इस इकानॉमी के 5 ट्रिलियन्स में कई शून्य हैं
डॉ. दीपक पाचपोर
भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक वाचाल प्रवक्ता और नरेंद्र मोदी सरकार के सबसे बड़े जानकार संबित पात्रा को नहीं मालूम कि जिस 5 ट्रिलियन का चारों ओर शोर है उस ट्रिलियन में आखिर कितने शून्य लगते हैं। शायद यह किसी को नहीं मालूम। वैसे तो गणितशास्त्र की नजर से इसे जान लेना कोई बड़ी बात नहीं, न ही किसी सामान्य व्यक्ति के लिए वह बहुत जरूरी है। ज्यादा जरूरी बिलियन-ट्रिलियन की भाषावली में बनती मनोरम आर्थिक झांकी और उसके सहारे हमारे सत्ताधीशों की छवि गढ़ने वाली इकानॉमी की शून्यता में आम आदमी की भूमिका, योगदान, अधिकार और हिस्सेदारी को जानना है। दिलचस्प बात यह है कि अर्थव्यवस्था को विशालता के दृष्टिकोण से उस समय में बनाया जा रहा है जब हम महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाने जा रहे हैं। वे गांधी जो ऐसा विकेंद्रित अर्थतंत्र विकसित करना चाहते थे जो लोगों को और गांवों को स्वावलंबी व सशक्त बनाए। परिकल्पित 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था पूरे देश को ही कुछ लोगों की मुऋी में कैद करने की योजना पर खड़ी है। गांव तो हमारे इस बिंदु तक पहुंचने के पहले ही तबाह हो चुके हैं, लोगों की पूरी तबाही का इंतजार है।यह कोई निर्मूल आशंका नहीं बल्कि ऐसा सोचने के पर्याप्त कारण हैं। पिछले कुछ वर्षों से जारी गलत आर्थिक नीतियों के कारण और अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण मंदी का साया गहरा रहा है जो सरकार के लाख इंकार के बावजूद नंगी आंखों से दीख रहा है। उत्पादक व लाभकारी उपक्रम बंद हो रहे हैं या घाटे में जा रहे हैं, बेरोजगारी बढ़ रही है, उत्पादन कम हो रहा है, महंगाई बढ़ रही है और लोगों की खरीद क्षमता घट रही है। आटोमोबाईल, टेक्सटाईल, रीयल एस्टेट, अधोसंरचना जैसे सेक्टरों में बड़ी मंदी आ चुकी है और लोग निकाले जा चुके हैं। नोटबंदी और जीएसटी जैसे अदूरदर्शितापूर्ण निर्णयों से हमारे मध्यम व छोटे उद्योग तबाह हो चुके हैं। ग्रामोद्योग व कुटीर उद्योगों को कभी का हमारी वरीयता सूची से बाहर कर दिया गया है। विदेशी पूंजी निवेश और प्रशासकीय खर्च लगातार बढ़ रहा है। इच्छा मात्र करने से या कह देने से ही अगर सब कुछ हो जाता तो आप 5 ट्रिलियन तक ही क्यों रुक गये, 50 ट्रिलियन का ऐलान कर देते। कम से कम जनता की खुशी कई गुना बढ़ जाती। इस भारी-भरकम महत्वाकांक्षा का ब्लू प्रिंट या रोड मैप क्या है, कोई नहीं जानता। उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बंद होती औद्योगिक इकाइयों को लाभ में लाने के लिए आपके पास क्या योजना है, यह भी कभी स्पष्ट नहीं किया गया। अपने कामकाज व योजनाओं पर चुप्पी रखने में किसी कम्युनिस्ट शासन प्रणाली को भी मात करने वाली हमारी सरकार न तो स्पष्टीकरण देने में भरोसा करती है न ही उसे लोगों के प्रति जवाबदेही का एहसास है।यह पिछले कार्यकाल में तो साफ हो ही गया था, नए कार्यकाल में उसमें बहुमत का दंभ भी शामिल हो चुका है। फिर भी लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकार बताए कि उसकी योजनाओं में जनता की क्या भूमिका होगी, उसका योगदान कैसे मिलेगा, उनमें उनकी लाभ की हिस्सेदारी क्या होगी? ये सारे सवाल अनुत्तरित है। यह तो साफ दिख रहा है कि पिछले कुछ समय से उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हो रही जिसके कारण बड़े पैमाने पर बेरोजगारी बढ़ने से लोगों की उत्पादन में सहभागिता घट रही है और उनकी खरीद क्षमता काफी घटी है। यह इसी से पता चल रहा है कि बैंक से लोग कर्ज लेना तो दूर अपने खर्चों में कटौती कर रहे हैं। कालाधन बढ़ रहा है जो बताता है कि धन आम लोगों तक नहीं पहुंच रहा। अमेरिका व चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध की आंच भारत में महसूस की जाने लगी है। पेट्रोल-डीजल व रुपये की कीमतें आसमान छू रही हैं। सरकार को रिजर्व बैंक के पैसे निकालने की जरूरत तक आन पड़ी है। आंकड़ों की मनचाही प्रस्तुतियों से सरकार चाहे जो निष्कर्ष निकालकर जनता के समक्ष पेश कर दे पर घटते हुए रोजगार, गिरते उत्पादन और कम होती खपत किसी भी ऊर्ध्वमुखी इकानॉमी की पहचान नहीं होती। विदेशी पूंजी स्वचालित टेक्नालॉजी लाएगी जिससे रोजगार घटेंगे। सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं कि मोदी व उनकी वित्तमंत्री के पास ज्ञान नहीं। उन्हें आप न्यूसेंस वेल्यू या महत्वाकांक्षी बताकर खारिज तो कर सकते हैं पर उन्हें इनसे (पीएम-एफएम) अधिक ज्ञान है, यह तो मानना होगा। जब सत्ताधारी पार्टी के भीतर के सबसे बड़े अर्थशास्त्री को ही नेतृत्व की इस मामले में कुशलता व सामर्थ्य पर संदेह हो, तो सरकार किसके बूते हमारी अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन का आकार दे पाएगी? अगर हम वाकई इस दिशा में तरक्की कर रहे हैं तो सरकार वास्तविक आंकड़े पेश करे। फिलहाल तो सत्ताधारी लोग आंकड़ों को छिपाने या उनमें फेरफार करने में लिप्त पाए जा रहे हैं। लोकतंत्र में कहना पर्याप्त नहीं होता, आप कैसे करेंगे यह बताना भी जरूरी होता है। इन हालातों में आपकी 5 ट्रिलियन इकानॉमी की राह कैसे निकलेगी, यह बताना होगा। राष्ट्रवाद के नाम पर आप लोगों से आर्थिक नारे तो लगवा सकते हैं, जुलूस निकाल सकते हैं, विरोधियों को चुप करा सकते हैं पर लंबे समय तक लोगों को अंधेरे में नहीं रखा जा सकता क्योंकि सरकारी दफ्तर तो आंकड़ों को छिपा रहे थे पर विषम परिस्थितियां जो वास्तविक रूप में सामने आ रही हैं, उनसे यह तो साफ है कि यह योजना सरकार के अन्य जुमलों की तरह दम तोड़ देगी और अगर सरकार इस आंकड़े को हासिल कर भी लेती है तो यह सवाल वहीं का वहीं खड़ा मिलता है कि उस अर्थव्यवस्था में आम नागरिक का स्टेक क्या है। सूचनाओं पर रोक ने लोगों को अंधेरे में रखा है। लोगों को लंबे समय तक सत्य के उजाले से वंचित नहीं रखा जा सकता। वैसे जब तक लोगों की आंखें खुलेंगी, अंधेरा गहन ही नहीं स्थायी हो चुका रहेगा। गिने-चुने दो-चार के हाथों में पूरी आर्थिक व्यवस्था सिमटकर कैद हो जाती है, तो इस बहुप्रचारित व बहुप्रतीक्षित इकानॉमी का लाभ आम आदमी तक कैसे पहुंच पाएगा? क्या 125 करोड़ नागरिक गिनती के 25-50 बड़े उद्योगपतियों व व्यवसायियों की छोड़ी जूठन से पेट भरेंगे तथा इस विशाल इकानॉमी रूपी जलाशय के रिसाव से अपनी प्यास बुझाएंगे? उनमें पूंजी का वितरण कैसे होगा। गिने-चुने लोगों के पास एकत्र हो रहा पैसा लोगों तक कैसे पहुंचेगा? आकार महत्वपूर्ण नहीं है, देखना यह होगा कि क्या इस इकानॉमी में सबकी जरूरतों का पर्याप्त सामान है या नहीं? चाहे कम हो पर सबके लिए पर्याप्त हो।अगर ऐसा नहीं है तो यह महत्वाकांक्षा किसी व्यक्ति या दल की राजनैतिक कामना को तो पूरा कर सकेगी, सेठों की तिजोरियों को भी भर सकेगी, लोगों को झूठे गौरव से भी परिपूर्ण कर देगी लेकिन यह लोगों के लिए कोई स्थायी समाधान नहीं दे सकेगी और न ही टिकाऊ अर्थप्रणाली, जिसके आधार पर यह देश अपने नागरिकों को प्रगति के उपयुक्त अवसर प्रदान कर सके। सच तो यह है कि इस परिकल्पित इकानॉमी के 5 ट्रिलियन्स में आम आदमी के लिए अनगिनत शून्य हैं। कोई नहीं जानता कि 5 ट्रिलियन में कितने शून्य होते हैं और अगर इस अर्थव्यवस्था की विशालता का आशा स्थान कुछ चुनिंदा उद्योगपति, विदेशी पूंजी व विदेशी व्यवसायी ही हैं तो वह आपको एक शक्तिशाली बनने का ढोंग करने वाला राष्ट्र तो बना सकता है लेकिन वह खोखला व कमजोर देश होगा जहां बहुसंख्य भारतीय आर्थिक रूप से कुछ धन्ना सेठों व विदेशी लोगों पर निर्भर होंगे। यह एक स्वतंत्र व संप्रभु देश की आर्थिक गुलामी की दारूण कथा होगी।इस 5 ट्रिलियन इकानॉमी में भूखे, नंगे, बीमार, बेघर, अशिक्षित लोगों का जमावड़ा होगा और कुछ लोग सारे संसाधनों, अवसरों और उत्पादन प्रणाली पर कब्जा जमाये बैठे रहेंगे। हमारी सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक शक्तियां भी इस पूंजीवादी सूत्रधारों के इशारों पर उठक-बैठक करेंगी। बिना ठोस योजना के व नागरिकों की सहभागिता के बिना 5 ट्रिलियन का यह अपरिभाषित-अपरिचित सपना नागरिक के रूप में हमारे लोकतांत्रिक अवसान का ही मार्ग प्रशस्त न कर दे!
दहकती खबरें न्यूज चैनल व समाचार पत्र सम्पादक- सिराज अहमद सह सम्पादक - इम्तियाज अहमद समाचार पत्र का संक्षिप्त विवरण दैनिक दहकती खबरें समाचार पत्र राजधानी लखनऊ से प्रकाशित होता है । दैनिक दहकती खबरें समाचार पत्र भारत सरकार एवं राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त समाचार पत्र एवं उक्त समाचार पत्र का ही यह न्यूज़ पोर्टल है । निम्न नंबरों पर संपर्क कर सकते हैं या हमें ईमेल कर सकते हैं - 9044777902, 9369491542 dahaktikhabrain2011@gmail.com
गुरुवार, 19 सितंबर 2019
इस इकानॉमी के 5 ट्रिलियन्स में कई शून्य हैं
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