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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

 अब बेहतर हो रही हैं सार्वजनिक सेवाएं 

 अब बेहतर हो रही हैं सार्वजनिक सेवाएं 
नरेंद्र सिंह तोमर
सार्वजनिक सेवाओं की सुविधाजनक, आसान व विश्वसनीय प्रणाली तैयार करने का कार्य अक्सर इस आधार पर छोड़ दिया जाता है कि यह सब निजी क्षेत्र कर लेगा, क्योंकि सार्वजनिक व्यवस्थाओं से गुणवत्तापूर्ण सेवाओं की प्रदायगी कराना बेहद कठिन मान लिया गया है। भारत जैसे विशाल देश में वंचित परिवारों तक जरूरी सेवाओं की समता व न्यायपूर्ण प्रदायगी लाभार्थियों के साक्ष्य-आधारित चयन, भलीभांति किए गए अनुसंधान के आधार पर नीतिगत उपायों, सूचना प्रौद्योगिकी से जुडे संसाधनों की उपलब्धता और उनके पूर्ण उपयोग के जरिए मानवीय हस्तक्षेप को कम से कम करते हुए संघीय संरचना में काम करने वाली विभिन्न् एजेंसियों के साथ ठोस तालमेल पर निर्भर करती है। बुनियादी ढांचागत कमियों, विस्तृत भौगोलिक क्षेत्रों और देश के दुर्गम भूभागों में दूर-दूर बसी विरल आबादी को ध्यान में रखते हुए यह कार्य और भी जरूरी हो जाता है। वास्तव में इतने बड़े पैमाने पर अपेक्षित सेवाओं की संकल्पना, योजना तैयार करना और सेवाएं प्रदान करना गैर-सरकारी एजेंसियों के लिए असंभव है। सच तो यह है कि श्सबका साथ, सबका विकास के व्यापक फ्रेमवर्क में सबको आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसे महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय लक्ष्यों की पूर्ति और नए भारत का स्वप्न साकार करने के लिए सार्वजनिक सेवाओं की पर्याप्त व्यवस्था बहुत जरूरी है, ताकि अखिल भारतीय आधार पर कार्यक्रमों के आयोजन, वित्त-पोषण, क्रियान्वयन और निगरानी के साथ उनमें समय-समय पर अपेक्षित बदलाव किए जा सकें। पिछले कुछ वर्षों के दौरान ग्रामीण विकास हेतु चलाए गए ग्राम स्वराज अभियान जैसे कार्यक्रम पूरी तरह पारदर्शी रहे हैं। वास्तव में ये कार्यक्रम समुदाय के प्रति पूरी जवाबदेही के साथ अपेक्षित परिणाम हासिल करने के लिए भरोसेमंद सार्वजनिक सेवा प्रणाली तैयार करने के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। गौरतलब है कि हमारी यह यात्रा जुलाई, 2015 में सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना (एसईसीसी) 2011 के आंकड़ों को अंतिम रूप देने के साथ शुरू हुई। एलपीजी कनेक्शन के लिए उज्ज्वला, मुफ्त बिजली कनेक्शन के लिए सौभाग्य, मकान हेतु प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण, चिकित्सीय सहायता के लिए आयुष्मान भारत जैसे कार्यक्रमों के अंतर्गत लाभार्थियों का चयन एसईसीसी के अभाव संबंधी मानदंडों के आधार पर किया गया। मनरेगा के तहत राज्यों के श्रम बजटों के निर्धारण तथा दीनदयाल अंत्योदय योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत महिला स्वसहायता समूहों के गठन में सभी अभावग्रस्त परिवारों के समावेशन हेतु एसईसीसी के आंकड़ों का उपयोग किया गया। गरीबी के सटीक निर्धारण, आंकड़ों में सुधार और उन्हें अद्यतन बनाने में ग्राम सभाओं की भागीदारी से आधार, आईटी,डीबीटी, परिसंपत्तियों की जियो-टैगिंग, कार्यक्रमों के लिए राज्यों में एक नोडल खाते, पंचायतों को धनराशि खर्च करने का अधिकार दिए जाने किंतु नकद राशि न देने, सार्वजनिक वित्त प्रबंधन प्रणाली (पीएफएमएस) जैसे प्रशासनिक और वित्तीय प्रबंधन सुधारों को अपनाया जा सका। इसके नतीजतन, लीकेज की स्थिति में बड़ा बदलाव आया। गरीबों के जन-धन खाते व अन्य खाते भी बिना बिचैलियों के प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) के माध्यम बन गए। इससे व्यवस्था काफी सुधरी। मनरेगा जैसे कार्यक्रमों से गरीबों के खातों में धनराशि के अंतरण, टिकाऊ परिसंपत्तियों के सृजन और आजीविका सुरक्षा सहित प्रमुख सुधारों को बढ़ावा मिला। मांग के अनुसार दिहाड़ी मजदूरी के लिए रोजगार मुहैया कराना जरूरी है, साथ ही यह भी जरूरी है कि मजदूरी आधारित इस रोजगार के नतीजतन गरीबों की आय व दशा में सुधार लाने वाली टिकाऊ परिसंपत्तियों का सृजन भी हो। ग्राम पंचायत स्तर पर मजदूरी और सामग्री के 60रू40 के अनुपात जैसे नियमों में बदलाव कर इसे जिला स्तर पर भी लागू किया गया। गरीबों के लिए स्वयं अपने मकान के निर्माण कार्य में 90ध्95 दिन के कार्य के लिए सहायता के रूप में व्यक्तिगत लाभार्थी योजनाएं शुरू की गईं। मनरेगा और इसके सुचारू क्रियान्वयन के लिए विश्वसनीय सार्वजनिक व्यवस्था तैयार करना एक महत्वपूर्ण कदम है। हमने प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए एक तकनीकी दल गठित कर साक्ष्य आधारित कार्यक्रम लागू करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग किया। अब इसके परिणाम दिख रहे हैं। 15 दिनों के भीतर ही भुगतान आदेशों की संख्या 2013-14 के मात्र 26 प्रतिशत से बढ़कर 2018-19 में 90 प्रतिशत से अधिक हो गई। ग्रामीण आवास कार्यक्रम में पिछले 5 वर्षों के दौरान डेढ़ करोड़ से अधिक मकान बनाए गए हैं। सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञों ने देश भर में विविधता को बढ़ावा देने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में पारंपरिक मकान के डिजाइनों का अध्ययन किया। मौजूदा समय में सभी प्रकार की राशि इलेक्ट्रॉनिक तरीके से सत्यापित बैंक खातों में अंतरित की जाती है। संपूर्ण प्रक्रिया की निगरानी उचित समय पर वेबसाइट पर उपलब्ध डैशबोर्ड के जरिए की जाती है। प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग से मकानों का निर्माण कार्य पूरा होने की वार्षिक दर में 5 गुना वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के अंतर्गत एसएचजी के माध्यम से महिलाओं की सामुदायिक एकजुटता उल्लेखनीय रहने के बावजूद आजीविका में विविधता लाने और बैंक लिंकेज प्रदान करने के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। बैंक लिंकेज पर जोर देने से पिछले 5 वर्षों में एनआरएलएम के तहत लगभग तीन करोड़ महिलाओं के लिए दो लाख करोड़ रुपए से अधिक के ऋण की मंजूरी मिल चुकी है। आजीविका मिशन से जुड़ी 6 करोड़ से अधिक महिलाएं बगैर किसी पूंजीगत सबसिडी के गरीबों का भाग्य बदल रही हैं।ग्रामीण क्षेत्रों में रचनात्मक बदलाव के लिए जरूरी है कि उनके नैनो उद्यमों को मदद दी जाए, ताकि वे आने वाले वर्षों में सूक्ष्म व लघु उद्यम का रूप ले सकें। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने उद्यमों के विकास हेतु डीडीयू-जीकेवाई के तहत 67 फीसदी से अधिक रोजगार व आरएसईटीआई कार्यक्रम के तहत दो तिहाई से अधिक नियोजन सुनिश्चित किया है। बेशक निजी क्षेत्र ने कई शानदार उपलब्धियां हासिल की हैं, लेकिन इसके साथ-साथ यह भी समझें कि सामाजिक क्षेत्र में गरीबों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रम आदि के लिए अब भीसमुदाय के नेतृत्व और स्वामित्व वाली एक ऐसी सार्वजनिक सेवा प्रदायगी व्यवस्था की जरूरत है, जो परिणामों पर केंद्रित हो और गरीबों के जीवन-स्तर में सुधार व कल्याण ही उसका अंतिम लक्ष्य हो। विश्वसनीय सार्वजनिक सेवा प्रणाली तैयार करने से अब पीछे नहीं हटा जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में वर्तमान राजग सरकार शुरू से ही इसके लिए प्रयत्नशील रही है। इसके अनेक सुखद परिणाम सामने आए हैं और यह सिलसिला रुकने वाला नहीं।
(लेखक केंद्रीय कृषि व किसान कल्याण, ग्रामीण विकास व पंचायती राज मंत्री हैं)


रोजगारपरक उद्योगों को मिले बढ़ावा 

रोजगारपरक उद्योगों को मिले बढ़ावा 
जीएन वाजपेयी
भारत ने 1947 में आजादी हासिल की। इसके बावजूद करोड़ों भारतीय अभी भी आर्थिक उत्थान की बाट जोह रहे हैं। ऐसे में सबका साथ, सबका विकास जैसा नारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है। उनके सभी कार्यक्रम मसलन जनधन, आधार, शौचालय, मुफ्त रसोई गैस और बिजली कनेक्शन, सबके लिए आवास, किसान सम्मान, मुद्रा, आयुष्मान भारत, सामाजिक सुरक्षा आवरण और पेंशन इत्यादि का लक्ष्य लोगों को गरीबी की जद से बाहर निकालना है। मुझे इन योजनाओं से जुड़ी कुछ बैठकों में भाग लेने का अवसर मिला है। एक बार साउथ ब्लॉक के गलियारों में प्रधानमंत्री से बातचीत का अवसर भी मिला। वह गरीबी को खत्म करने के बारे में सोचते रहते हैं। देश में दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। राजनीतिक इच्छाशक्ति का संबंध सत्तारूढ़ दल और उसके नेता की ताकत और प्रतिबद्धता से होता है। भारत का आर्थिक उत्थान 2014 और 2019 में मोदी के चुनाव प्रचार अभियान के केंद्र में था। मतदाताओं ने भी पूर्ण बहुमत और मजबूत नेता के पक्ष में मतदान किया। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले पांच वर्षों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा है। अनेक अर्थशास्त्री, टिप्पणीकार और विपक्षी नेता इस लक्ष्य का उपहास उड़ा रहे हैं। उन्होंने 2014 में 272 सीटों और 2019 में 300 सीटों का लक्ष्य रखा और उससे अधिक की प्राप्ति यही दर्शाती है कि वर्ष 2024 तक उनका यह संकल्प भी पूरा हो सकता है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि विविध पहलुओं पर निर्भर करती है। इनमें घरेलू और विदेशी, दोनों कारक भूमिका निभाते हैं।
राजनीतिक सफलता दिलाने वाले कारकों से इनकी भूमिका एकदम अलग होती है। प्रबंधन का पहला सिद्धांत होता है कि कोई लक्ष्य तय किया जाए। इस लिहाज से उन्होंने यह कर लिया है। फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था कुछ चुनौतियों से जूझ रही है। कुछ ढांचागत एवं चक्रीय पहलू भी उसकी राह में परेशानी खड़ी कर रहे हैं। ऐसे माहौल में अर्थव्यवस्था को ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल करना खासा जटिल काम है। इस मामले में सरकार को वैसा ही दृढ़ संकल्प दर्शाना होगा, जैसा उसने तीन तलाक को समाप्त करने और अनुच्छेद 370 एवं 35ए को हटाने में दिखाया।
मांग में सुस्ती और निवेश में ठहराव को दूर करने के लिए सरकार को कुछ साहसिक फैसले करने होंगे। इसके लिए ढांचागत सुधारों के साथ ही कुछ तात्कालिक कदम उठाने होंगे। ढांचागत सुधारों में भूमि एवं श्रम सुधारों के साथ ही सरकारी बैंकों के विनिवेश जैसे कुछ अनछुए पहलुओं पर काम करने की दरकार होगी ताकि निवेश के गुणात्मक प्रभाव को बढ़ाया जा सके। उत्पादकता को बढ़ाना ही सभी ढांचागत सुधारों के मूल में होना चाहिए। उत्पादकता ही ऊंची जीडीपी वृद्धि को दिशा देती है और यहां तक कि अपेक्षाकृत कमजोर निवेश के बावजूद यह तरीका कारगर होता है। कराधान सहित प्रत्येक नीतिगत मोर्चे पर स्पष्टता एवं निरंतरता भी सुनिश्चित करनी होगा। इस कड़ी को मजबूत करने से संस्थागत एवं विदेशी निवेशकों का भरोसा हासिल किया जा सकता है।
मौजूदा आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए सरकार का खास ध्यान उन उद्योगों को उबारने के इर्द-गिर्द केंद्रित होना चाहिए जो बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन करते हैं या अन्य उद्योगों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इनमें कृषि, भवन निर्माण, बुनियादी ढांचा, खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यटन, रत्न एवं आभूषण और वाहन जैसे तमाम अन्य क्षेत्र शामिल हैं। फिलहाल ये सभी क्षेत्र मंदी की जकड़ में हैं। इन सभी के मर्ज के लिए इलाज की कोई एक ही पुड़िया नहीं है। मंदी के शिकंजे से बाहर निकालने के लिए प्रत्येक क्षेत्र की मदद के लिए प्रभावी उपाय करने होंगे। इन क्षेत्रों की वृद्धि से रोजगार के लाखों-लाख अवसर सृजित होंगे। इससे समग्र्र मांग में व्यापक रूप से इजाफा होगा। यह सीमेंट, इस्पात और अन्य सामग्र्री से संबंधित क्षेत्रों को भी फायदा पहुंचाएगा। इस कवायद में जहां वित्त मंत्रालय समन्वयक की भूमिका निभा सकता है, वहीं क्षेत्र विशेष से जुड़े मंत्रालय को ही कायाकल्प का पूरा जिम्मा संभालना होगा। नौकरशाही और न्यायिक प्रक्रियाओं ने उत्पादकता की राह में गंभीर अवरोध पैदा किए हैं। 1990 के दशक में हुए आर्थिक सुधारों के चलते उदारीकरण और निजीकरण की बयार ने हालात बदलने का काम किया। इससे पूंजी और निवेश का एक अहम सिलसिला कायम हुआ। पूंजी और निवेश जैसे दो अहम स्तंभों का आधार फैसलों को सक्षम रूप से लागू करने पर टिका है। निवेश करते समय निवेशक जिन जोखिमों का आकलन करते हैं, उन्हें लेकर वे समायोजन जरूर कर सकते हैं, लेकिन करार को मूर्त रूप देने और परियोजनाओं में अनिश्चितता गवारा नहीं कर सकते। किसी भी नीति को जमीन पर साकार होने में कुछ वर्ष, यहां तक कि अक्सर दशक भी लग जाते हैं। भारत में तो यह चुनौती और बड़ी हो जाती है। इससे लागत बढ़ती जाती है, फायदा घटता जाता है और आर्थिक बोझ बढ़ जाता है। अगर सांकेतिक जीडीपी वृद्धि आठ प्रतिशत हो तो 15 प्रतिशत की सांकेतिक वृद्धि के आधार पर अनुमानित राजस्व प्राप्तियों की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में परिसंपत्तियों को भुनाने की तत्काल जरूरत महसूस होती है। टुकड़ों में बिक्री या स्वामित्व के मोर्चे पर बाजीगरी से काम नहीं चलने वाला। इसके बजाय रणनीतिक विनिवेश की राह अपनानी होगी। सरकार को बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए खजाने का मुंह खोलना होगा। यह इसलिए जरूरी है ताकि इस निवेश का असर चालू वित्त वर्ष में ही महसूस हो और मंदी पर काबू पाया जा सके। यदि लगे तो राजकोषीय अनुशासन के मामले में कुछ छूट ली जा सकती है, लेकिन यह केवल बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश की शर्त पर ही हो। वैसे भी यह क्षेत्र शिद्दत से सुधार का इंतजार कर रहा है और इसमें अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से फायदा पहुंचाने की विपुल संभावनाएं हैं। कारों की खरीद को प्रोत्साहन देने से पहले सरकार को सड़कें बनाने में निवेश करना चाहिए। प्रधानमंत्री को संवाद स्थापित करने की कला में महारत हासिल है। अपने इस कौशल का उपयोग उन्हें सभी क्षेत्रों के उद्यमियों और निवेशकों का प्रत्येक मोर्चे पर हौसला बढ़ाने में करना होगा। उन्हें आधुनिक भारत का सपना इस तबके के बीच लोकप्रिय बनाना होगा। इस साल 15 अगस्त को पीएम मोदी ने लाल किले की प्राचीर से कहा था कि संपत्ति सृजित करने वालों का सम्मान करना होगा। प्रधानमंत्री को यह आश्वस्त करना होगा कि वास्तविक गलतियां और नुकसान स्वीकार्य होंगे तथा कानूनी ढंग से कमाई स्वागतयोग्य है। देश मोदी पर भरोसा करता है। निश्चित रूप से वह इन उम्मीदों पर खरे भी उतरेंगे।
(लेखक सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)


इस इकानॉमी के 5 ट्रिलियन्स में कई शून्य हैं

इस इकानॉमी के 5 ट्रिलियन्स में कई शून्य हैं
डॉ. दीपक पाचपोर
भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक वाचाल प्रवक्ता और नरेंद्र मोदी सरकार के सबसे बड़े जानकार संबित पात्रा को नहीं मालूम कि जिस 5 ट्रिलियन का चारों ओर शोर है उस ट्रिलियन में आखिर कितने शून्य लगते हैं। शायद यह किसी को नहीं मालूम। वैसे तो गणितशास्त्र की नजर से इसे जान लेना कोई बड़ी बात नहीं, न ही किसी सामान्य व्यक्ति के लिए वह बहुत जरूरी है।  ज्यादा जरूरी बिलियन-ट्रिलियन की भाषावली में बनती मनोरम आर्थिक झांकी और उसके सहारे हमारे सत्ताधीशों की छवि गढ़ने वाली इकानॉमी की शून्यता में आम आदमी की भूमिका, योगदान, अधिकार और हिस्सेदारी को जानना है। दिलचस्प बात यह है कि अर्थव्यवस्था को विशालता के दृष्टिकोण से उस समय में बनाया जा रहा है जब हम महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। वे गांधी जो ऐसा विकेंद्रित अर्थतंत्र विकसित करना चाहते थे जो लोगों को और गांवों को स्वावलंबी व सशक्त बनाए। परिकल्पित 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था पूरे देश को ही कुछ लोगों की मुऋी में कैद करने की योजना पर खड़ी है। गांव तो हमारे इस बिंदु तक पहुंचने के पहले ही तबाह हो चुके हैं, लोगों की पूरी तबाही का इंतजार है।यह कोई निर्मूल आशंका नहीं बल्कि ऐसा सोचने के पर्याप्त कारण हैं। पिछले कुछ वर्षों से जारी गलत आर्थिक नीतियों के कारण और अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण मंदी का साया गहरा रहा है जो सरकार के लाख इंकार के बावजूद नंगी आंखों से दीख रहा है। उत्पादक व लाभकारी उपक्रम बंद हो रहे हैं या घाटे में जा रहे हैं, बेरोजगारी बढ़ रही है, उत्पादन कम हो रहा है, महंगाई बढ़ रही है और लोगों की खरीद क्षमता घट रही है। आटोमोबाईल, टेक्सटाईल, रीयल एस्टेट, अधोसंरचना जैसे सेक्टरों में बड़ी मंदी आ चुकी है और लोग निकाले जा चुके हैं। नोटबंदी और जीएसटी जैसे अदूरदर्शितापूर्ण निर्णयों से हमारे मध्यम व छोटे उद्योग तबाह हो चुके हैं। ग्रामोद्योग व कुटीर उद्योगों को कभी का हमारी वरीयता सूची से बाहर कर दिया गया है। विदेशी पूंजी निवेश और प्रशासकीय खर्च लगातार बढ़ रहा है। इच्छा मात्र करने से या कह देने से ही अगर सब कुछ हो जाता तो आप 5 ट्रिलियन तक ही क्यों रुक गये, 50 ट्रिलियन का ऐलान कर देते। कम से कम जनता की खुशी कई गुना बढ़ जाती। इस भारी-भरकम महत्वाकांक्षा का ब्लू प्रिंट या रोड मैप क्या है, कोई नहीं जानता। उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बंद होती औद्योगिक इकाइयों को लाभ में लाने के लिए आपके पास क्या योजना है, यह भी कभी स्पष्ट नहीं किया गया। अपने कामकाज व योजनाओं पर चुप्पी रखने में किसी कम्युनिस्ट शासन प्रणाली को भी मात करने वाली हमारी सरकार न तो स्पष्टीकरण देने में भरोसा करती है न ही उसे लोगों के प्रति जवाबदेही का एहसास है।यह पिछले कार्यकाल में तो साफ हो ही गया था, नए कार्यकाल में उसमें बहुमत का दंभ भी शामिल हो चुका है। फिर भी लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकार बताए कि उसकी योजनाओं में जनता की क्या भूमिका होगी, उसका योगदान कैसे मिलेगा, उनमें उनकी लाभ की हिस्सेदारी क्या होगी? ये सारे सवाल अनुत्तरित है। यह तो साफ दिख रहा है कि पिछले कुछ समय से उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हो रही जिसके कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ने से लोगों की उत्पादन में सहभागिता घट रही है और उनकी खरीद क्षमता काफी घटी है। यह इसी से पता चल रहा है कि बैंक से लोग कर्ज लेना तो दूर अपने खर्चों में कटौती कर रहे हैं। कालाधन बढ़ रहा है जो बताता है कि धन आम लोगों तक नहीं पहुंच रहा। अमेरिका व चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध की आंच भारत में महसूस की जाने लगी है। पेट्रोल-डीजल व रुपये की कीमतें आसमान छू रही हैं। सरकार को रिजर्व बैंक के पैसे निकालने की जरूरत तक आन पड़ी है। आंकड़ों की मनचाही प्रस्तुतियों से सरकार चाहे जो निष्कर्ष निकालकर जनता के समक्ष पेश कर दे पर घटते हुए रोजगार, गिरते उत्पादन और कम होती खपत किसी भी ऊर्ध्वमुखी इकानॉमी की पहचान नहीं होती। विदेशी पूंजी स्वचालित टेक्नालॉजी लाएगी जिससे रोजगार घटेंगे। सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं कि मोदी व उनकी वित्तमंत्री के पास ज्ञान नहीं। उन्हें आप न्यूसेंस वेल्यू या महत्वाकांक्षी बताकर खारिज तो कर सकते हैं पर उन्हें इनसे (पीएम-एफएम) अधिक ज्ञान है, यह तो मानना होगा। जब सत्ताधारी पार्टी के भीतर के सबसे बड़े अर्थशास्त्री को ही नेतृत्व की इस मामले में कुशलता व सामर्थ्य पर संदेह हो, तो सरकार किसके बूते हमारी अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन का आकार दे पाएगी? अगर हम वाकई इस दिशा में तरक्की कर रहे हैं तो सरकार वास्तविक आंकड़े पेश करे। फिलहाल तो सत्ताधारी लोग आंकड़ों को छिपाने या उनमें फेरफार करने में लिप्त पाए जा रहे हैं। लोकतंत्र में कहना पर्याप्त नहीं होता, आप कैसे करेंगे यह बताना भी जरूरी होता है। इन हालातों में आपकी 5 ट्रिलियन इकानॉमी की राह कैसे निकलेगी, यह बताना होगा। राष्ट्रवाद के नाम पर आप लोगों से आर्थिक नारे तो लगवा सकते हैं, जुलूस निकाल सकते हैं, विरोधियों को चुप करा सकते हैं पर लंबे समय तक लोगों को अंधेरे में नहीं रखा जा सकता क्योंकि सरकारी दफ्तर तो आंकड़ों को छिपा रहे थे पर विषम परिस्थितियां जो वास्तविक रूप में सामने आ रही हैं, उनसे यह तो साफ है कि यह योजना सरकार के अन्य जुमलों की तरह दम तोड़ देगी और अगर सरकार इस आंकड़े को हासिल कर भी लेती है तो यह सवाल वहीं का वहीं खड़ा मिलता है कि उस अर्थव्यवस्था में आम नागरिक का स्टेक क्या है। सूचनाओं पर रोक ने लोगों को अंधेरे में रखा है। लोगों को लंबे समय तक सत्य के उजाले से वंचित नहीं रखा जा सकता। वैसे जब तक लोगों की आंखें खुलेंगी, अंधेरा गहन ही नहीं स्थायी हो चुका रहेगा। गिने-चुने दो-चार के हाथों में पूरी आर्थिक व्यवस्था सिमटकर कैद हो जाती है, तो इस बहुप्रचारित व बहुप्रतीक्षित इकानॉमी का लाभ आम आदमी तक कैसे पहुंच पाएगा? क्या 125 करोड़ नागरिक गिनती के 25-50 बड़े उद्योगपतियों व व्यवसायियों की छोड़ी जूठन से पेट भरेंगे तथा इस विशाल इकानॉमी रूपी जलाशय के रिसाव से अपनी प्यास बुझाएंगे? उनमें पूंजी का वितरण कैसे होगा। गिने-चुने लोगों के पास एकत्र हो रहा पैसा लोगों तक कैसे पहुंचेगा? आकार महत्वपूर्ण नहीं है, देखना यह होगा कि क्या इस इकानॉमी में सबकी जरूरतों का पर्याप्त सामान है या नहीं? चाहे कम हो पर सबके लिए पर्याप्त हो।अगर ऐसा नहीं है तो यह महत्वाकांक्षा किसी व्यक्ति या दल की राजनैतिक कामना को तो पूरा कर सकेगी, सेठों की तिजोरियों को भी भर सकेगी, लोगों को झूठे गौरव से भी परिपूर्ण कर देगी लेकिन यह लोगों के लिए कोई स्थायी समाधान नहीं दे सकेगी और न ही टिकाऊ अर्थप्रणाली, जिसके आधार पर यह देश अपने नागरिकों को प्रगति के उपयुक्त अवसर प्रदान कर सके। सच तो यह है कि इस परिकल्पित इकानॉमी के 5 ट्रिलियन्स में आम आदमी के लिए अनगिनत शून्य हैं। कोई नहीं जानता कि 5 ट्रिलियन में कितने शून्य होते हैं और अगर इस अर्थव्यवस्था की विशालता का आशा स्थान कुछ चुनिंदा उद्योगपति, विदेशी पूंजी व विदेशी व्यवसायी ही हैं तो वह आपको एक शक्तिशाली बनने का ढोंग करने वाला राष्ट्र तो बना सकता है लेकिन वह खोखला व कमजोर देश होगा जहां बहुसंख्य भारतीय आर्थिक रूप से कुछ धन्ना सेठों व विदेशी लोगों पर निर्भर होंगे। यह एक स्वतंत्र व संप्रभु देश की आर्थिक गुलामी की दारूण कथा होगी।इस 5 ट्रिलियन इकानॉमी में भूखे, नंगे, बीमार, बेघर, अशिक्षित लोगों का जमावड़ा होगा और कुछ लोग सारे संसाधनों, अवसरों और उत्पादन प्रणाली पर कब्जा जमाये बैठे रहेंगे। हमारी सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक शक्तियां भी इस पूंजीवादी सूत्रधारों के इशारों पर उठक-बैठक करेंगी। बिना ठोस योजना के व नागरिकों की सहभागिता के बिना 5 ट्रिलियन का यह अपरिभाषित-अपरिचित सपना नागरिक के रूप में हमारे लोकतांत्रिक अवसान का ही मार्ग प्रशस्त न कर दे!    


प्रधानमंत्री जी, थोड़ा-सा भरम तो रहने दीजिए

प्रधानमंत्री जी, थोड़ा-सा भरम तो रहने दीजिए
कृष्ण प्रताप सिंह
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पांच साल की दूसरी पारी के सौ से कुछ ज्यादा ही दिन बीत गये हैं। इन्हें इस कसौटी पर कसे कि ये देश और देशवासियों पर कैसे बीते हैं, तो एक बयान में प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि इन गिनती के दिनों में वे देशवासियों को अपने श्संकल्पों (पड़े मन्सूबों) का ट्रेलर ही दिखा सके हैं और फिल्म अभी बाकी है। लेकिन इस ट्रेलर को उन निगाहों से देखें, जिनसे बटलोई के चावल देखे जाते हैं या लिफाफे को देखकर खत का मजमून समझ लिया जाता है तो नहीं लगता कि प्रधानमंत्री और उनकी जमातों की अपने घोषित-अघोषित एजेंडों को पूरा करने की हड़बड़ी को समझने के लिए बाकी फिल्म का इंतजार करने की जरूरत है। इसलिए भी कि देशवासी इन सौ से ज्यादा दिनों से पहले 1826 और दिन उनके शासन में रह चुके हैं और उन्हें इस सवाल के जवाब तक पहुंचने के लिए किसी बड़ी बौद्धिक कवायद नहीं करनी कि उन 1826 दिनों में लगातार किया जाता रहा पुनरुत्थान व पुरातन का यशोगान इन गिनती के दिनों में ही हमारे वर्तमान और भविष्य के ध्वंस की देहरी तक क्यों जा पहुंचा है? क्यों अब प्रधानमंत्री उन महानुभावों को भी गलत सिद्ध करने पर आमादा हैं, जिन्हें विश्वास था कि जैसे भी सही, उन्हें दोबारा जनादेश मिल गया है तो वे उसका सम्मान करेंगे और पुराने सबकों की सर्वथा अनदेखी के बजाय भूलों-चूकों को लेनी-देनी की तर्ज पर निपटाने की राह पकड़ेंगे?गौर कीजिए, पहली पारी में सबका साथ, सबका विकास के अपने नारे के प्रति देशवासियों का भरम बनाये रखने के लिए कहें या अपनों से मिलीभगत के तहत, प्रधानमंत्री कभी-कभी श्गोरक्षकों पर बरसते भी थे। तब वे उनकी गोरक्षा से जुड़ी कारस्तानियों को बदनीयत बताने की हद तक भी जाते और कहते थे कि गोली ही मारनी है तो मुझे मार दें, लेकिन मेरे दलित भाइयों को न मारें। राज्य सरकारों को गोरक्षकों के उत्पातों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश भी वे भिजवाते ही थे। ठीक है कि इस बात को राज्य सरकारें भी समझती थीं और गोरक्षक भी कि उन्हें प्रधानमंत्री के कहे से कोई सबक लेने या उसे सबक की तरह याद रखने की जरूरत नहीं है क्योंकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की सत्ता दांव पर लगी हो तो प्रधानमंत्री खुद भी हिन्दू-मुसलमान और कब्रिस्तान-श्मशान करने लग जाते थे। गत लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने इस तरह के कुछ पंैतरे कम नहीं भांजे थे। फिर भी उन दिनों कई लोगों के लिए विश्वास करना कठिन था कि प्रधानमंत्री के विकास के महानाय के आसन से उतरने की एक दिन वैसी परिणति हो जायेगी, जैसी गत बुधवार को मथुरा में हुई। वहां स्वच्छता ही सेवा अभियान का आरंभ करते हुए उन्होंने अपना पक्ष चुनने में न सिर्फ अपनी जमात के कट्टरपंथी नेताओं को पीछे छोड़ दिया, बल्कि अपने प्रधानमंत्रित्व को लेकर सारे भ्रम तोड़ डाले। उन्होंने कहा कि देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें गाय और ओम शब्द सुनते ही करेंट लग जाता है और उनके कान व बाल खड़े हो जाते हैं। उन पर तंज कसते हुए वे यह कहने से भी नहीं चूके कि ऐसे लोगों के ज्ञान ने ही देश को बरबाद कर रखा है। सोचिये जरा, प्रधानमंत्री खुद ऐसे कुछ लोगों के खिलाफ, यह भूलकर कि उनके प्रधानमंत्री भी वही हैं और प्रधानमंत्री के आसन पर रहते हुए उनमें असुरक्षा का भाव पैदा करने वाले किसी भी तरह के वैर, हिकारत या गैरबराबरी का पोषण उन्हें शोभा नहीं देता,  ऐसी घृणा का प्रसार करने लगें, तो उनके हिन्दुत्व के सिपहसालारों को, जो अपनी इस मान्यता को छिपाते भी नहीं कि उनके लिए गाय का जीवन मनुष्य के जीवन से भी ज्यादा पवित्र है, किसी और हौसला अफजाई की क्या जरूरत? वैसे, यह भी इन्हीं गिनती के दिनों के ही खाते में है कि अब प्रधानमंत्री अपने इस श्दृष्टिकोण के पक्ष में खुलकर खड़े होने में कतई नहीं शरमाते कि उन्हें मॉब लिंचिंग की घटनाओं को लेकर उतनी चिंता नहीं है, जितनी इसकी कि लिंचिंग का शोर मचाकर उनकी और राज्य सरकारों की बदनामी कराई जा रही है। झारखंड में हुई मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर नई लोकसभा के पहले ही सत्र में उन्होंने जो कुछ कहा, वह इसकी ताईद करता है। उनके इस दृष्टिकोण के नये विस्तार कश्मीर घाटी के लोगों की महीने भर से ज्यादा पुरानी हो चली कैद में ही नहीं, भारी जुर्माने वाले मोटर व्हीकल एक्ट को लागू करने में नागरिकों के प्रति अपनाई जा रही बेदर्दी में भी देखे जा सकते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से लेकर परिवहन मंत्री नितिन गडकरी तक कह रहे हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, आम लोगों की जानों की सुरक्षा की बड़ी फिक्र के ही तहत ही कर रहे हैं। घाटी के लोगों को संचार सुविधाओं तक से महरूम कर देने के पीछे भी आम लोगों की जानों की हिफाजत ही उनका सबसे बड़ा तर्क है और सड़क कानून तोड़ने पर भारी जुर्माना थोपने के पीछे भी, तो उसका इसके सिवा और क्या मतलब निकाला जा सकता है कि अब देश में लोगों की जानें या तो कैद में सुरक्षित रहेंगी या भारी जुर्माने की बदौलत और स्वतंत्रता व जागरूकता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों के तकाजों से उनका का कोई मतलब नहीं होगा। इस बात को असम में एनआरसी के हड़बोंग तक ले जायें तो भी उससे बाहर रह गये लोगों और उनके लिए बने डिटेंशन सेंटरों में फैला खौ$फ इस मतलब को बदलने नहीं देता। लेकिन बात यहीं तक होती तो भी गनीमत थी। लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा दिखाये जा रहे फाइव ट्रिलियन डालर वाली अर्थव्यवस्था के हसीन सब्जबाग के बीच वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को यह मानना तक गवारा नहीं कि देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले आटोमोबाइल सेक्टर की बदहाली के पीछे मंदी जैसा कोई चिंताजनक संकेत है। उनके अनुसार यह बदहाली मिलेनियल्स की आदतों में बदलाव का करिश्मा भर है, जो ओला और उबर जैसी कैब सर्विसों की बदौलत आया है। इससे पहले कि कोई उनसे पूछता कि अगर ओला व उबर जैसी सेवाएं हमें ऐसी बदहाली की सौगात ही दे रही हैं तो वे किसकी अनुकम्पा से देश में बनी हुई हैं और ऐसे में फाइव ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था कैसे बनेगी, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने यह कहकर लोगों को इसके हिसाब-किताब में पड़ने से मना कर दिया कि आइन्स्टीन ऐसे हिसाब-किताब में पड़ते तो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज ही नहीं पाते! बाद में उन्होंने इसकी सफाई दी तो भी अपने कहे की लीपापोती ही करते रहे। इतना भी स्वीकार नहीं कर पाये कि उनके मुंह से गलती से न्यूटन की जगह आइंस्टीन निकल गया था और गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत वास्तव में न्यूटन ने खोजा था। बहरहाल, उनकी इस विद्वता ने कई लोगों को एक वाकया (चुटकुला नहीं) याद दिला दिया। किसानों के कल्याण की कामना में दुबले हुए जा रहे पीयूष गोयल जैसे ही एक नेता एक किसान के खेत में लहलहाती फसल देखकर उस पर भड़कते हुए बोले, बार-बार समझाने के बावजूद तुम लोग उन्नत बीज नहीं बोते। बोते तो इस खेत से तुम्हें गेहू की बेहतर उपज मिल सकती थी। किसान ने कहा, हुजूर, गुस्ताखी माफ हो। इस खेत से गेहू की बदतर या बेहतर कोई भी उपज कैसे मिल सकती है, जब मैंने इसमें गेहूं बोया ही नहीं। इसमें जो पौधे आप देख रहे हैं, गेहू के नहीं, जौ के हैं। इसके बावजूद नेता ने किसान के आईने में अपनी शक्ल नहीं देखी। अपने बर्ताव से उसका यह श्भरम भी तोड़ दिया कि अगली बार उसका कल्याण करने आयेगा तो जौ और गेहूं का फर्क समझने की तमीज सीखकर आयेगा। अफसोस कि न सिर्फ वाणिज्यमंत्री बल्कि परिवहन मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से लेकर प्रधानमंत्री तक इन दिनों उस नेता जैसा ही बर्ताव करते दिखाई दे रहे हैं। वे देश का थोड़ा सा भी भरम बना रहने देते तो उनके ये सौ से ज्यादा दिन देशवासियों को सास के नहीं लगते। लेकिन कैसे रहने दें? कर्ण को जेनेटिक साइंस और गणेश को प्लास्टिक सर्जरी की मिसाल बताकर वे पुरातन का जैसा पुनरुत्थान चाहते थे, उसका लक्ष्य मोरनियों को मोरों के आंसू पीकर गर्भवती कराने के बावजूद हासिल नहीं कर पाये हैं। स्वाभाविक ही, वे हड़बड़ी में हैं और उनकी हड़बड़ी उन्हें इतनी भी इजाजत नहीं दे रही कि हमारे वर्तमान और भविष्य से खेल करने से परहेज रख सकें।


गुरुवार, 12 सितंबर 2019

करतारपुर के बहाने अमन की बात  

करतारपुर के बहाने अमन की बात  
भवदीप कांग
करतारपुर कॉरिडोर को भारत और पाकिस्तान के मध्य श्शांति के मार्ग के रूप में निरूपित किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले अनुच्छेद 370 को भारत सरकार द्वारा निष्प्रभावी किए जाने के बाद दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर है और ऐसे में इस परियोजना का महत्व कहीं ज्यादा बढ़ गया है। वास्तव में, दोनों देशों के मध्य फिलहाल संवाद की यही एक कड़ी बची है, क्योंकि पाकिस्तान पहले ही बौखलाहट में भारत से राजनयिक संबंधों को काफी हद तक घटा चुका है और रेल व बस सेवा को रोकने के अलावा उसने आपसी कारोबार को भी बंद कर दिया है।
ऐसे माहौल में बीते बुधवार को अटारी सीमा पर दोनों देशों के बीच करतारपुर कॉरिडोर (जो डेरा बाबा नानक को पाकिस्तान में स्थित गुरुद्वारा दरबार साहिब से जोड़ेगा) को लेकर तीसरे दौर की वार्ता हुई। इसमें कोई अंतिम सहमति तो नहीं बन सकी, चूंकि पाकिस्तान हरेक सिख श्रद्धालु से 20 डॉलर फीस लेने पर अड़ गया और साथ ही साथ उसने श्रद्धालुओं की सहायता के लिए भारतीय प्रोटोकॉल अधिकारी की इजाजत देने से भी इनकार कर दिया। फिर भी अच्छी खबर यह है कि मुख्य मसले सुलझ गए हैं। यह कॉरिडोर सालभर खुला रहेगा और रोज 5000 सिख श्रद्धालु बगैर वीजा के करतारपुर साहिब तक जा सकेंगे। इसके साथ यह भी तय हुआ कि भारत और पाकिस्तान मिलकर रावी नदी के दोनों ओर पुल बनाएंगे और पाकिस्तान लंगर व प्रसाद वितरण के लिए जरूरी व्यवस्थाएं करेगा। पाकिस्तान ने इस कॉरिडोर को गुरु नानक जी के 550वें प्रकाश पर्व (जो 12 नवंबर को आ रहा है) से पूर्व खोलने का वादा किया है। एक अस्थायी सड़क बनाई जाएगी, ताकि निर्धारित समयसीमा का पालन हो सके। इस संदर्भ में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने मंगलवार को कहा कि यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम बाहर से आने वाले सिख श्रद्धालुओं को हरसंभव सुविधाएं मुहैया कराएं। उन्होंने ऑन-अराइवल वीजा देने का वादा किया और कहा- श्करतारपुर सिखों का मदीना है और ननकाना साहिब मक्का है। हम (मुस्लिम) किसी को मक्का या मदीना से दूर करने की कल्पना भी नहीं कर सकते। यहां पर यह समझना होगा कि इमरान ने यह वादा इसलिए नहीं किया कि उन्हें सिख समुदाय की फिक्र है या वे सिखों की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हैं। ऐसा तो उन्होंने पाकिस्तान की छवि सुधारने की कोशिश के तहत किया, जो सिख लड़कियों के अपहरण, जबरन धर्मांतरण और निकाह की हालिया घटनाओं के चलते काफी कलंकित हो चुकी है। वैश्विक समुदाय को इस बारे में कोई भ्रम नहीं कि पाकिस्तानी सत्तातंत्र का अपने यहां के सिखों (या कहें कि समूचे अल्पसंख्यक समुदाय) के प्रति कैसा रवैया है। यदि सिख समुदाय की ही बात करें तो इस संदर्भ में पाकिस्तान का मानवाधिकार रिकॉर्ड हैरान करने वाला है। पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक वहां सिख समुदाय तेजी से घट रहा है। बीस साल पहले पाकिस्तान में 40,000 सिख मौजूद थे, जो अब घटकर महज 8000 रह गए। इनमें अफगानिस्तान से आए सिख शरणार्थी भी शामिल हैं। आखिर बाकी सब कहां गायब हो गए? सिखों के तेजी से घटते आंकड़ों की एक ही वजह हो सकती है- जबरन धर्मांतरण। पाकिस्तान के सशस्त्र बलों और सरकार में सिखों का प्रतिनिधित्व नगण्य है (मेजर हरचरण सिंह ऐसे पहले सिख थे, जो वर्ष 2007 में पाकिस्तानी सैन्य अफसर बने)। इसके बावजूद पाकिस्तान अपनी छोटी-सी सिख आबादी को खालिस्तान के नारों को हवा देने के लिए इस्तेमाल करने बाज नहीं आता। इसकी हालिया मिसाल एक पाकिस्तानी सिख लीडर का वह वीडियो है, जिसमें वह तमाम सिखों से कश्मीर पर पाकिस्तानी रुख का समर्थन करने और अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का विरोध करने की अपील कर रहा है। ये पाकिस्तान के हताश-निरर्थक प्रयास हैं, क्योंकि खालिस्तानी भावनाएं तो कब की दफ्न हो चुकीं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कट्टर राष्ट्रवादी शख्स हैं, जो जंग में भी हिस्सा ले चुके हैं। वे असंतुष्टों को एक इंच भी जगह देना गवारा नहीं कर सकते। पर वे एक सिख भी हैं और इस नाते इस बात को लेकर बेहद उत्सुक हैं कि करतारपुर कॉरिडोर इस साल गुरुपर्व (12 नवंबर) तक बनकर तैयार हो जाए। गौरतलब है कि भारत-पाकिस्तान का विभाजन करने वाली रेडक्लिफ रेखा ने गुरुनानक की जन्मस्थली ननकाना साहिब और उनके अंतिम दिनों का ठिकाना रहे करतारपुर के दरबार साहिब को भारत से जुदा कर दिया। सरहद से महज 4-5 किमी की दूरी पर स्थित गुरुद्वारा भारत से भी साफ नजर आता है। बीएसएफ ने तो इसके लिए दस फुट ऊंचा एक चबूतरा भी तैयार किया है, जिस पर चढ़कर श्रद्धालु इसके दर्शन कर सकते हैं। 1960 के दशक में जमीन की अदला-बदली की बात भी चली थी, ताकि करतारपुर भारत का हिस्सा बन सके, पर दोनों देशों में तनाव बढ़ने के कारण यह विचार ठंडे बस्ते में चला गया।
बहरहाल, करतारपुर कॉरिडोर बनाने का विचार सबसे पहले वर्ष 1999 में पेश किया गया था, जब अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए थे, लेकिन पिछले साल जाकर ही इसकी नींव डल पाई। यह प्रस्तावित गलियारा भले ही महज 6 किमी का हो, लेकिन इसका महत्व भौगोलिक दायरों से कहीं बढ़कर है। इस कॉरिडोर परियोजना के बहाने पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष यह दिखाना चाहता है कि वह भारत से संबंध सामान्य करने की दिशा में पहला कदम आगे बढ़ाने की सियासी मंशा रखता है। हालांकि उसे यह एहसास हो चुका है कि वह भारत से कोई सौदेबाजी करने या किसी तरह की रियायत पाने के लिए कॉरिडोर का इस्तेमाल नहीं कर सकता। भारतीय पक्ष ने यह साफ कर दिया कि पाकिस्तानी जमीन से आतंकवाद का निर्यात पूरी तरह रुकने के बाद ही द्विपक्षीय संवाद की राह खुल सकती है। भारत ने कश्मीर को अपना श्अंदरूनी मामला करार देते हुए इस पर किसी भी तरह की बातचीत से स्पष्ट इनकार किया है। भारत सरकार का करतारपुर कॉरिडोर पर बातचीत को द्विपक्षीय संवाद के दायरे से अलग रखने का रवैया बार-बार सही साबित हुआ है। पाकिस्तान एक ओर तो करतारपुर पर बातचीत करता है, तो दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले होते हैं। बीते बुधवार को भी जहां अटारी में करतारपुर को लेकर दोनों पक्षों में बातचीत चल रही थी, वहीं लंदन में पाकिस्तानी प्रदर्शनकारी भारतीय दूतावास को घेरते हुए नारेबाजी कर रहे थे, यातायात अवरुद्ध कर रहे थे और खिड़कियों के कांच फोड़ रहे थे। यह स्पष्टतरू पाकिस्तान का दोगला रवैया है और भारत इसके झांसे में नहीं आने वाला। पाकिस्तान कश्मीर मसले पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन जुटाने में नाकाम रहते हुए लगभग पूरी तरह अलग-थलग पड़ चुका है। तमाम देश इस पर सहमत हैं कि ये भारत का अंदरूनी मामला है। यदि इमरान खान अक्ल से काम लें तो वे धार्मिक कूटनीति का इस्तेमाल शांति की दिशा में कदम बढ़ाने और संबंध सुधार के प्रति गंभीरता दर्शाने के रूप में कर सकते हैं। गौरतलब है कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही परमाणु शक्ति-संपन्न् देश हैं, जिनके मध्य छोटी-बड़ी लड़ाइयों, गहरे असंतोष और अविश्वास का स्याह इतिहास रहा है। करतारपुर कॉरिडोर एक ऐसा अहम पड़ाव बन सकता है, जहां से दोनों देशों के मध्य संबंध सुधार की नई राह खुले। पाकिस्तान इसका लाभ उठाए तो बेहतर है।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)
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माया का बदलता सियासी रुख  
प्रदीप सिंह
देश और राजनीतिक दलों के इतिहास में कभी-कभी किसी बड़ी घटना के साथ होने वाली सामान्य-सी घटना बड़े बदलाव की नींव रख देती है। संसद के दोनों सदनों में जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन करने और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के प्रस्तावों का बहुजन समाज पार्टी ने समर्थन किया। सुनने में यह बात बहुत सामान्य-सी लगती है, क्योंकि कई अन्य विपक्षी दलों ने भी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया, लेकिन मायावती के इस फैसले से देश की राजनीति को एक नई दिशा में ले जाने की विपक्षी दलों की कोशिश को बड़ा झटका लगा। वह दिशा है, देश में दलित-मुस्लिम समीकरण की नई राजनीति गढ़ने की। मायावती का दलित जनाधार कितना भी कम हो गया हो, लेकिन वह आज भी देश में दलित समाज की सबसे बड़ी नेता हैं। कश्मीर मुद्दे पर राज्यसभा में सत्तारूढ़ दल को मिले इतने बड़े (दो तिहाई) समर्थन से विपक्षी दलों को जितना बड़ा झटका लगा, उससे बड़ा धक्का मायावती के रुख से लगा। मायावती वहीं नहीं रुकीं। उन्होंने बाकायदा इसे अपनी पार्टी की विचारधारा और बाबासाहब डा. भीमराव आंबेडकर के विचारों से जोड़कर व्यापक आयाम दिया। उन्होंने कहा कि बाबासाहब शुरू से ही जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबासाहब ने जम्मू-कश्मीर के लिए इस विशेष प्रावधान का न केवल ड्राफ्ट तैयार करने से मना कर दिया था, बल्कि जब अपने राजनीतिक दल रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया तो उसके घोषणा पत्र में अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने की बात लिखी। बहुत से लोगों को लग रहा है कि बसपा मुखिया आजकल कुछ बदली-बदली नजर आ रही हैं, लेकिन मायावती के रुख में आया बदलाव राजनीतिक संस्कृति के लिहाज से सुखद अनुभूति देने वाला है, क्योंकि आज राष्ट्रीय और सामाजिक हित को तरजीह देने की राजनीतिक संस्कृति विलुप्त सी होती जा रही है। मुद्दा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का हो, विपक्षी नेताओं के श्रीनगर जाने के विरोध का हो या दिल्ली में रविदास मंदिर पर हुए प्रदर्शन का समर्थन न करने का हो या फिर पार्टी मंच पर अपने परिजनों को नहीं बैठाने का हो- इन सभी बातों से मायावती एक बदलाव का संकेत दे रही हैं। सवाल है कि इस बदलाव के जरिए वह अपनी राजनीति को किस नई दिशा में ले जाना चाहती हैं? दिशा और दशा कोई भी हो, लेकिन उनका आत्मविश्वास गजब का है। मायावती के पास इस बात का विकल्प था कि वह कश्मीर मुद्दे पर भ्रमित करने वाला रुख अख्तियार कर लेतीं, ताकि यह लगता कि वह समर्थन भी कर रही हैं और विरोध भी। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यही करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें न खुदा मिला और न ही विसाले सनम। इस कदम से बसपा प्रमुख ने एक बार फिर बताया कि वह आंबेडकर और कांशीराम की उस परंपरा की वास्तविक वारिस हैं, जिसमें मुद्दों पर साफगोई से कोई समझौता नहीं किया जाता। बाबासाहब हों या कांशीराम, इन दोनों ने कभी मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रयास नहीं किया। इस देश में किसी पार्टी के किसी नेता ने सार्वजनिक मंच से जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी के बारे में यह कहने का साहस नहीं किया कि श्बुखारी का बुखार तो मैं उतारूंगा। कांशीराम ने लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क की जनसभा में यह बात तब कही थी, जब बुखारी का जलवा कायम था। पिछले कई सालों से देश की राजनीति में दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश हो रही है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी ने जय मीम-जय भीम का नारा दिया था। साल 2019 के चुनावों में भी अखिलेश यादव से लेकर कांग्रेस तक तमाम विपक्षी दलों ने इस राजनीतिक समीकरण को उभारने की कोशिश की। उन्हें लगता है कि हिंदू एकता को तोड़ने और भाजपा को परास्त करने का यही सबसे कारगर औजार है। इसलिए चुनाव के दौरान इन पार्टियों और खासतौर से इनके समर्थक बुद्धिजीवियों की ओर से विभिन्न् राज्यों व चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं के आंकड़े देते समय यह बताया जाता था कि इतने हिंदू, इतने मुसलमान और इतने फीसदी दलितध्आदिवासी मतदाता हैं। जैसे दलित, आदिवासी हिंदू धर्म की बजाय किसी और धर्म के अनुयायी हों। मायावती के एक कदम ने इस नई राजनीतिक धुरी बनाने के प्रयासों को पलीता लगा दिया। इस संभावित धुरी के केंद्र में मायावती ही हो सकती थीं। उनका एक बयान इस धुरी को हकीकत बनाने की दिशा में ले जा सकता था। हालांकि तुलना बेमानी है और यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि मायावती का यह भाव स्थायी रहेगा, लेकिन यदि उनके रुख में निरंतरता बनी रहती है तो कभी न कभी मायावती के इस रुख की तुलना बाबासाहब के हिंदू धर्म छोड़ करके इस्लाम या ईसाई धर्म न ग्रहण करने के कदम से होगी। दलित-मुस्लिम गठजोड़ की धुरी मायावती को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में ला सकती थी, लेकिन यह दूसरी बार हो रहा है कि किसी दलित नेता ने हिंदू एकता को तोड़ने के प्रयास से परहेज किया। कुछ लोग कह सकते हैं कि मायावती यह सब मोदी सरकार के दबाव में कर रही हैं। ऐसे लोगों को याद दिलाना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में जब बसपा-भाजपा की पहली सरकार बनी तो मायावती ने न केवल ज्यादातर अहम विभाग भाजपा को दिए, बल्कि विभागों के वितरण में जरा भी देर नहीं लगाई। इससे भी बड़ी बात यह कि वह 2002 के गुजरात दंगे के बाद विधानसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में प्रचार करने चली गईं। मायावती ने यह निर्भीकता बाबासाहब और कांशीराम से सीखी है, लेकिन एक सवाल है जिसका जवाब अभी मिलना बाकी है। मायावती यह ऐसे समय कर रही हैं जब उनका गैर दलित ही नहीं, गैर जाटव दलित भी मोदी-शाह की राजनीति ने तोड़ लिया है। इतना ही नहीं, दलित राजनीति में भी कई तरह के आंतरिक संघर्ष चल रहे हैं। प्रकाश आंबेडकर, जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर जैसे दलित नेता उनके लिए मुश्किल का सबब बनते रहे हैं। हाल में दिल्ली में संत रविदास का मंदिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से तोड़े जाने पर भारी प्रदर्शन हुआ। संत रविदास दलितों में भगवान की तरह पूजे जाते हैं। इस प्रदर्शन में चंद्रशेखर की प्रमुख भूमिका थी। इस मुद्दे पर भी मायावती ने एक परिपक्व नेता की तरह ऐसे प्रदर्शनों की राजनीति का विरोध किया। वह आसानी से इस मुद्दे को ढाल बनाकर राजनीतिक लाभ उठा सकती थीं, लेकिन उन्हें पता है कि ऐसे आंदोलनों के समर्थन से दूसरे समाज के लोगों को जोड़ने में मदद नहीं मिलेगी। यह भी उन्होंने कांशीराम से ही सीखा है। उत्तर प्रदेश में पहली बार सरकार बनते ही कांशीराम ने डीएस-फोर और बामसेफ को भंग कर दिया था, क्योंकि सत्ता की राजनीति के लिए दलित समाज के अलावा दूसरे वर्गों का भी समर्थन चाहिए था। क्या मायावती की नई राह उन्हें दूसरे वर्गों का समर्थन दिलाएगी? डगर कठिन है और संघर्ष लंबा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


आर्थिक सुधारों से ही बदलेगी तस्वीर 

आर्थिक सुधारों से ही बदलेगी तस्वीर 
जीएन वाजपेयी
वर्ष 2014 के आम चुनाव में भाजपा श्सबका साथ, सबका विकास के जिस नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी, वह कारगर रहा। इस नारे ने मतदाताओं के मानस को कुछ इस कदर प्रभावित किया कि भाजपा लोकसभा की 282 सीटें जीत गई। फिर आया 2019 का चुनाव, जिसमें श्मोदी है तो मुमकिन है नारे ने असर दिखाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछली बार से भी बड़ी सफलता हासिल करते हुए 303 सीटों के साथ सत्ता में वापस लौटे। 2019 के चुनाव में जीत के बाद भाजपा मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने सबका साथ, सबका विकास नारे में सबका विश्वास और जोड़ दिया। इस नए जुड़ाव के साथ उन्होंने राजनीतिक विमर्श को जो नई दिशा दी, उस पर बहुत ज्यादा टीकाकारों ने गौर नहीं किया। यदि इसकी गहराई से पड़ताल की जाए तो मालूम पड़ेगा कि मोदी एक आम नेता से राजनेता यानी स्टेट्समैन बनने की ओर बढ़ रहे हैं। एक नेता वही होता है, जो अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसी एक तबके के हितों से खिलवाड़ कर सकता है। जबकि राजनेता आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपने मूल्यों पर अडिग रहता है। याद करें कि जब पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने कश्मीर पर भारत का पक्ष रखने के लिए तब विपक्ष में नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भेजने का फैसला किया। दलगत भावना से परे लिए गए नरसिंह राव के इस फैसले को अक्सर स्टेट्समैनशिप की मिसाल बताया जाता है।
2019 के चुनाव में भाजपा को 37.4 प्रतिशत मत हासिल हुए। इसका अर्थ है कि 62.6 फीसदी मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व पर भरोसा नहीं जताया। ऐसे में वह महज समर्थन और वृद्धि से बढ़कर अपने दर्शन को बदलते हुए सबका विश्वास जीतने में जुटे हैं। यह एक विचारणीय बदलाव है। वह सभी का विश्वास अर्जित कर देश के सर्वमान्य नेता बनना चाहते हैं, जिसका अर्थ यही है कि वह दलगत राजनीति से परे जाकर नया मुकाम हासिल करने के इच्छुक हैं। अपने पहले कार्यकाल में उन पर आरोप लगे कि कथित गोरक्षकों की शरारती गतिविधियों पर उन्होंने या तो प्रतिक्रिया ही नहीं दी या फिर बहुत देर से ऐसा किया। 2019 के जनादेश के बाद उन्होंने ऐसे किसी भी वाकये पर त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है और यहां तक कि संसद में बयान भी दिया। कहने का अर्थ यह नहीं कि ऐसी अप्रिय घटनाओं पर उन्हें पहले जरा भी दर्द महसूस नहीं हुआ, लेकिन अब यह और स्पष्ट है कि वह भारत का भरोसा हासिल करने के लिए अतिरिक्त प्रयास कर रहे हैं। इसी सिलसिले में 30 अगस्त को कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने हिदायत दी कि वे संवाद और आलोचना के दौरान मर्यादा और शालीनता का परिचय दें। भारत एक जीवंत एवं गतिशील लोकतंत्र है। फिर भी मोदी सरकार के कट्टर आलोचक अलग ही राग अलाप रहे हैं। उनमें से कुछ यहां तक कह रहे हैं कि लोकतंत्र की मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उनके ऐसे दावों की पड़ताल के लिए कोई भी भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव जैसे पैमानों पर दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्रों के साथ इसकी तुलना कर सकता है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाए जाने के खिलाफ दायर याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार करना स्वतंत्र न्यायपालिका की ताजा मिसाल है। स्वतंत्र न्यायपालिका अपने विवेक से कार्यपालिका की गतिविधियों की भी समीक्षा कर रही है, जो परंपरा से इतर है। कुछ मामलों में तो उसने कानून बनाने के निर्देश तक दिए हैं। ऐसा ही एक फैसला मुस्लिम महिलाओं के साथ पक्षपात से जुड़ा था। पिछली सरकारें वोट बैंक छिटकने के डर से ऐसे अदालती निर्देशों पर अमल करने से कतराती थीं। ऐसे में समाज का पीड़ित वर्ग पक्षपात सहने के लिए अभिशप्त रहता था। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को मूर्त रूप देने की कोशिश की, लेकिन वे प्रयास फलीभूत नहीं हो पाए। मगर 2019 में वह समानता एवं निष्पक्षता के सिद्धांतों को संसद के पटल पर ले आए और उनके साथियों ने सदन में संख्याबल का बखूबी प्रबंध किया। अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में अब्राहम लिंकन ने जब दासता को समाप्त कराने वाला कानून सीनेट से पारित करा लिया था, तब उनके कुछ आलोचकों ने उन पर स्तरहीन सिद्धांतों को अपनाने का आरोप लगाया था। हर एक फैसले के कई पहलू होते हैं। इस मामले में भी कुछ ऐसा हो सकता है, लेकिन अगर मुस्लिम महिलाओं की बेहतरी की बात हो रही है तो यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र फल-फूल रहा है। आर्थिक उत्थान के लिए भारतीयों का एक बड़ा तबका बीते 72 वर्षों से टकटकी लगाए हुए है। इसे केवल आर्थिक वृद्धि से ही संभव बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले पांच वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। राजनीतिक गलियारों और मीडिया की दुनिया में आलोचक इसका उपहास उड़ा रहे हैं। कुछ अर्थशास्त्री इसे असंभव बता रहे हैं तो कुछ इसे लेकर आशंकाएं जाहिर कर रहे हैं। मौजूदा आर्थिक सुस्ती को वे अपनी धारणा की पुष्टि के रूप में पेश कर रहे हैं। जो भी हो, आने वाले समय में मोदी सरकार की क्षमताओं की कड़ी परीक्षा होनी है। पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था देश से गरीबी का समूल नाश भले न कर पाए, लेकिन इससे गरीबों की तादाद घटने की भरी-पूरी संभावनाएं हैं। जन-धन, आधार और मोबाइल यानी जैम, मुफ्त गैस एवं बिजली कनेक्शन, सभी को आवास, किसान सम्मान निधि, मुद्रा और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का बिना किसी भेदभाव के सफल क्रियान्वयन देश की आबादी के एक बड़े और विपन्न् तबके के जीवन स्तर में व्यापक स्तर पर सुधार ला रहा है। हालांकि सुस्ती के भंवर में फंसी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए तत्काल कुछ साहसिक फैसले लेने होंगे, ताकि जीडीपी की ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल हुआ जा सके। मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में जीएसटी, दिवालिया संहिता और रेरा जैसे कुछ प्रमुख संरचनागत सुधार किए। कुछ सुधार अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे सुधार और उनका प्रभावी क्रियान्वयन आने वाले कई दशकों के लिए ऊंची वृद्धि का आधार उपलब्ध करा सकते हैं। वे भारतीयों की आंखों से गरीबी के आंसू पोंछ सकते हैं। भारत लोकतंत्र और जनसांख्यिकी के सुखद संयोग का लाभ उठाने की और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता। अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार आम आदमी के भरोसे को नहीं तोड़ेगी। उम्मीदों से लबरेज भारत मोदी की तत्परता और उनकी क्षमताओं में पूरा भरोसा रखता है। भारत उनके फैसलों का समर्थन करेगा, भले ही वे निर्णय कितने ही कड़े क्यों न हों।
(लेखक सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)


कांग्रेस की कलह-कथाः कड़वे घूंट पीकर कोपभवन में विश्राम करती पार्टी!


कांग्रेस की कलह-कथाः कड़वे घूंट पीकर कोपभवन में विश्राम करती पार्टी!
आशीष व्यास
प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी ने 1977 में एक कटाक्ष-कथा लिखी थी- जादू की सरकार। संदर्भ था- कांग्रेस की सत्ता-यात्रा के 30 साल। व्यंग्य के कुछ प्रमुख अंश इस प्रकार हैं - ...खुद कांग्रेसी यह नहीं समझ पाए कि कांग्रेस क्या है? लोगों ने कांग्रेस को ब्रह्म की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा। जो दाएं नहीं है, वह कांग्रेस है। जो बाएं नहीं है, वह कांग्रेस है। जो मध्य में नहीं है, वह कांग्रेस है। जो मध्य से बाएं है, वह कांग्रेस है। मनुष्य जितने रूपों में मिलता है, कांग्रेस उससे ज्यादा रूपों में मिलती है। कांग्रेस सर्वत्र है। हर कुर्सी पर है। हर कुर्सी के पीछे है। हर कुर्सी के सामने खड़ी है। कांग्रेस ने हमेशा संतुलन की नीति को बनाए रखा। जो कहा, वह किया नहीं। जो किया, वह बताया नहीं। जो बताया, वह था नहीं। जो था, वह गलत था। एकता पर जोर दिया लेकिन लड़ाते रहे। आश्वासन दिए पर निभाए नहीं। जिन्हें निभाया, वह आश्वस्त नहीं हुए। ...यूथ को बढ़ावा दिया, बुड्ढों को टिकट दिया। जो केंद्र में बेकार था, उसे राज्य में भेजा। जो राज्य में बेकार था, उसे केंद्र में ले आए। स्वाभाविक है ढेर सारे तात्कालिक प्रसंग ही ऐसी धारणाओं के केंद्र में रहे होंगे। कुछ अनकहे रह गए होंगे और कुछ ऐसे भी होंगे जिन्होंने शब्द पाकर खुद को हमेशा के लिए जीवित कर लिया। आज चार दशक बाद यदि ऐसे संदर्भ की प्रसंग सहित व्याख्या करें तो संक्षिप्त में जो सामने आएगा वह यह बताएगा कि -अनिर्णय और अंतर्विरोध के कारण कुछ ऐसा लगातार घट रहा होगा जो अनुशासन और अराजकता के बीच फंसे दल को दलदल में धकेल रहा होगा! इसी कहानी को नए किरदारों के साथ अब लेकर आते हैं मध्य प्रदेश। कलह के कारणों और विवाद की वजहों तक पहुंचने से पहले वे सवाल, जो इन दिनों मध्य प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में कलमबद्ध-कदमताल कर रहे हैं। क्या कांग्रेस में गुटीय राजनीति चरम पर है? क्या क्षेत्रीय-क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं ने अनुशासन को क्षत-विक्षत कर दिया है? क्या पार्टी के पुराने चेहरे नई उम्मीदों पर सवार होकर सत्ता-सुख के लिए निर्णायक-संघर्ष में लगे हैं? क्या 15 साल पुराने राजनीतिक वनवास को समाप्त करने में योगदान देने वाले हक से अपना हर्जाना मांग रहे हैं? क्या उम्र, अनुभव और अभ्यास की राजनीति ने देश की सबसे पुरानी पार्टी की परिभाषा बदल दी है? या फिर, नई-पुरानी पीढ़ी में होने वाले स्वाभाविक मन-मतभेद से प्रदेश कांग्रेस भी अब सीधा संवाद कर रही है? पार्टी के ढेर सारे जिम्मेदार-जवाबदेह चेहरे ऐसी किसी स्थिति से अपनी असहमति दर्ज करवा रहे हैं और सार्वजनिक रूप से यह मान भी रहे हैं कि कहीं कुछ तो ऐसा है, जिसे सामान्य नहीं कहा जा सकता। एक ही दृष्टिकोण से आए दो अलग बयान यह बताते हैं कि कुछ भी अस्वीकार कर लिया जाए, लेकिन इस स्थापना को मन से मानने में कोई संदेह-संशय नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस की दलगत एकता अब तार-तार हो चुकी है। आगे बढ़ने से पहले कांग्रेस की जड़ों से जुड़ी स्थापित कुर्सियों की कुछ चुनिंदा पंक्तियां। आरोप-प्रत्यारोप के सियासी घमासान के बीच पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने अपने ऊपर उठ रहे सभी सवालों को नकार दिया और कहा -...मैं आरोपों से विचलित नहीं होता। मुझे राजनीति में 50 साल हो गए हैं। पिछले चार दिनों में जो कुछ भी हुआ, उसे मैं सीएम कमलनाथ और कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष पर छोड़ता हूं। हर पार्टी में अनुशासन होना चाहिए। चाहे कितना भी बड़ा नेता क्यों ना हो, कार्रवाई होनी चाहिए। सत्ता और संगठन के शीर्ष पर बैठे मुख्यमंत्री-प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ परिवार के वरिष्ठ की तरह सामने आए और बोले - ...हर स्तर के नेताओं को अनावश्यक बयानबाजी से बचना चाहिए और बंद कमरे में बैठकर चीजों को सुलझाना चाहिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने वन मंत्री उमंग सिंघार बनाम दिग्विजय सिंह विवाद पर कहा - सरकार को स्वतंत्र होकर काम करना चाहिए, इसमें किसी का भी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। सरकार खुद के आधार और दम पर चलना चाहिए। कमलनाथ जी को उमंग सिंघार की बात सुनना चाहिए, दोनों पक्षों को बैठाकर सुलह-मशविरा भी होना चाहिए। बयानों की इस खुली राजनीतिक जंग से आखिर क्या सीखा-समझा जाए?क्या एक समय मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया अब प्रदेश अध्यक्ष के रूप में सूबे की सियासत करना चाहते हैं? यदि नहीं...तो पार्टी के आंतरिक अनुशासन से अलग सार्वजनिक बयानबाजी क्यों? क्या इस अंतर्विरोध पर मुख्यमंत्री कमलनाथ के आग्रह-आदेश का असर कुछ कम हो रहा है? यदि नहीं...तो बयानों की बंदरबांट बंद क्यों नहीं हो रही है? क्या वास्तव में दिग्विजय सिंह शैडो-सीएम की भूमिका में काम कर रहे हैं? यदि नहीं...तो आरोपों का केंद्र बार-बार उन्हीं के इर्द-गिर्द क्यों आ जाता है? गहरा और गंभीर आश्चर्य इस बात को लेकर भी होता है कि एक ही वर्ष में कांग्रेस के दो चेहरे प्रदेश में दिखाई देने लगे हैं! एक कांग्रेस वह थी! अभूतपूर्व एकता दिखाते हुए, एक मन-एक वचन से विधानसभा चुनाव लड़ा। तब ना खेमेबंदी की खड़खड़ाहट थी और ना ही गुटबाजी की कलाबाजियां। जन आशीर्वाद यात्रा पर निकले तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान की घेराबंदी करते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने योजनाबद्ध तरीके से अलग-अलग राजनीतिक यात्राएं शुरू कर दीं। 15 साल पुरानी भाजपा सरकार से तर्क-तथ्य के साथ ढेर सारे सवाल पूछे गए। गांव-कस्बों से लेकर राजधानी के राजनीतिक गलियारों में जीत के लिए रणनीतिक फैसले किए गए! सालों से सोई कांग्रेस की ऐसी सक्रियता वर्षों बाद प्रदेश में महसूस की गई। परिणाम देखिए... बिजली-पानी-सड़क जैसे बुनियादी मुद्दों पर सत्ता से अपदस्थ हुई पार्टी ने चैंकाने वाली वापसी की। एक कांग्रेस यह है! अंतर्विरोधों ने एकता और अनुशासन जैसे शब्दों के अर्थ ही बदल दिए। पद-कद का प्रभाव शून्य में समा गया, निष्ठा-प्रतिष्ठा की लड़ाई शीर्ष पर आ गई। वरिष्ठ कहे जाने वाले नेता सार्वजनिक रूप से याचना करते रहे, अनुसरण करने वाली पंक्ति उन्हें अनसुना करती रही। बंद कमरों के खुले झगड़े सोशल मीडिया के जरिए गली-मोहल्लों की लड़ाई में बदलते दिखाई देने लगे। सम्मान से दी जाने वाली सलाह का स्थान अपमान और भाषाई अराजकता ने ले लिया। व्यक्तिगत हित बचाने और बनाए रखने के लिए शुरू हुई दौड़ ने स्वार्थ और सिद्धांत को एक साथ सिद्ध करना शुरू कर दिया। क्या कांग्रेस को सत्ता सौंपते हुए मतदाताओं ने ऐसी किसी अस्थिर स्थिति की कल्पना की होगी?
परिणाम देखिए... मध्य प्रदेश में लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना सवालों के घेरे में आ गई है। बहरहाल, यह सियासी घमासान दिल्ली दरबार तक पहुंच गया है। असंतोष के कारणों पर विस्तार से कहानी लिखी जा रही है। उपेक्षा से आहत नेताओं की बात भी सुनी जा रही है। स्वाभाविक है, इसी के बीच से ही सुलह का रास्ता निकाला जाएगा। एक होकर, एक दिखाई भी दें, यह पाठ फिर से दोहराया जाएगा। प्रयास यह भी किया जाएगा कि नाक का सवाल बनता निजी संघर्ष, विपक्ष के कानों तक नहीं पहुंचे! कटार जैसे कटाक्ष से व्यंग्य को स्थापित करने वाले हरिशंकर परसाई ने कहा भी है, मेरा ख्याल है नाक की हिफाजत सबसे ज्यादा इसी देश में होती है और या तो नाक बहुत नर्म होती है या छुरा बहुत तेज, जिससे छोटी-सी बात से भी नाक कट जाती है।श्


निर्भीक पत्रकारिता जारी रहे

निर्भीक पत्रकारिता जारी रहे
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
पवन जायसवाल एक पत्रकार हैं, जिन्होंने कुछ ही दिनों पूर्व यूपी के मिर्जापुर जिले के जमालपुर प्रखंड स्थित सियुर प्राथमिक विद्यालय में मध्याह्न भोजन योजना के अंतर्गत रोटी और नमक खाते बच्चों का वीडियो अपने मोबाइल पर रिकॉर्ड किया था. इस जिले के जिलाधिकारी अनुराग पटेल के अनुसार, उन्हें इस घटना का एक फोटो लेना चाहिए था, जो एक प्रेस पत्रकार के उपयुक्त होता. 
यह तथ्य कि उन्होंने अपने फोन का इस्तेमाल एक वीडियो लेने में किया, यह सिद्ध करता है कि वे राज्य के विरुद्ध एक आपराधिक षड्यंत्र रच रहे थे! जायसवाल पर अब भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 120 बी (आपराधिक षड्यंत्र रचना), धारा 186 (एक लोक सेवक को अपने कर्तव्य के निर्वहन से रोकना), धारा 193 (झूठे साक्ष्य बनाना) तथा धारा 420 (धोखाधड़ी करना) के अंतर्गत कई मामले दर्ज किये गये हैं.आश्चर्य है कि इस जिलाधिकारी के कृत्य का भी कुछ लोग समर्थन करते हैं. इनमें यूपी के एक मंत्री भी हैं, जिन्होंने घोषणा कर दी कि 'यदि कोई व्यक्ति सरकार को बदनाम करने की कोशिश करता है, तो उस पर कार्रवाई होगी.' इस तरह, हमारे सामने पत्रकारीय दायित्व के निमित्त अब एक नया 'मानक' पेश है- ऐसा कुछ भी रिपोर्ट न करें, जो व्यवस्था पर कोई आक्षेप करता हो, क्योंकि इस संभावना के बावजूद कि आप जो कुछ रिपोर्ट कर रहे हैं वह सत्य हो, उससे व्यवस्था की बदनामी हो सकती है और इसलिए आपके द्वारा आइपीसी के कई प्रावधानों का उल्लंघन करने की वजह से शासन अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए आप पर एक भारी चट्टान की ही भांति आ गिरे.एक स्वतंत्र मीडिया को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माना जाता है, पर जैसा स्पष्ट है, सरकार में कुछ ऐसे लोग भी बैठे हैं, जो व्यवहार में यही चाहेंगे कि मीडिया उनकी समर्थक हो और वह उनकी आलोचक या बदनामी की वजह तो बिल्कुल भी न हो. पवन जायसवाल इस नये 'सामान्यीकरण' को नहीं समझ सके. उन्होंने गलती से यह सोच लिया कि यह एक पत्रकार का कर्तव्य है कि जो कुछ घटित हो रहा है, वह उसकी सच्ची रिपोर्टिंग करे और उसका जितना अधिक संभव हो, साक्ष्य इकट्ठा करे. वे यह नहीं समझ सके कि ऐसा करते हुए वे राज्य के हितों को नुकसान पहुंचाने का अपराध करनेवाला करार दिये जा सकते हैं. ये सब एक ऐसी सरकारी मशीनरी के संकेत हैं, जो आलोचनाओं के प्रति असंवेदनशील तथा प्रतिशोध के लिए सन्नद्ध है. गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम (यूएपीए) में किया गया संशोधन सरकार को यह अनुमति देता है कि वह किसी व्यक्ति को एक दहशतगर्द घोषित कर उसके विरुद्ध सरकार की कठोर शक्ति से कार्रवाई कर सके. सूचना के अधिकार को विरल कर सूचना आयुक्तों को राज्य के दबाव के प्रति संवेदनशील बनाते हुए प्रत्येक व्यक्ति के इस लोकतांत्रिक अधिकार पर असर डाला गया है कि वह सरकार की कार्यशैली के संबंध में जानकारी हासिल कर सके. लोकसभा में एक विशाल बहुमत तथा राज्यसभा में एक प्रबंधित बहुमत के जरिये यह संभव बना दिया गया है कि विपक्ष की आलोचनाओं या सलाहों पर विचार किये बगैर कोई भी कानून पारित करा लिया जाए.यहां कश्मीर की चर्चा भी की जानी चाहिए. हमसे यह उम्मीद की जाती है कि वहां सामान्य स्थिति की बहाली के संबंध में प्रशासन जो कुछ भी कहता है, हम उसे बगैर किसी आपत्ति अथवा असहमति के स्वीकार कर लें. सबसे बुरी स्थिति यह है कि प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा लोकतांत्रिक अधिकारों के इस क्षरण में साझीदार बन गया है. वह किसी असुविधाजनक प्रश्नकर्ता के साथ ऐसा बर्ताव करता है, मानो वह राज्य का जन्मजात शत्रु हो और राज्य के लिए जो कुछ अच्छा है, उस पर केवल उनका ही एकाधिकार हो. इस संदर्भ में मुझे एक शेर याद आता है-यूं दिखाता है आंखें मुझे बागबान, जैसे गुलशन पे कुछ हक हमारा नहीं.' इस स्थिति पर चिंतित होते हुए भी मैं आशावादी हूं. जायसवाल के साथ जो कुछ हुआ, भारतीय प्रेस परिषद् ने उसका स्वतः संज्ञान लेते हुए यूपी सरकार को एक रिपोर्ट भेजने को कहा है. मीडिया संपादकों के संगठन, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने इस पत्रकार के समर्थन में एक बयान जारी कर उसके विरुद्ध की गयी कार्रवाई की निंदा की है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी यूपी सरकार को एक नोटिस जारी कर उससे पूरे राज्य में मध्याह्न भोजन की स्थिति के संबंध में विस्तृत विवरण मांगा है. इस बीच, जब हम अपने गणतंत्र के संबंध में बड़े मुद्दों पर बहस कर रहे हैं, पवन जायसवाल को अपनी रक्षा आप ही करनी पड़ रही है. उन्हें यूपी सरकार द्वारा अपने विरुद्ध दायर कई संगीन मामलों के सिलसिले में एक कानूनी लड़ाई लड़नी है. अपने द्वारा झेली जा रही कठिनाइयों के बीच यदि पवन जायसवाल ऐसा सोचने लगें कि मध्याह्न भोजन के नाम पर उत्तर प्रदेश के बच्चे क्या खा रहे हैं, इस संबंध में रिपोर्ट करने की मुसीबत उन्होंने क्यों मोल ली, तो यह बड़ा ही दुखदायी होगा. तब लोकतंत्र सचमुच खतरे में होगा. 


भारत को अरबपति नहीं, लखपति चाहिए

भारत को अरबपति नहीं, लखपति चाहिए
प्रभु चावला
जब बाजार एवं अर्थ-केंद्रित अर्थशास्त्रियों द्वारा धकेली आपूर्ति मांग से आगे निकल जाती है, तो 116 वर्षों पुराना एक आर्थिक सिद्धांत उनके प्रवचन का सर्वप्रमुख उद्देश्य बन जाता है- 'बीमार भारतीय अर्थव्यवस्था हेतु सुधारों के लिए दबाव दो, मगर पुराने नुस्खों के इस्तेमाल पर जोर डालो.' वर्ष 1803 में फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां बैटिस्ट की यह उक्ति है कि 'आपूर्ति हमेशा ही अपनी मांग सृजित कर लेगी.' आपूर्ति एवं मांग (एसएडी) के सिद्धांत की यह मान्यता है यदि किसी खास वस्तु की मांग घट जाती है, तो किसी दूसरे क्षेत्र में वृद्धि द्वारा उसके घाटे की भरपाई हो जायेगी. 
तथ्य यह है कि अभी भारत में अनबिकी वस्तुओं के गर्द खाते जखीरे इन दोनों सिद्धांतों को गलत सिद्ध कर रहे हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रबंधक एवं विनियामक 'एसएडी' सिद्धांत की सनक से ग्रस्त हैं. 
पिछले 28 वर्षों से वे सुधारों के नाम पर सभी केंद्रीय सरकारों के द्वारा आपूर्तिकर्ताओं अथवा तथाकथित संपदा-सृजनकर्ताओं का आत्यंतिक तुष्टीकरण कराते आ रहे हैं. सभी वित्तीय संस्थानों, नीति निर्माताओं और यहां तक कि विनियामकों के दरवाजे उनके लिए खुले रखे गये हैं. बैंक भले ही दिवालियेपन की कगार पर हों, हमारे औद्योगिक महाराजाओं का व्यक्तिगत शुद्ध मूल्य असीम रूप से बढ़ता ही रहा है. उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर औद्योगिक मशीनरी की घटती बिक्री पर अंतरराष्ट्रीय एवं घरेलू शोर-शराबे के बीच सरकार ने अंततः अपना 'बटन' दबा डाला. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को 'एसएडी' मॉडल के अनुसरण हेतु बाध्य कर दिया गया. उन्होंने धनाढ्यों एवं विदेशी निवेशकों के लिए कर राहत की घोषणा की. फिर उन्होंने बीमार बैंकों की मजबूती तथा उनके द्वारा बेहतर ऋण उपलब्धता हेतु उनका विलय भी घोषित किया. आगे भी वह अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए कई और राजकोषीय कदमों की घोषणा करेंगी. यह एक विचित्र बात है कि निर्णायक नेतृत्व के अंदर एक अधिक शक्तिशाली भारत पर अर्थव्यवस्था के पतन का आरोप मढ़ा जा रहा है. 'एसएडी' के इन्हीं समर्थकों ने नोटबंदी को प्रणाली के शुद्धीकरण हेतु मोदी सरकार का सर्वाधिक साहसी कदम बताते हुए उसकी तारीफ की थी. अब तीन साल बाद, वे इसे मांग में कमी लाने का दोषी बता रहे हैं. सामूहिक तथा व्यक्तिगत रूप से उन्होंने जीएसटी की वकालत करते हुए तब उसे अब तक के सबसे असाधारण कर सुधार बताया था. अब यही लोग मीडिया से कानाफूसी कर रहे हैं कि जीएसटी ने अनौपचारिक क्षेत्र को मार डाला. दोष देने के उनके खेल के कई तर्क हैं. यदि मोटरगाड़ियों के निर्माता अपनी बनायी सभी गाड़ियां नहीं बेच पा रहे हैं, तो सरकार दोषी है. यदि रियल्टी क्षेत्र के उद्यमी अपनी चीजें नहीं बेच पा रहे हैं, तो इसके लिए वे बैंक दोषी हैं, जो उनसे अपने उन ऋणों के भुगतान की मांग कर रहे हैं, जिनका उपयोग अन्यत्र कर लिया गया है. ऐसे आरोपों पर रोक लगनी चाहिए. यदि बिजली का उपभोग उसके उत्पादन के अनुरूप तेजी से नहीं बढ़ रहा है, तो उसके लिए सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. अगर शहरों के चमकदार मॉल आज खाली नजर आ रहे हैं, तो उसके लिए सरकार को गुनहगार नहीं बताया जा सकता. इसी तरह, यदि आज टेलीकॉम कंपनियां विशालकाय घाटे की चपेट में हैं, तो उसका दोष कम कीमतों के कनेक्शनों की बड़ी तादाद पर है. एक तरफ तो वे अपने उपभोक्ताओं की बड़ी संख्या को अपने सफल कारोबारी मॉडल का नतीजा बताते हैं, तो दूसरी ओर सरकार से यह उम्मीद करते हैं कि वह उन्हें स्पेक्ट्रम तथा अन्य कर राहत देते हुए उनकी ऊंची परिचालन लागतों पर सब्सिडी मुहैया करे.खेद की बात यह है कि भारतीय विकास की कहानी को हमेशा ही बाजारों तथा पैसे बनानेवालों के चश्मों से देखा गया है. सेंसेक्स की मनमानी चाल को आर्थिक स्वास्थ्य का संकेतक बताया जाता है, जबकि उसमें किसी भी गिरावट को स्वयं राज्य का ही पतन बता दिया जाता है. सट्टेबाज और प्रवर्तक शायद ही कभी नुकसान उठाते हैं, जबकि खुदरा निवेशकों की गाढ़ी कमाई के पैसे लुटते जाते हैं. बाजारों के सुधारों के 28 वर्ष बाद भी भारतीय आबादी का केवल दो प्रतिशत हिस्सा ही स्टॉक मार्केट में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भागीदारी कर सका है. आज भी उसमें तीन करोड़ से भी कम निवेशक ही सक्रिय हैं. उसका 90 प्रतिशत से भी अधिक कारोबार तो ऊंचे नेटवर्थ के व्यक्तियों, विदेशी संस्थागत निवेशकों एवं विदेशी निवेशकों द्वारा लगभग 100 सूचीबद्ध कंपनियों के साथ किया जाता है. चूंकि नकारात्मक भावना के माहौल में उन्हें बहुत नुकसान उठाना पड़ता है, इसलिए वे सरकार तथा अन्य एजेंसियों पर इस हेतु दबाव डालते हैं कि बैंक, छोटी बचत तथा यहां तक कि सरकारी स्वामित्व की बीमा कंपनियां बाजार को उठाएं. 
विडंबना है कि मांग में गिरावट के नतीजतन गिरती मुद्रास्फीति का इस्तेमाल कर आरबीआइ से ब्याज दरों में कमी करने की मांग की जाती है. उधर बैंक लघु बचत खाता धारकों की बचतों तथा सावधि जमा राशियों पर ब्याज दरें घटाते हुए उन्हें चपत लगाते हैं.ऐतिहासिक रूप से, बाजार के खिलाड़ियों ने सरकार के राजस्व से भी एक बड़ा हिस्सा हथियाने में सफलता पायी है. पिछले कुछ दशकों में उन्होंने भारत सरकार को बाध्य कर दिया है कि वह सीमांत तथा निर्धन वर्गों की सब्सिडी में बड़ी कटौतियां करे. ग्रामीण मांग गिरी हुई है, क्योंकि कृषि आय स्थिर है. ग्रामीण आबादी का 50 प्रतिशत हिस्सा जीडीपी का सिर्फ 15 प्रतिशत ही अर्जित करता है. विनिर्माण क्षेत्र, जिसका संगठित श्रमबल में बड़ा हिस्सा है, जीडीपी में केवल 17 प्रतिशत का ही योगदान करता है, जबकि उसका 58 प्रतिशत हिस्सा प्रौद्योगिकी पर्वताकारों, वित्तीय प्रवीणों तथा मनोरंजन मुगलों की सदारत में सेवा क्षेत्र ने हथिया रखा है. इन्होंने ही पिछले दो दशक में कृत्रिम 'एसएडी मॉडल' को आगे बढ़ाया है. विलासिता तथा देश-विदेशों में चल-अचल संपत्तियां इकट्ठी करने की उनकी भूख चरम पर है. जमीनी वास्तविकताओं से वाकिफ पीएम मोदी की अनेक कल्याणकारी योजनाओं ने निर्धन वर्गों के बहुलांश का आर्थिक एवं सामाजिक स्तर उठाया है, पर वक्त आ गया है कि वे मांग को भी ऊपर उठाने के कदम उठाएं. भारतीय विकास कथा का सातत्य अरबपतियों से अधिक लखपतियों के सृजन में निवास करता है. 


बदले हुए भारत का व्यवहार

बदले हुए भारत का व्यवहार
अवधेश कुमार 
वरिष्ठ पत्रकार
ऐसे मौके पर देश का ऐसा अद्भुत वातावरण, जिसमें हर व्यक्ति परोक्ष तौर पर एक-दूसरे का उत्साह बढ़ा रहा हो, पहले कभी नहीं देखा गया. हमारे यहां तो पड़ोसी से युद्ध के दौरान भी राजनीति हावी हो जाती है. देश के चरित्र की पहचान इसी से होती है कि कठिन परिस्थिति में सामूहिक प्रतिक्रिया कैसी हो रही है. इस मायने में भारत का सामूहिक चरित्र या तो उदासीनता का रहा है या फिर अतिवादी आलोचना और निंदा का. बहुत कम लोगों ने उम्मीद की थी कि रातभर चंद्रयान-2 मिशन की सफलता के लिए टीवी पर आंखे गड़ाये देश अंतिम समय लैंडर विक्रम के गायब हो जाने की तत्काल निराशाजनक स्थिति में इस तरह आशावादी होकर खड़ा हो जायेगा! मैंने इस बात को महसूस किया है कि जिस ढंग से लोग प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे थे, लगा ही नहीं कि चंद्रयान मिशन सफल नहीं हुआ है. अगर किसी ने एक नकारात्मक प्रतिक्रिया दे दी, तो उसके जवाब में दसों उत्साही प्रतिक्रिया सामने आती थी. भारत के परंपरागत चरित्र को देखते हुए यह अविश्वसनीय स्थिति थी. भारत में आये इस बदलाव की लोग अपने तरीके से व्याख्या कर रहे हैं. वर्तमान लोकतांत्रिक ढांचे में देश के चरित्र निर्माण में राजनीतिक नेतृत्व की सर्वोपरि भूमिका होती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हमारी भले कई मुद्दों पर असहमति हो, लेकिन भारत के राष्ट्रीय चरित्र को बदलने में उनकी ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. इससे तो कोई अंधविरोधी ही इनकार करेगा कि लैंडर विक्रम से ग्राउंड स्टेशन का संपर्क टूटने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह स्थिति को संभाला और वैज्ञानिकों का हौसला बढ़ाया, वह अतुलनीय था. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का मनोबल ऊंचा बना हुआ है. संगठन के प्रमुख डॉ के सिवन ने कहा है कि हम इससे (पीएम मोदी के संबोधन और पूरे देश की तरफ से इसरो को मिले समर्थन) बहुत खुश हैं. इससे हमारा मनोबल ऊंचा हुआ है. इसरो के वैज्ञानिकों को भी उम्मीद नहीं थी कि प्रधानमंत्री ऐसा कुछ करेंगे कि निराशा की स्थिति उत्साह में बदल जायेगी. इसे समझने के लिए प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों पर ध्यान दीजिए. उनका 36 घंटे का रूस दौरे का कार्यक्रम काफी व्यस्त था. रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमिर पुतिन से द्विपक्षीय बातचीत, प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत, फिर समझौते, साझा पत्रकार वार्ता, रूस के उस सुदूर पूर्व क्षेत्र की विकास परियोजनाओं के मॉडलों को देखना, पोत निर्माण कारखाने में जाना, जूडो प्रतियोगिता मंे अतिथि, इस्टर्न इकोनॉमिक समिट में मुख्य अतिथि, नेताओं से अलग-अलग द्विपक्षीय वार्ता और वहां से भारत वापसी. उसके बाद इसरो के केंद्र पहुंचकर बैठना.किसी ने मोदी के चेहरे पर थकान का भाव नहीं देखा. जैसे ही इसरो प्रमुख ने आकर उन्हें बताया कि विक्रम का संपर्क टूट गया है, उनको भी हमारी आपकी तरह धक्का जरूर लगा होगा. किंतु चेहरे पर कोई भाव नहीं. वैज्ञानिकों के बीच गये. एक छोटा भाषण दिया. माहौल बनाने की कोशिश की कि जीवन में सफलता-विफलता आती है. 
उन्होंने यहां तक कह दिया कि मैं आपके साथ हूं. ऐसे ही समय नेतृत्व की परीक्षा होती है. केवल इसरो के वैज्ञानिकों और कर्मियों को ही नहीं, पूरे देश के अंदर आत्मविश्वास पैदा करनेवाला जो भाषण था, उसकी उन्होंने तैयारी की होगी. उस भाषण और व्यवहार ने कुछ मिनट के अंदर देश का माहौल ही बदल दिया. उस समय देश को अपने नेता से ऐसे ही भूमिका की आवश्यकता थी. 
मोदी सरकार ने अपनी योजना से चंद्रयान-2 से पूरे देश को जोड़ दिया था. इसके प्रचार, इससे लोगों को जोड़ने, क्विज द्वारा छात्रों को जोड़ देने, समय-समय पर चर्चा और प्रचार-प्रसार से देश में यह मानसिकता पैदा करने की कोशिश हुई कि यह केवल वैज्ञानिकों और सरकार का नहीं, पूरे देश का अभियान है.इसकी सफलता से भारत और दुनिया को क्या-क्या प्राप्त हो सकता है, इसका भी बुद्धिमतापूर्वक प्रचार किया गया. इससे चंद्रयान मिशन की एक-एक घटना पर गांवों में भी उत्सुकता थी. कुल मिलाकर मोदी सरकार की रणनीति से देश में अभूतपर्वू वैज्ञानिक वातावरण बना था. नयी अर्थव्यवस्था के बाद हमारे युवक-युवतियों के अंदर कॉमर्स, एमबीए, सॉफ्टवेयर, हार्डबेयर का ज्ञान प्राप्त करने, व्यवसाय करने आदि की ओर ज्यादा आकर्षण है. विज्ञान को विज्ञान की तरह पढ़ने और वैज्ञानिक बनने का लक्ष्य रखनेवालों की संख्या घटती गयी है. इस अभियान के साथ वातावरण बदला है. नयी पीढ़ी के अंदर भी वैज्ञानिक बनने का भाव प्रबल हुआ है. इस तरह विज्ञान की ओर नयी पीढ़ी का आकर्षण तथा देश के सामूहिक आचरण में उल्लास, उत्साह और संकल्प का भाव निर्माण चंद्रयान-2 अभियान के ऐसे पहलू हैं, जिनके दूरगामी असर को नकारा नहीं जा सकता है. बगैर राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका के यह संभव नहीं है.आज एक नये आत्मविश्वास वाला और बदलता हुआ भारत है, जो अपने बेहतर भविष्य को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है. आर्थिक सुस्ती के बावजूद मोदी अपने भाषणों में देश को पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की चर्चा पूरा जोर देकर करते हैं और लोगों का समर्थन मिलता है. दुनिया की प्रतिक्रिया भी भारत के संदर्भ में ऐसी ही है. चंद्रयान-2 के संदर्भ में ही दुनिया के अंतरिक्ष संगठनों और मीडिया की टिप्पणियां देख लीजिये, तब आपको यह आभास हो जायेगा कि भारत के प्रति पूरा वैश्विक समुदाय का विश्वास कैसे बढ़ा है.


तेलंगाना का राजनीतिक वंशवाद

तेलंगाना का राजनीतिक वंशवाद
नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
बीते रविवार को तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने अपने मंत्रिमंडल में जिन छह नये मंत्रियों को शामिल किया, उनमें उनका बेटा केटी रामाराव और भतीजा टी हरीश राव, ये दोनों ही शामिल हैं. 
साल 2014 में बने तेलंगाना की पहली सरकार में राजनीतिक वंशवाद का यह नया रूप उसी साल सामने आ गया था. लेकिन 2018 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद चंद्रशेखर राव ने बेटे और भतीजे दोनों को मंत्रिमंडल से बाहर रखने का साहस दिखाया था. भाजपा की बढ़ती चुनौती का मुकाबला करने के लिए अब उन्हें यही राह सूझी कि बेटे-भतीजे को फिर से मंत्री बना दें. भारतीय राजनीति के लिए परिवारवाद अब कोई चैंकानेवाली बात नहीं रही. लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियां  पारिवारिक दल का रूप लेती जा रही हैं, हालांकि मुख्यमंत्री पिता की सरकार में बेटे-भतीजे के मंत्री बनने का संयोग इससे पहले नहीं बना. हां, 2009 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने अपने तेज-तर्रार और महत्वाकांक्षी बेटे स्टालिन को उप-मुख्यमंत्री बनाया था.मुख्य बात यह है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के मुखिया और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव भाजपा के बढ़ते कदमों से हैरान-परेशान हैं. वे किसी भी कीमत पर भाजपा को राज्य में पांव जमाने देना नहीं चाहते, जबकि वह बहुत सघन तरीके से वहां अपनी पैठ बनाने में लगी है. उनका नया कदम इसी रणनीति का हिस्सा है.भाजपा की अब जिन राज्यों पर निगाह है, उनमें पश्चिम बंगाल और तेलंगाना प्रमुख हैं. बंगाल में वह किस कदर आक्रामक ढंग से अपने पैर जमा रही है, उसका नजारा लोकसभा में दिख चुका. भाजपा ने बंगाल ही नहीं तृणमूल कांग्रेस में भी बड़ी सेंध लगा दी है. ओडिशा भी भाजपा के राडार पर है, लेकिन लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद वह विधानसभा चुनाव में नवीन पटनायक के किले में दरार नहीं डाल सकी थी. तेलंगाना में भाजपा दो कारणों से अपने लिए बेहतर संभावना देख रही है. एक तो वहां कांग्रेस और तेलुगु देशम दोनों ही बिल्कुल हाशिये पर चले गये हैं. सफाया तो इनका पड़ोसी आंध्र प्रदेश में भी हो गया, लेकिन वहां वाईएसआर कांग्रेस के रूप में बहुत तगड़ा प्रतिद्वंद्वी मौजूद है. 
तेलंगाना में कांग्रेस और तेलुगु देशम की जमीन छिन जाने के बाद टीएसआर के मुकाबले भाजपा ही बचती है. लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वहां चार सीटें जीतीं, जिनमें से तीन टीएसआर से छीनी थीं. 
टीआरएस को घेरने के लिए भाजपा कई मोर्चों पर काम कर रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में टीआरएस का कुछ सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिसे इत्तहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) से समझौता था. भाजपा इसे मुद्दा बनाकर तेलंगाना में हिंदू ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है. टीआरएस को मुसलमान समर्थक पार्टी के रूप में पेश करने की कोशिश हो रही है.
भाजपा की इस चाल को नाकामयाब करने के लिए टीआरएस ने तीन तलाक विधेयक पर राज्यसभा से बहिर्गमन करके उसे पास होने देने में मदद की और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करनेवाले विधेयक का समर्थन किया. उसका सहयोगी दल एआईएमआईएम इस कारण उससे बहुत खफा हुआ. उसने टीआरएस को सबक सिखाने की चेतावनी तक दी, लेकिन चंद्रशेखर राव भाजपा को यह अवसर नहीं देना चाहते कि वह उनकी पार्टी को मुस्लिम विरोधी प्रचारित करे. इस बीच भाजपा ने नया दांव चला. चंद्रशेखर राव ने दूसरी बार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद अपने बेटे और महत्वाकांक्षी भतीजे हरीश राव को पहली बार की तरह मंत्री नहीं बनाया. बेटे को उन्होंने पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर संतुष्ट कर दिया था, लेकिन भतीजा हरीश राव उपेक्षित ही रहा. प्रकट रूप में उसने विरोध नहीं जताया, लेकिन उसकी नाराजगी को भाजपा ने सार्वजनिक करना शुरू किया. यह प्रचार भी किया कि टीआरएस के कई नेता भाजपा के संपर्क में हैं. यह भाजपा की पुरानी रणनीति है. कई राज्यों में वह इसे आजमा चुकी है. पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री मोदी के यह कहने के बाद कि तृणमूल के चालीस विधायक हमारे संपर्क में हैं, ममता की पार्टी से भाजपा की ओर दल-बदल का सिलसिला शुरू हुआ था. ऐसे बयान के बाद चंद्रशेखर राव के कान खड़े होना स्वाभाविक था. भाजपा टीआरएस को घेरने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहती. इस बार वह 17 सितंबर को 'हैदराबाद मुक्ति दिवस' बड़े पैमाने पर मनाने जा रही है. यह भी प्रचारित कर रही है कि टीआरएस एआईएमआईएम की नाराजगी के डर से हैदराबाद दिवस नहीं मनाती. उल्लेखनीय है कि भारतीय फौज के हस्तक्षेप के बाद 17 सितंबर, 1948 को हैदराबाद का भारतीय संघ में विलय हो पाया था. आज तक किसी पार्टी ने हैदराबाद मुक्ति दिवस नहीं मनाया. भाजपा ने इसे बड़ा आयोजन बनाने के लिए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को हैदराबाद आमंत्रित किया है.अमित शाह तेलंगाना में बहुत दिलचस्पी ले रहे हैं. उन्होंने हाल में पार्टी का सदस्यता अभियान वहीं से शुरू किया और खुद भी हैदराबाद से सदस्यता ली. पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी 18 सितंबर को हैदराबाद जानेवाले हैं. पार्टी के राज्य नेता दावा कर रहे हैं कि उस दिन कई टीआरएस नेता भाजपा में शामिल हो जायेंगे. इस तरह घेराबंदी देखकर चंद्रशेखर राव ने मंत्रिमंडल विस्तार करके उन सबको संतुष्ट करना चाहा है, जिन्हें भाजपा अपनी तरफ खींच सकती थी. भतीजे हरीश राव को खुश करना सबसे ज्यादा जरूरी था. इस कोशिश में राजनीतिक वंशवाद का वह कीर्तिमान फिर बन गया, जिसे उन्होंने इस बार नहीं दोहराने का साहस दिखाया था.भाजपा के लगभग वर्चस्व और कांग्रेसी पराभव के इस दौर में क्षेत्रीय दलों का परिवारवाद भी विकल्पहीनता के लिए जिम्मेदार है. अधिकाधिक पारिवारिक होते हुए वे बिल्कुल 'बंद' और लोकतांत्रिक दल होते जा रहे हैं. कैसी विडंबना है कि इन दलों के बड़े संकट भी परिवार के भीतर से ही पैदा होते हैं. करुणानिधि, बाल ठाकरे, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव आदि के कभी ताकतवर रहे दल पारिवारिक लड़ाइयों से ही कमजोर हुए. राजनीति की नयी प्रतिभाओं के विकास के लिए भी क्षेत्रीय दलों का परिवारवाद कोई संभावना नहीं छोड़ता. अब कोई लालू, कोई मुलायम या कोई चंद्रशेखर राव पैदा हो तो कैसे? उनके अस्तित्व को खतरा भीतर से हो या बाहर से, तारणहार परिवार में ही तलाशा जाता है. तेलंगाना में भी यही हुआ है. 


शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

1991 से अब तक जनसंख्या मे लगातार गिरावट है जनसंख्या के आधार से 1991 से 2017 सबसे शानदार दशक 

1991 से अब तक जनसंख्या मे लगातार गिरावट है जनसंख्या के आधार से 1991 से 2017 सबसे शानदार दशक 


दहकती खबरें 
अंजुम खान 


दोस्तों हर जगह भीड़ देखकर लगता है की हमारी जनसंख्या कितनी बढ़ गई है पर ये भ्रम है हमारी जनसंख्या लगातार गिर रही है जी दोस्तों TFR यानी टोटल fertility रेट से पता लगाया जा सकता है की जो भारत मे महिला है वो कितने बच्चों को जन्म दे रही है क्या वह आबादी को ज़्यादा बड़ा रही है जो चाइल्ड baring age होती यानी वो उम्र जिस उम्र तक वह बच्चे पैदा कर सकती है फिलाल जो राष्ट्रीय औसत है वो 2.2 है यानी 2.2 बच्चे यानी अगर इसके हिसाब से देखा जाये तो sample रजिस्ट्रेशन सिस्टम जो है सरस् जो  भारत सरकार के अंतर्गत रजिस्टर जनरल ऑफ इंडिया के अंतर्गत आता है वह ये कह रहा है जो रिप्लेसमेंट रेट है यानि जितने व्यक्तियों की मौत हो जाती है और जितने नये बच्चों का जन्म होता है उनके बीच का अंतर बहुत कम है 2.2 नये बच्चों पैदा हो रहे है 2.1 जो रिप्लेसमेंट का रेट है1971 से 1981 तक 5.2 TFR से  4.5 पर हम आये 1991से 2017 का दशक जनसंख्या के अनुसार शानदार रहा 3.6 TFR से घट कर 2.2 तक आ गये बतया जारहा है 2001से 2011तक  अब तक का सबसे अच्छा समय रहा  अनपढ़ महिला का 2.9 tfr है पड़ी लिखी महिला 2.1 है ग्रेजुएट महिला का 1.4 है नेशनल औसत है 2.2 है इससे पता चलता है की यदि जनसंख्या को नियंत्रित करना चाहते है तो महिला की पढ़ाई मे धयान दे उनको कॉलेज जाने दीजिये उनको पड़ने दीजिये महिला सशक्तिकरण मे ज़ोर दीजिये उनको अपने पैरो मे खडे होने दीजिये इस समय सरस् 2017 का आकड़ा दर्शाता है TFR वो रूरल और अर्बन छेत्रो मे तेज़ी से कम हो रहा है और रिप्लेसमेंट लेवल जो है 2.1 यानी अगर 2.1 है तो जनसंख्या की नेट इनक्रीस नहीं हो रहा है वह स्टेबल जनसंख्या कहलाता है वह 19 राज्यों मे हमने हासिल कर लिया है अर्बन एरिया मे 2.1 के निचे है कुछ राज्यों मे आबादी 2.2 से ज़्यादा है वो राज्य है  बिहार 3.2 जो 2006 मे 4 पर थी इसमें भी कमी आयी है U.P  जो 2006 मे 4.1 था जो अब गिर के 3 पर आ गया है M.P  2006 मे 3.5 से गिर के 2.7 आ गया है राजस्थान 2006 मे 3.5 था अब 2.6 आ गया है ये आकड़ा 2016 तक है  अब 2019 है ये भी लगभग 2.1 के  करीब आ चूका होगा झारखण्ड 2..5 छत्तीसगढ़ 2.4 और  आसाम 2.3 है    और जो राज्य नेशनल एवरेज से कम है यानी 2.2से कम वह है  महाराष्ट्र 1.7 केरल 1.7 कर्नाटक 1.7 तमिलनाडु 1.6 वेस्ट बंगाल 1.6 अंधेरा प्रदेश 1.6 जम्मू कश्मीर  1.5 है यदि TFR  कम हो 2.1 से  जैसे की ऊपर है कई राज्यों के और आने वाले  दिनों मे बच्चे राज्यों के भी होंगे क्योंकि हमारी जनसंख्या बहुत तेज़ी से नियंत्रित हो रही है आकड़ो के अनुसार तो फिर आबादी घटने लगेगी तो फिर बुज़ुर्गो की तादाद बढ़ जाएगी जो एक बड़ी समस्या है क्युकी एक समय के बाद बुजुर्ग काम नहीं कर पाएंगे तो युवा लोग को उनकी देखभाल करना होता है तब बुजुर्गो की आबादी बढ़ जाएगी और युवा कम होंगे ये एक समस्या होंगी   2011मे भारत का TFR 2.5 था 2016  मे भारत का TFR 2.3 है 2016 मे भारत का ग्रामीण TFR  2.6 था शहर मे 1.8 था यानी एक जनरेशन मे हमारी आबादी बढ़ेगी नहीं कम होंगी यानी हमारी जनसंख्या बढ़ नहीं रही है 2016 मे 13 राज्यों मे TFR रेट रिप्लेसमेंट रेट से कम है यानी इन राज्यों मे आबादी बढ़ेगी नहीं  कम होगी बुजुर्गो की तादाद बढ़ेगी युवाओ की तादाद कम होंगी यदि हम शहर की जनसंख्या देखे तो 19 राज्यों मे TFR 2.1से कम है यानि इन राज्यों मे जनसंख्या कम होंगी
आबादी बढ़ने कीे अनुपात 1981 2.3 1991 2.0 2018 1.8 यानि की 2018 मे  सबसे कम हुआ है यानी इसको दुगना करना होगा तो 70 साल लगेगा आबादी बढ़ने का दर इतना कम तब हुआ जब आबादी पर कोई बात नहीं हुई इसका कारण जागरूकता और शिक्षा है जनसंख्या बढ़ने का दर् तेज़ी से से गिरना उल्टा पढ़ सकता है ये मे नहीं कहता इकोनॉमिक्स सर्वे भी कहता है सरकार का सर्वे कहता है TFR 2.1 से कम हो तो भी खतरा है   ये बात अक्सर होती है की हम चीन को जनसंख्या मे 2030 मे पीछे छोड़ देंगे तो इसका क्या मतला हुआ यदि हमारी जनसंख्या कम हो रही तो हम चीन को कैसे पीछे छोड़ देंगे ये भी सवाल उठता है ये सच है हम चीन को पीछे छोड़ देंगे पर इसका कतई या मतलब नहीं की हमारी जनसंख्या बढ़ रही है दरअसल क्योंकि चीन मे 1.7 से TFR कम हो रहा है और हम 1.9 से कम हो रहे है तो स्वाभाविक है चीन से हम आगे होंगे  चीन की जनसंख्या की हाईएस्ट पॉइंट 2030 मे होंगी जब उनकी जनसंख्या 140 करोड़ होंगी भारत का पीक पॉइंट मानना जाता है 2060 मे उस समय भारत की जनसंख्या 160 करोड़ होंगी यानी भारत चीन को हर हाल मे बीट करेगा   ये पहला सच है लेकिन दूसरा सच ये है की भारत ने बहुत तेज़ी से चीज़ो को कंट्रोल किया है क्या जनसंख्या रिलिजन के ज़रिये मैटर करती है या गरीबी या जीने का तरीका ग्रामीण या शहरी माने रखता है 2005 से 2016 मे जो स्तिथि है उनको समझने की कोशिश कीजिये तो जानेगे 2005 मे  हिन्दू 2.9 मुस्लिम 3.4 ईसाई 2.3 सिख 1.95 बुद्ध जिसमे दलित भी थे 2.5 जैन 1.54 थे लिकिन आज की तारिक मे हिन्दू घट कर 2.13 पर मुस्लिम घट कर 2.6 पर आ गए है अब हिन्दू मुस्लिम मे  . 5 का रेश्यो रह गया है हिन्दू  मुस्लिम का अंतर जो  1 का था वो तेज़ी से घटा है लगभग 23% की रफ़्तार से मुस्लिम मे बच्चों के जननऐ  मे कमी आयी है हिन्दू मे 17.8 की कमी आयी है बुद्ध मे 22.7% की कमी आई है या सरकार का डाटा बताता है मुस्लिम और दलितों मे जनसंख्या कम  होने की 2 वजह है एक आशिक्षा के सात रोज़गार का ना होना दूसरा आर्थिक बदहाली कही ज़्यादा है लेकिन बावजूद इसके हमारे यहा जो पड़ा लिखा   तपका है शहर का उप्पर क्लास उप्पर मिडिल क्लास मिडिल मिडिल क्लास उनका रेट 1.5 आता है 2011 से भारत की जनसंख्या कम होती है और आने वाले वक्त मे और कम होती चली जाएगी क्युकी हमारे यहा जो रेश्यो दिखेगा युवा तपका जो 15 से 34 वर्ष के है ये मैक्सिमम पर थे 2010 इनकी मौजूदगी 35.11% थी और जो भारत की जनसंख्या थी वह भी मैक्सिमम बढ़ती 2010-11 तक उसके बाद जनसंख्या का ढलान शुरू हो गया है अब घटने की स्तिथि है तो हम लोग उस पीरियड मे 1.5 के हिसाब से बढ़ रहे थे तो 2021 से 2031 के बीच मे 1% से भी निचे चले जायेगे


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