहीं की गई। ये निर्णय इस भावना के अंतर्गत लिए गए कि बहुमत मिलने के बाद सरकार जो चाहे वह कर सकती है। यह कार्यप्रणाली नागरिकों की सारी नैसर्गिक स्वतंत्रता व अधिकारों के हनन पर टिकी है क्योंकि सरकार से संवाद और निर्णय में सहभागिता लोकतंत्र का आधार है। इस तरह की शासन पद्धति का विरोध करना भी गांधी के अनुयायी नागरिकों के लोकतांत्रिक व नैतिक कर्तव्य हैं। इस समय बड़ी तेजी से ऐसा देश बनाने की कोशिशें हो रही हैं जैसे कि वह किसी एक धर्म के मतावलंबियों का ही बसेरा हो सकता है। इसके खिलाफ लड़ते हुए समानता और बंधुत्व भाव बनाए रखना भी आज का हमारा नागरिक कर्तव्य है।
हम पिछले कुछ समय से यह भी देख रहे हैं कि देश की सत्ता बेहद केंद्रीकृत हो रही है। न केवल पूरी व्यवस्था एक पार्टी के भीतर सिमट रही है वरन पार्टी के भीतर भी पूरी शक्ति कुछ ही हाथों में कैद है। यहां लगभग सभी दलों की बात हो रही है। नागरिक जिस भी पार्टी का हो, अपने दल समेत सभी राजनैतिक संगठनों में संपूर्ण ताकत को कुछ हाथों में सौंपने का जमकर विरोध करे। इस प्रवृत्ति को किसी पार्टी का आंतरिक मामला कहकर नहीं छोड़ा जा सकता। सत्ता व राजनैतिक शक्ति के केंद्रीकरण के खिलाफ आवाज उठे क्योंकि इनका विकेंद्रीकरण ही प्रजातंत्र की कुंजी है। इन दिनों यह सामान्य प्रवृत्ति भी साफ दृष्टिगोचर हो रही है कि सरकार जवाबदेही से बच रही है। सरकार व राजनैतिक दलों की तानाशाही का भरपूर प्रतिकार गांधी के हर अनुयायी का पुनीत कर्तव्य है और उन पर हाल के वर्षों में इस दायित्व को निभाने का अतिरिक्त अवसर है। अधिनायकों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाना, उन्हें मीडिया व जनसामान्य के प्रति उत्तरदायी बनाए रखने का काम बापू आखिरकार हमें ही सौंप गये हैं। इधर समाज में बढ़ती हिंसा की ओर ध्यान दिलाने वाले बुद्धिजीवियों और सरकार की कमियों को रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों पर होने वाले मामले बताते हैं कि सरकारों को अपनी कमियां सुनना पसंद नहीं है। मामला यहीं तक नहीं रुकता। सत्ता में बैठे कुछ लोग 2019 को देश का अंतिम चुनाव बतलाते रहे हैं, तो अब बिना चुनाव लड़े ही अपनी सरकार बनाने का दावा भी किया जाने लगा है। संसदीय प्रणाली के औचित्य पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। इस गैरलोकतांत्रिक मानसिकता का प्रखर विरोध करते रहना भी गांधी को आत्मसात करना होगा। सत्ता की नई प्रवृत्ति यह भी विकसित हुई है कि हमारे जीवन के बुनियादी मुद्दे अर्थात रोजी, रोटी, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य से ध्यान भटकाया जा रहा है और हमें उन पर्दे ढंके कमरों में हांका जा रहा है जो सरकार की इन मोर्चों पर मिल रही नाकामियों को छिपाए। कारण है कि हमारी  अर्थव्यवस्था चैपट हो गई है, कृषि बदहाल है, उद्योगों का हाल खस्ता है, मंदी का साया है, बेरोजगारी बढ़ रही है। श्देश में सब अच्छा हैश् की खुशफहमी फैलाई जा रही है। इस भ्रम को समाप्त करना व मनुष्य के बुनियादी मसलों को लेकर सवाल करना महात्मा गांधी के 150वीं जयन्ती वर्ष के हमारे नये उत्तरदायित्वों में अहम जगह पर है। इसी 2 अक्टूबर को हमने बड़ों-बड़ों को गांधी के आगे झुकते देखा है। इसका अर्थ है कि अभी भी वे हमारे पक्ष में अन्याय के प्रतिरोध का एक सशक्त उपकरण हैं। उनसे प्राप्त शक्ति व साहस बटोरकर नागरिक अपने नए दायित्वों का निर्वाह करें! जो इन कर्तव्यों को न निभाएं, उन्हें 151वें वर्ष की जयंती पर गांधीजी की मूर्ति व चित्रों पर माल्यार्पण तो दूर, पास फटकने का भी नैतिक अधिकार नहीं है।


 ब्रेक्जिटः उलझन सुलझे ना!

 ब्रेक्जिटः उलझन सुलझे ना!
उपेंद्र सिंह 
कमजोर नेतृत्व और अदूरदर्शी निर्णय का शिकार ब्रिटेन इस समय एक कठिन दौर से गुजर रहा है. आगामी 31 अक्तूबर, 2019 को यूरोपीय संघ से ब्रिटेन अलग हो जायेगा. जून 2017 में सत्ता संभालनेवाली कंजर्वेटिव पार्टी सरकार के तीसरे प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के इस समय के तेवर देखकर तो यही लगता है, लेकिन यूके में ताजा हालात इस अनुमान को सच में बदल पायेंगे, इसमें अभी संदेह बना हुआ है. प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की छवि जनता के रोजमर्रा जीवन से जुड़े लोकप्रिय नेता की रही है, लेकिन उनके देश को इस समय ब्रेक्जिट जैसी गुत्थी सुलझानेवाले जिस नेता की आवश्यकता है, वह महारत उनमें नजर नहीं आती. इसके प्रमाण हैं एक माह पूर्व वायरल हुए दो वीडियो, जिनमें दो आम नागरिक अपने ही प्रधानमंत्री को खुलेआम लताड़ रहे हैं. पहले वीडियो में एक व्यक्ति बोरिस जॉनसन को अपना समय सड़कों पर टहलने के बजाय ब्रसेल्स जाकर ब्रेक्जिट पर गंभीरता से जुट जाने की सलाह दे रहा है. बीच सड़क पर अपने देश के प्रमुख के साथ ऐसा बर्ताव करने की छूट विश्व के शायद किसी और मुल्क में नहीं होगी, लेकिन राजतंत्र और लोकतंत्र का जितना बेहतरीन सामंजस्य इस देश में देखा जा सकता है, वह अन्य देशों के राजनेताओं और जनता के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है. सवाल यह उठता है कि जिस मुद्दे ने ब्रिटेन के दो प्रमुख नेताओं की सत्ता छीनकर उसके वर्तमान नेतृत्व को करो या मरो जैसी हालत में ला दिया है, क्या उसका हल किसी के पास नहीं है?एक नजर इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर डालें, जिसकी शुरुआत 1957 में फ्रांस, पश्चिम जर्मनी, बेल्जियम, इटली, लक्जमबर्ग और नीदरलैंड द्वारा रोम की संधि पर हस्ताक्षर करने से हुई थी. इस संधि का ही प्रतिफल था मौजूदा यूरोपीय संघ (ईयू), जिसकी पूर्ववर्ती यूरोपीय आर्थिक समुदाय (ईईसी) की बुनियाद इस धारणा के साथ डाली गयी थी कि परस्पर व्यापारिक रिश्तों में बंधे राष्ट्र, युद्ध के बजाय मित्र बनकर रहना पसंद करते हैं. यूके ने पहली बार 1963 में इसकी सदस्यता के लिए आवेदन किया. उसे 1973 में इस क्लब में शामिल कर लिया गया, लेकिन सिर्फ दो साल बाद ही यूके ने इससे बाहर निकलने के संकेत देने शुरू कर दिये. साल 1975 में एक जनमत संग्रह हुआ, जिसमें ब्रिटेन के 67 प्रतिशत लोगों ने ईयू के साथ रहने का समर्थन किया. फिर 23 जून, 2016 को जनमत संग्रह हुआ, जिसमें ईयू से अलग होने के पक्ष में 51.9 प्रतिशत वोट पड़े. तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने अपने चुनावी वादे को निभाते हुए जनता के फैसले को स्वीकार किया और अगले ही दिन उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. ब्रेक्जिट (ब्रिटेऩएक्जिट) के तीन कारण थे- ईयू के साथ रहने में ब्रिटेन को हो रहा आर्थिक नुकसान, ईयू के 27 अन्य सदस्य देशों के नागरिकों के बेरोकटोक आने-जाने, काम करने की स्वतंत्रता के चलते यूके में बढ़ रहा अवैध आप्रवासन और ब्रिटेन को अपनी स्वतंत्र पहचान धूमिल होने की चिंता. ईयू छोड़नेवालों की प्रमुख दलील थी कि समझौते के तहत यूके अपने खजाने का एक बड़ा भाग (लगभग 9 अरब डॉलर) ईयू को देता है. इस धन के बारे में ब्रिटिश लोगों का कहना था कि उसका इस्तेमाल ईयू के उन देशों की कला संस्कृति में करने के बजाय ब्रिटेन के विकास में हो, तो ही बेहतर है. पॉलिसी ऑफ किंग्स कॉलेज और यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज की एक साझा स्टडी में बताया गया है कि ब्रिटेन के लोग एक ऐसी डील के पक्ष में हैं, जिसमें ईयू के साथ किसी न किसी प्रकार की अलिखित सदस्यता बनी रहे. डेविड कैमरून के बाद अगली प्रधानमंत्री बनीं थेरेसा मे ने ईयू के साथ सर्वमान्य डील करने के तीन प्रयास किये, दुर्भाग्यवश उनके इन प्रयासों को हाउस आफ कॉमंस की स्वीकृति के बाद भी कोई सफलता नहीं मिली. सात जून, 2019 को बड़े दबाव को झेलते हुए उन्होंने भी त्यागपत्र दे दिया, तब उनकी जगह बोरिस जॉनसन ने ली. 
बोरिस एक प्रखर ब्रेक्जिट समर्थक रहे हैं. हालांकि, वे बिना डील ईयू छोड़ने के पक्षधर कभी नहीं रहे. ब्रेक्जिट की पेचीदगियों को न समझ पाने की उनकी अयोग्यता का एहसास जनता को तब हुआ, जब उन्होंने महारानी से मध्य सितंबर से 14 अक्तूबर तक संसद को निलंबित करने का आग्रह किया. उन्होंने ब्रिटेन में एक त्वरित चुनाव का भी विचार दे डाला, और महारानी ने उसे स्वीकार भी कर लिया. परंतु ब्रिटेन के उच्चतम न्यायालय के 11 सदस्यों की न्यायाधीश पीठ ने इसे गैरकानूनी करार दे दिया. ब्रिटेन के सांसदों का भी प्रयास है कि नो डील के कगार पर पहुंच चुकी बोरिस सरकार को रोकने के लिए बाध्य किया जाये. इसी के चलते अब अनेक सांसद हाउस ऑफ कॉमंस एवं हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बिल पारित कर प्रधानमंत्री से यह कहने जा रहे हैं कि वे यूरोपीय संघ से 31 जनवरी, 2020 तक बातचीत का समय मांगें. ब्रेक्जिट के अनेक विकल्पों के बारे में सोचने और उनमें से किसी एक को लागू कर पाना बोरिस जॉनसन के लिए बड़ी टेढ़ी खीर साबित होनेवाला है.
नो डील, मध्यावधि चुनाव, आंशिक तौर से उत्तरी आयरलैंड को छोड़कर शेष यूके से अलगाव, समुचित डील पर सहमति आदि ऐसे अनुत्तरित विकल्प हैं, जिन पर ब्रिटेन उलझा हुआ है. अब चिंता की बात यह है कि ब्रेक्जिट किसी भी पराभव को प्राप्त हो, इसके प्रभाव से विश्व का कोई भी देश बचा नहीं रह सकता.


भविष्य की एक दिलचस्प झलक

भविष्य की एक दिलचस्प झलक
आकार पटेल
लेखक एवं स्तंभकार
एक पुराना चुटकुला है कि भविष्य के विषय में भविष्यवाणी कठिन है. मगर एक ऐसा तरीका है, जिसके द्वारा हम परिवर्तन दर की भविष्यवाणी कर सकते हैं. इसे सुप्रसिद्ध कंप्यूटर चिप कंपनी 'इंटेल' के संस्थापक गॉर्डन मूर के नाम पर 'मूर का नियम' कहते हैं. आज से पचास वर्ष से भी अधिक समय पहले उन्होंने यह देखा कि कंप्यूटर की क्षमता प्रत्येक 18 माह पर दोगुनी हो जाती है. इसका आधार ट्रांजिस्टरों की वह संख्या थी, जिसे एक चिप पर स्थापित किया जाता है. यह न्यूटन द्वारा प्रतिपादित गति के तीसरे नियम जैसा कोई नियम नहीं, बल्कि केवल एक अवलोकन था, लेकिन यह अत्यंत सही सिद्ध हुआ और मूर द्वारा यह कहे जाने के पिछले 50 वर्षों से यह सच होता आ रहा है. कंप्यूटर की शक्ति प्रतिवर्ष कम-से-कम एक खास दर से बढ़ जाती है, जिसके नतीजतन कुछ अन्य भविष्यवाणियां भी संभव हैं. ऐसी भविष्यवाणियां करनेवाले वर्तमान में सबसे मशहूर व्यक्ति रे कुर्जवेल हैं, जो नास्त्रेदमस जैसी शख्सीयत रहे हैं और दुनियाभर में जिन्हें दसियों लाख लोग फॉलो करते हैं. ऐसा इसलिए है कि वे खासी लंबी अवधि और अत्यंत त्रुटिहीन तरीके से ऐसा करते आ रहे हैं. उनकी पहली पुस्तक का नाम 'एज ऑफ इंटेलिजेंट मशीन्स' यानी बुद्धिमान मशीनों का युग है, जिसे उन्होंने 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में लिखना आरंभ किया था. उसमें उन्होंने मूर के नियम की एक व्याख्या का सहारा लेते हुए यह भविष्यवाणी की थी कि वर्ष 1998 में एक कंप्यूटर शतरंज के विश्व चैंपियन को पराजित कर देगा. हुआ भी यही कि आइबीएम के 'डीप ब्लू' नामक कंप्यूटर ने वर्ष 1997 में गैरी कास्पारोव को हरा दिया. कुर्जवेल ने कहा कि वर्ष 2010 के पूर्व ही 'गूगल' जैसी कोई सेवा वाई-फाई नेटवर्क पर उपलब्ध हो जायेगी. विभिन्न किताबों में की गयी अपनी सभी भविष्यवाणियों को उन्होंने वर्ष 2010 में सूचीबद्ध किया, जिनमें केवल तीन ही पूरी तरह गलत निकल सकी हैं.
यही वजह है कि अब से अगले दस वर्षों के लिए की गयी उनकी भविष्यवाणियां किसी को भी दिलचस्प लग सकती हैं, क्योंकि उनके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए आसानी से यह कहा जा सकता है कि उनमें से लगभग सभी सच निकलेंगी. यहां यह ध्यातव्य है कि ये सभी भविष्यवाणियां विशुद्ध रूप से कंप्यूटिंग शक्ति पर आधारित हैं, क्योंकि वे कंप्यूटिंग प्रौद्योगिकी की प्रगति की माप करते हुए इसका आकलन किया करते हैं कि जब यह किसी खास स्तर पर पहुंच जाती है, तो उसके आधार पर आगे कब क्या हासिल किया जा सकता है. मसलन, आज से 30 वर्ष पूर्व यह अनुमान किया जा सकता था कि किसी चीज को लघु रूप देने (मिनिएचराइजेशन) तथा टचस्क्रीन प्रक्रिया में सफलता हासिल हो जाने के पश्चात स्मार्टफोन कम कीमत में ही उपलब्ध होने लगेंगे. पर प्रौद्योगिक दुनिया के बाहर कोई अन्य व्यक्ति तब इसकी कल्पना नहीं कर सका था. 'हमारा फोन एक तरह से हमारा ही विस्तार है और इसकी सहायता से हम किसी भी प्रश्न का उत्तर दे सकेंगे, इसकी स्थिति (लोकेशन) की मदद से हम विश्व में किसी भी स्थल की तलाश कर सकेंगे.' हममें से कितने ऐसे हैं, जो वर्ष 1990 के आस-पास ऐसी भविष्यवाणी कर सकते थे?कुर्जवेल कहते हैं कि अगले दशक में यदि सभी नहीं, तो अधिकतर रोगों का आसानी से उपचार हो सकेगा. उनका अनुमान है कि यह नैनो-बोट यानी अत्यंत सूक्ष्म रोबोट की वजह से संभव होगा, जिन्हें हमारे रक्त प्रवाह में प्रविष्ट कराया जा सकेगा. मानव जाति की औसत जीवन प्रत्याशा में तेजी से वृद्धि होती जा रही है और भारतीयों के लिए यह वर्ष 1960 के 40 साल से कुछ ही अधिक के स्तर से बढ़कर अब 70 साल से कुछ ही पीछे तक पहुंच चुकी है. रोगों से लड़ने की शक्ति में नाटकीय वृद्धि के बल पर इसमें और 30 साल की बढ़ोतरी संभव है.यह एक ऐसी उपलब्धि होगी, जो पहले विरले ही किसी के नसीब में हुआ करती थी. बाह्यकंकाल तथा कृत्रिम अंगों का समांतर विकास भविष्य में यह संभव कर देगा कि सौ वर्ष की उम्र वाले लोग भी पहले की तुलना में कहीं अधिक गतिशील तथा सक्रिय रहा करें. ऐसे में सेवानिवृत्ति की उम्र पर भी पुनर्विचार करना होगा. कुर्जवेल कहते हैं कि आज से पंद्रह वर्ष बाद आभासी वास्तविकता (वर्चुअल रियलिटी) को वास्तविकता से भिन्न नहीं किया जा सकेगा, जिसका अर्थ यह होगा कि लोग आभासी 3-डी दुनिया में प्रवेश कर भी उतने ही प्रामाणिक तौर पर देख, छू और सुन सकेंगे, जितना हम आज कर रहे हैं. बहुत-से लोग अपनी समस्त समस्याओं के साथ वास्तविक जगत की बजाय ऐसी ही एक कृत्रिम मगर लगभग पूर्ण दुनिया में रहना अधिक पसंद करेंगे. कुर्जवेल यह भी भविष्यवाणी करते हैं कि हमारी चेतना डिजिटल दुनिया से इतनी तद्रूप यानी मिलती-जुलती हो जायेगी कि हम स्वयं को नये शरीरों में अपलोड एवं डाउनलोड कर सकेंगे. प्रौद्योगिक दुनिया में रहनेवाले कुछ अन्य लोग यह मानते हैं कि जब हम ऐसी क्षमता से संपन्न हो जायेंगे, तो हमारा भविष्य और अधिक अंधकारमय हो उठेगा. पर वहीं कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें इस पर संदेह है कि यह सब अत्यंत निकट है और हमारे अनुमान से भी अधिक तेज गति से हमारी ओर बढ़ा आ रहा है. यदि हम इसके विषय में सोचने लगें, तो पायेंगे कि वर्तमान में हम साइबोर्ग, यानी अर्ध मानव तथा अर्ध रोबोट ही हैं.  हमारी वर्तमान समस्या डाटा दर में कमी की है, यानी हम डाटा के इनपुट में बहुत धीमे हैं, क्योंकि हम टाइप करने में केवल अपनी उंगलियों से काम ले रहे हैं. 'ध्वनि कमांड' के साथ ही यह कुछ और तीव्र हो सका है और 'विचार कमांड' के रूप में इसका अगला कदम भी दृष्टिगोचर हो चुका है.
फिर जैसे भारत जैसे गरीब मुल्क में भी आज स्मार्टफोन लगभग प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुलभ हो चुका है, उसी तरह भविष्य की यह प्रौद्योगिकी भी सर्वसुलभ ही होगी.वैसी स्थिति में एक अकेले मानव के रूप में हमारी क्षमताएं नाटकीय रूप से बढ़ जायेंगी. जो लगनशील या मेहनती होंगे, वे ऐसी चीजें उत्पादित कर सकेंगे, जिन्हें पहले सिर्फ बड़ी कंपनियां निर्मित किया करती थीं. पर जो उतने कर्मठ नहीं हैं, उनका जीवन भी काफी अधिक दिलचस्प तथा आज से अत्यंत अलग होगा.


बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

दहकती खबरें की देखिए स्पेशल रिपोर्ट चिनहट रोड पर बने साइकिल पथ का बुरा हाल अखिलेश सरकार में बने साइकिल पथ की योगी सरकार में स्थिति हुई खराब


गांधी के देश में गोडसे का महिमामण्डन

गांधी के देश में गोडसे का महिमामण्डन
तनवीर जाफरी 
कृतज्ञ राष्ट्र इस वर्ष राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है। इस अवसर पर गांधीवादी विचारधारा तथा गांधी दर्शन को लेकर पुनरू चर्चा छिड़ गई है। हिंसा, आक्रामकता, सांप्रदायिकता, गरीबी तथा जातिवाद के घोर विरोधी गांधी को देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में इसलिए भी अधिक शिद्दत से याद किया जाता रहा है क्योंकि विश्व के कई हिस्सों में इस समय हिंसा, आक्रामकता, सांप्रदायिकता, जातिवाद, वर्गवाद, पूंजीवाद तथा नफरत का बोलबाला हो रहा है। दुःख की बात तो यह है कि खुद गांधी का देश भारत भी इन्हीं हालात का शिकार है। मानवता को दरकिनार कर बहुसंख्यवाद की राजनीति पर जोर दिया जा रहा है। बहुरंगीय संस्कृति व भाषा के इस महान देश को एकरंगीय संस्कृति व भाषा का देश बनाने के प्रयास हो रहे हैं। जाहिर है गांधी दर्शन के विरुद्ध बनते इस वातावरण में उन्हीं शक्तियों तथा विचारधारा के लोगों की ही सक्रियता है जो गांधीजी के जीवनकाल से ही गांधी के सहनशीलता व श्सर्वधर्म समभावश् के विचारों से सहमत नहीं हैं। निश्चित रूप से यही वजह है कि आज देश में न केवल गांधी-विरोधी शक्तियां सक्रिय हो रही हैं बल्कि गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन भी मुखरित होकर किया जाने लगा है। उसकी मूर्तियां स्थापित करने के प्रयास किये जा रहे हैं। इतना ही नहीं जो लोग गोडसे का महिमामंडन करते हैं और उसे राष्ट्रभक्त बताते हैं वह लोग चुनाव जीत कर संसद में भी पहुंच चुके हैं। निश्चित रूप से गांधी-विरोध व गोडसे से हमदर्दी का मत रखने वालों का गांधीजी से मुख्यतः दो बातों को लेकर ही विरोध है। हिंदूवादी संगठनों का आरोप है कि वे मुसलमानों के हितों का अधिक ध्यान रखते थे तथा यह भी कि देश के बंटवारे में उनका रुख नर्म था। एक आरोप यह भी है कि विभाजन के पश्चात भारत पाक के मध्य हुए संसाधनों के बंटवारे के समय भी गांधीजी ने कथित रूप से पाकिस्तान के हित में कई फैसले लिए। इस तरह के आरोप ही अपने आप में यह साबित करते हैं कि गांधीजी कितने विशाल हृदय के स्वामी थे जबकि ऐसे इल्जाम लगाने वाले लोगों के विचार कितने संकीर्ण व स्वार्थ पर आधारित हैं। वैचारिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व इसके सहयोगी संगठनों को गांधी की विचारधारा का विरोधी ही माना जाता है। आज जो भी गोडसेवादी स्वर मुखरित होते सुनाई दे रहे हैं वे सभी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से ही जुड़े हुए हैं। परन्तु इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गांधीजी को विश्व के समक्ष भारत का अनमोल रत्न बताने की ही कोशिश करते हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी का एक लेख अमेरिका के प्रसिद्ध अखबार न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित हुआ। गांधीजी की 150 वीं जयंती के मौके पर प्रकाशित इस लेख का शीर्षक था श्भारत और दुनिया को गांधी की जरूरत क्यों है। अपने लेख की शुरुआत में मोदी ने अमरीकी नेता मार्टिन लूथर किंग के 1959 के दौरे को याद करते हुए उनके इस कथन का जिक्र किया है जिसमें लूथर किंग ने कहा था -दूसरे देशों में मैं एक पर्यटक के तौर पर जा सकता हूं परन्तु भारत आना किसी तीर्थयात्रा की तरह है। इस लेख में गरीबी कम करने, स्वच्छता अभियान चलाने व सौर ऊर्जा जैसी योजनाओं का भी जाक्र  है। निश्चित रूप से गांधी के दृष्टिकोण व उनके विचारों को किसी एक लेख या ग्रन्थ में समाहित नहीं किया जा सकता। गांधीजी ने हमेशा सह-अस्तित्व की बात की। उन्होंने गांधी हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात की। उनका कहना था कि हमको मानवता में विश्वास नहीं खोना चाहिए। गांधीजी का कहना था कि मानवता एक महासागर के समान है, यदि सागर की कुछ बूंदें गंदी हैं, तो पूरे महासागर को गंदा नहीं कहा जा सकता। परन्तु आज जानबूझ कर पूरी योजना बनाकर कुछ हिंसक लोगों की गतिविधियों को धर्मविशेष के साथ जोड़ने की जी-तोड़ कोशिश वैश्विक स्तर पर की जा रही है। वे कहते थे कि दुनिया के सभी धर्म, हर मामले में भिन्न हो सकते हैं, पर सभी एकजुट रूप से घोषणा करते हैं कि इस दुनिया में सत्य के अलावा कुछ भी नहीं रहता है। गांधीजी का विचार था कि अहिंसा की शक्ति से आप पूरी दुनिया को हिला सकते हैं। परन्तु आज जगह-जगह हिंसा से ही जीत हासिल करने की कोशिश की जा रही है। अहिंसा परमो धमर्रू की जगह गोया हिंसा परमो धर्मः ने ले ली है। गांधीजी की धर्म के विषय में भी जो शिक्षाएं थीं वे मानवतापूर्ण तथा पृथ्वी पर सदा के लिए अमर रहने वाली शिक्षाएं थीं।आप फरमाते थे कि - मैं धर्मों में नहीं बल्कि सभी महान धर्मों के मूल सत्य में विश्वास करता हूं। उनका कहना था कि सभी धर्म हमें एक ही शिक्षा देते हैं, केवल उनके दृष्टिकोण अलग-अलग हैं। इसी प्रकार गांधीजी का कथन था कि हिंदूधर्म सभी मानवजाति ही नहीं, बल्कि भाईचारे पर जार देता है। गांधीजी यह भी कहा करते थे कि -मैं खुद को हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, बौद्ध और कन्फ्यूशियस मानता हूं।  जाहिर है महात्मा गांधी के इन विचारों में न तो कहीं साम्प्रदायिकता की गुंजाइश है न जाति या वर्ण व्यवस्था की। न गरीबी पैमाना है न अमीरी। न हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना है न बहुसंख्यवाद की राजनीति करने की गुंजाइश। वे हमेशा केवल मानवता और वास्तविक धर्म की बातें करते दिखाई देते थे। तभी तो वे यह भी कहा करते थे कि निर्धन हो या अमीर, भगवान सभी के लिए है। वह हम में से हर एक के लिए होता है। गांधीजी के मुताबिक-सज्जनता, आत्म-बलिदान और उदारता किसी एक जाति या धर्म का अनन्य अधिकार नहीं है। वे हमेशा लोगों को विनम्र रहने की सीख भी देते थे और कहते थे कि विनम्रता के बिना सेवा, स्वार्थ और अहंकार है। वे गरीबी को हिंसा का सबसे बुरा रूप मानते थे। आज के सन्दर्भ में यदि हम कर्ज से तंग हुए किसानों की आत्महत्या को देखें, बेरोजगारी व असुरक्षा की वजह से बढ़ती खुदकशी की घटनाओं को देखें, आसाम में एनआरसी के चलते लोगों में छाया भय तथा धर्म के आधार पर लोगों में फैलाई जा रही दहशत पर नजर डालें या फिर कश्मीर में कश्मीरियों के साथ होने वाले जुल्म व अन्याय को देखें, जनता के संसाधनों पर सत्ताधीशों की ऐशपरस्ती देखें, महिलाओं के साथ दिनोंदिन बढ़ता जा रहा जुल्म व शोषण देखें तो हम आसानी से इस निष्कर्ष पर स्वयं पहुंच जाएंगे कि यह सब गांधी के देश में बढ़ते गोडसे के महिमामण्डन का ही परिणाम है। परन्तु इसके बावजूद सच्चाई तो यही है कि गोडसे व उसके साम्प्रदायिकता पूर्ण हिंदूवादी विचारों ने गांधी जी की हत्या कर उनको पूरी दुनिया के लिए इस कदर अमर कर दिया कि जो भी भारत की सत्ता पर बैठेगा उसके लिए दिखावे के लिए ही सही परन्तु महात्मा गांधी की सत्य व अहिंसा, मानवता व सर्वधर्म समभाव के सिद्धांतों की उपेक्षा व अवहेलना कर पाना कभी भी इतना आसान नहीं होगा।


विकास का ढांचा बदले तो कुछ बात बने

विकास का ढांचा बदले तो कुछ बात बने
शीतला सिंह 
केन्द्र सरकार छोटे उद्योगों के लिए एक नई योजना बना रही है ताकि उन्हें देश की जीडीपी बढ़ाने का अस्त्र बनाया जा सके। इस योजना के लिए, जो लगभग एक हजार करोड़ रुपये की होगी, आर्थिक और सामाजिक आंकड़े जुटाए जा रहे हैं।  इस क्रम में ड्रोनों से सम्बन्धित इलाके की मैपिंग तो की ही जायेगी, डिजिटल माध्यमों से भी सूचनाएं जुटाई जायेंगी। इतना ही नहीं, लघु व मध्यम उद्योगों की परिभाषा बदलकर छोटे उद्योगों को श्रेणियों में बांटा जायेगा, ताकि उनकी वास्तविक दिक्कतों को पहचानकर उन्हें तत्काल राहत मुहैया कराई जा सके। इनकी नई श्रेणियां भी बनाई जायेंगी, जिससे कारोबारियों को जीएसटी रिफण्ड के साथ दूसरी रियायतें मुहैया कराई सकें। आभूषण, टेक्सटाइल और आटो क्षेत्र की अलग परिभाषा तय की जायेगी और विनिर्माण व सेवा क्षेत्र की श्वास्तविक पहचानश् सुनिश्चित की जायेगी। यह पहला अवसर नहीं है, जब लघु और मध्यम उद्योगों को प्रोत्साहित करने व सुविधाएं देने की घोषणा की गई अथवा योजना बनाई गई हो। आजादी के बाद लघु, गृह और कुटीर उद्योगों की परिकल्पना की गई, तब भी उनके उत्पादों की बिक्री की सुविधाओं और समय से वित्तीय सहायता आदि की घोषणाएं की गई थीं। गांधी युग की तो परिकल्पना ही थी कि गृह व कुटीर उद्योगों को बचाए बिना देश का वास्तविक विकास सम्भव नहीं है। गांधी बड़े उद्योगों को देश के विकास का विलोम मानते थे, लेकिन तब जो खादी व ग्रामोद्योग संस्थान स्वयं उन्हीं की परिकल्पना के अनुसार शुरू किये गये, आज उनकी हालत बिगड़ती जा रही है। गांधी के निकट चरखा स्वतंत्रता आन्दोलन का अस्त्र था, जिससे वे ब्रिटेन के लंकाशायर को चुनौती दे रहे थे। उनकी मान्यता थी कि उसके रास्ते आत्मनिर्भरता तो आयेगी ही, लोगों को काम मिलेगा और हमारे स्वाभिमान की रक्षा भी होगी। लेकिन आजादी के बाद उनके अनुयायियों की सत्ता आई तो सोवियत संघ से प्रभावित होकर बनाई गई प्रथम पंचवर्षीय योजना के वक्त से ही बड़े उद्योगों के महत्व को स्वीकार और स्थापित करने का सिलसिला शुरू हो गया। अलबत्ता, स्वदेशी पर जोर और विदेशी से दूरी का सिद्धान्त तय हुआ और हाथ की बुनी खादी के कपड़े पहनने को कांग्रेस की सदस्यता की पात्रताओं में शामिल किया गया, लेकिन पंचवर्षीय योजनाएं अंततः समग्र विकास के वास्तविक लक्ष्य पाने के बजाय बड़े उद्योगों की ही सहायक बन गईं। उनके फलस्वरूप गरीब और गरीब जबकि अमीर और अमीर होते गये। उस वक्त देश की सर्वाधिक निर्भरता कृषि पर थी। आज भी है, लेकिन किसान जोतों के लिहाज से आज तक छोटे, बड़े, मध्यम, नाममात्रिक और अलाभकारी श्रेणियों में बंटे हैं। तब पंाच फीसदी बड़े किसानों के पास ही सबसे अधिक भूमि थी। इस स्थिति को बदलने के लिए जमींदारी खत्म की गई और बड़ी जोतों का अधिग्रहण करके भूमिहीनों व गरीबों को भूमि देने की घोषणा की गई, लेकिन यह घोषणा कागजों तक ही सीमित रह गई क्योंकि जिनके पास जमीन थी, वे भविष्य की व्यवस्था पर भी पैनी नजर बनाए हुए थे। उन्होंने सत्ता और कानून को ठेंगा कदखाकर अपनी भूमियों का बड़े पैमाने पर बेनामी हस्तान्तरण और बंटवारा कर डाला। इस दौरान बहुचर्चित रही खादी का सबसे बड़ा दर्द यह है कि गरीबों की मेहनत के भरपूर उपयोग सेे भी वह उनकी हालत में सुधार नहीं कर पाई। उन दिनों मिलों में बड़ी मशीनों द्वारा जो सूत व कपड़ा उत्पादित हो रहा था, वह सस्ता था और उसके मुकाबले महंगी पड़ने के कारण खादी उपभोक्ताओं की पसन्द नहीं बन पा रही थी। मिलों के कपड़ों में वैविध्य भी था। वे मारकीन से लेकर चादरें तक बहुत कुछ बनाती थीं। यहां तक कि वह गाढ़ा भी, जो खादी से निर्मित होता था। इसके चलते खादी के उत्पाद न मूल्य में उनका मुकाबला कर पाते थे, न लागत में। परिणाम यह हुआ कि खादी से जुड़े ग्रामोद्योग बन्द होते और सिमटते गये। सरकारी सहायता के बल पर उन्हें चालू रखने के प्रयत्न भी कारगर नहीं सिद्ध हुए, क्योंकि उनके बंद होने की गति व अनुपात दोनों कहीं ज्यादा थे। दूसरे पहलू पर जाएं तो देश के पिछड़े क्षेत्रों में सरकारी सहायता देकर नये उद्यम लगवाने के जो प्रयास हुए, वे भी बदनीयतीपूर्वक सरकारी सहायता हड़पने तक सीमित हो गये। इन नतीजों के आलोक में आगे चलकर देश के कर्णधारों की दृष्टि भी बदल गई। 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी के बैनर पर बनी पहली गैरकांग्रेसी सरकार ने जहां कोकाकोला जैसी विदेशी कम्पनियों को अवांछनीय मानकर बाहर का रास्ता दिखा दिया था, पीवी नरसिंहराव के दौर में उदारीकरण के नाम पर विदेशी कम्पनियों को मनाकर वापस लाया गया। उनके लिए नई सुख-सुविधाओं, यहां तक कि श्रम कानूनों से बचत करने के प्रावधान भी किये गये। फिर तो यह निष्कर्ष भी निकाला जाने लगा कि बिना विदेशी पूंजी और सहायता के देश का विकास सम्भव ही नहीं। उद्योगों में बड़ी विदेशी पूंजी आई तो उसने उनमें मशीनीकरण और अभिनवीकरण की प्रक्रिया आरम्भ की।  इससे स्वाभाविक ही कल कारखानों में मजदूरों की संख्या घटी, जिनकी बेरोजगारी नई समस्या के तौर पर सामने आई और अभी भी विकराल बनी हुई है। लेकिन विदेशी पूंजी वाली कम्पनियों को इससे कोई मतलब नहीं है। वे नई स्थितियों में अपने लिए घोषित सुविधाओं का भरपूर लाभ उठाने में ही मगन हैं और उनकी दृष्टि यह है कि भारत जैसा बड़ी जनसंख्या वाला विकासशील देश बाजार की दृष्टि से उनका बड़ा सहायक हो सकता है। सस्ती जमीन और सस्ते श्रम की उपलब्धता से यहां वे अपना मुनाफा भी बढ़ा सकती हैं। अब नये नियमों के तहत उन कम्पनियों को भारत में कमाये मुनाफे का भारत में ही उपयोग करने की कोई बाध्यता भी नहीं है। इसका परिणाम यह हुआ है कि बड़ी विदेशी पूंजी भी गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाली देश की लगभग आधी जनसंख्या को कोई लाभ पहुंचाने या उसके जीवनस्तर के उन्नयन में सहायक नहीं हो पाई है। ऐसे में सवाल है कि अब जिस नई योजना की घोषणा की जा रही है, वह वर्तमान बने-बनाए विकास के ढांचे को कितना बदल सकेगी? खेती-किसानी में मशीनों के इस्तेमाल को लेकर महात्मा गांधी ने कभी एक विदेशी संवाददाता के सवाल का जवाब देते हुए उससे पूछा था कि क्या टै्रक्टर में ऐसा गुण भी है कि वह हमारे पशुओं जैसी गोबर की खाद प्रदान कर सके? लेकिन आज खेतों की जुताई से लेकर फसलों को सींचने और उनकी कटाई-मड़ाई तक में मशीनों का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है। यह छोटे या भूमिहीन और अलाभकारी जोतों वाले किसानों के लिए नुकसानदेह सिद्ध हो रहा है तो उन्हें लेकर यह नई योजना प्रस्तावित की जा रही है कि छोटी व अलाभकर जोतों को कारपोरेट खेती के लिए बड़ी कम्पनियों को दे दिया जाना चाहिए, ताकि वे उस पर आधुनिक ढंग से कृषि उत्पादन का कार्य कर और बेदखल किसानों को लाभ के हिस्से के तौर पर उससे ज्यादा उसे प्रदान कर सकें, जितनी उन्हें पहले उनकी भूमि से आय हुआ करती थी। इसका कुफल यह है कि किसान खुद को जिस भूमि का स्वामी मानते थे, वह भी उनके हाथ से निकलती जा रही है।  साफ है कि जब तक समग्र जनसंख्या को ध्यान में रखकर विकास के ढांचे को नई शक्ल नहीं दी जाती और उसमें समाज के कमजोर वर्गों का लाभ सुनिश्चित नहीं किया जाता, पहले की ही भांति इस नई योजना से भी कोई लाभ नहीं होने वाला।


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