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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

प्रधानमंत्री जी, थोड़ा-सा भरम तो रहने दीजिए

प्रधानमंत्री जी, थोड़ा-सा भरम तो रहने दीजिए
कृष्ण प्रताप सिंह
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पांच साल की दूसरी पारी के सौ से कुछ ज्यादा ही दिन बीत गये हैं। इन्हें इस कसौटी पर कसे कि ये देश और देशवासियों पर कैसे बीते हैं, तो एक बयान में प्रधानमंत्री ने खुद कहा है कि इन गिनती के दिनों में वे देशवासियों को अपने श्संकल्पों (पड़े मन्सूबों) का ट्रेलर ही दिखा सके हैं और फिल्म अभी बाकी है। लेकिन इस ट्रेलर को उन निगाहों से देखें, जिनसे बटलोई के चावल देखे जाते हैं या लिफाफे को देखकर खत का मजमून समझ लिया जाता है तो नहीं लगता कि प्रधानमंत्री और उनकी जमातों की अपने घोषित-अघोषित एजेंडों को पूरा करने की हड़बड़ी को समझने के लिए बाकी फिल्म का इंतजार करने की जरूरत है। इसलिए भी कि देशवासी इन सौ से ज्यादा दिनों से पहले 1826 और दिन उनके शासन में रह चुके हैं और उन्हें इस सवाल के जवाब तक पहुंचने के लिए किसी बड़ी बौद्धिक कवायद नहीं करनी कि उन 1826 दिनों में लगातार किया जाता रहा पुनरुत्थान व पुरातन का यशोगान इन गिनती के दिनों में ही हमारे वर्तमान और भविष्य के ध्वंस की देहरी तक क्यों जा पहुंचा है? क्यों अब प्रधानमंत्री उन महानुभावों को भी गलत सिद्ध करने पर आमादा हैं, जिन्हें विश्वास था कि जैसे भी सही, उन्हें दोबारा जनादेश मिल गया है तो वे उसका सम्मान करेंगे और पुराने सबकों की सर्वथा अनदेखी के बजाय भूलों-चूकों को लेनी-देनी की तर्ज पर निपटाने की राह पकड़ेंगे?गौर कीजिए, पहली पारी में सबका साथ, सबका विकास के अपने नारे के प्रति देशवासियों का भरम बनाये रखने के लिए कहें या अपनों से मिलीभगत के तहत, प्रधानमंत्री कभी-कभी श्गोरक्षकों पर बरसते भी थे। तब वे उनकी गोरक्षा से जुड़ी कारस्तानियों को बदनीयत बताने की हद तक भी जाते और कहते थे कि गोली ही मारनी है तो मुझे मार दें, लेकिन मेरे दलित भाइयों को न मारें। राज्य सरकारों को गोरक्षकों के उत्पातों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने के निर्देश भी वे भिजवाते ही थे। ठीक है कि इस बात को राज्य सरकारें भी समझती थीं और गोरक्षक भी कि उन्हें प्रधानमंत्री के कहे से कोई सबक लेने या उसे सबक की तरह याद रखने की जरूरत नहीं है क्योंकि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की सत्ता दांव पर लगी हो तो प्रधानमंत्री खुद भी हिन्दू-मुसलमान और कब्रिस्तान-श्मशान करने लग जाते थे। गत लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने इस तरह के कुछ पंैतरे कम नहीं भांजे थे। फिर भी उन दिनों कई लोगों के लिए विश्वास करना कठिन था कि प्रधानमंत्री के विकास के महानाय के आसन से उतरने की एक दिन वैसी परिणति हो जायेगी, जैसी गत बुधवार को मथुरा में हुई। वहां स्वच्छता ही सेवा अभियान का आरंभ करते हुए उन्होंने अपना पक्ष चुनने में न सिर्फ अपनी जमात के कट्टरपंथी नेताओं को पीछे छोड़ दिया, बल्कि अपने प्रधानमंत्रित्व को लेकर सारे भ्रम तोड़ डाले। उन्होंने कहा कि देश में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें गाय और ओम शब्द सुनते ही करेंट लग जाता है और उनके कान व बाल खड़े हो जाते हैं। उन पर तंज कसते हुए वे यह कहने से भी नहीं चूके कि ऐसे लोगों के ज्ञान ने ही देश को बरबाद कर रखा है। सोचिये जरा, प्रधानमंत्री खुद ऐसे कुछ लोगों के खिलाफ, यह भूलकर कि उनके प्रधानमंत्री भी वही हैं और प्रधानमंत्री के आसन पर रहते हुए उनमें असुरक्षा का भाव पैदा करने वाले किसी भी तरह के वैर, हिकारत या गैरबराबरी का पोषण उन्हें शोभा नहीं देता,  ऐसी घृणा का प्रसार करने लगें, तो उनके हिन्दुत्व के सिपहसालारों को, जो अपनी इस मान्यता को छिपाते भी नहीं कि उनके लिए गाय का जीवन मनुष्य के जीवन से भी ज्यादा पवित्र है, किसी और हौसला अफजाई की क्या जरूरत? वैसे, यह भी इन्हीं गिनती के दिनों के ही खाते में है कि अब प्रधानमंत्री अपने इस श्दृष्टिकोण के पक्ष में खुलकर खड़े होने में कतई नहीं शरमाते कि उन्हें मॉब लिंचिंग की घटनाओं को लेकर उतनी चिंता नहीं है, जितनी इसकी कि लिंचिंग का शोर मचाकर उनकी और राज्य सरकारों की बदनामी कराई जा रही है। झारखंड में हुई मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर नई लोकसभा के पहले ही सत्र में उन्होंने जो कुछ कहा, वह इसकी ताईद करता है। उनके इस दृष्टिकोण के नये विस्तार कश्मीर घाटी के लोगों की महीने भर से ज्यादा पुरानी हो चली कैद में ही नहीं, भारी जुर्माने वाले मोटर व्हीकल एक्ट को लागू करने में नागरिकों के प्रति अपनाई जा रही बेदर्दी में भी देखे जा सकते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से लेकर परिवहन मंत्री नितिन गडकरी तक कह रहे हैं कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं, आम लोगों की जानों की सुरक्षा की बड़ी फिक्र के ही तहत ही कर रहे हैं। घाटी के लोगों को संचार सुविधाओं तक से महरूम कर देने के पीछे भी आम लोगों की जानों की हिफाजत ही उनका सबसे बड़ा तर्क है और सड़क कानून तोड़ने पर भारी जुर्माना थोपने के पीछे भी, तो उसका इसके सिवा और क्या मतलब निकाला जा सकता है कि अब देश में लोगों की जानें या तो कैद में सुरक्षित रहेंगी या भारी जुर्माने की बदौलत और स्वतंत्रता व जागरूकता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों के तकाजों से उनका का कोई मतलब नहीं होगा। इस बात को असम में एनआरसी के हड़बोंग तक ले जायें तो भी उससे बाहर रह गये लोगों और उनके लिए बने डिटेंशन सेंटरों में फैला खौ$फ इस मतलब को बदलने नहीं देता। लेकिन बात यहीं तक होती तो भी गनीमत थी। लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा दिखाये जा रहे फाइव ट्रिलियन डालर वाली अर्थव्यवस्था के हसीन सब्जबाग के बीच वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को यह मानना तक गवारा नहीं कि देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले आटोमोबाइल सेक्टर की बदहाली के पीछे मंदी जैसा कोई चिंताजनक संकेत है। उनके अनुसार यह बदहाली मिलेनियल्स की आदतों में बदलाव का करिश्मा भर है, जो ओला और उबर जैसी कैब सर्विसों की बदौलत आया है। इससे पहले कि कोई उनसे पूछता कि अगर ओला व उबर जैसी सेवाएं हमें ऐसी बदहाली की सौगात ही दे रही हैं तो वे किसकी अनुकम्पा से देश में बनी हुई हैं और ऐसे में फाइव ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था कैसे बनेगी, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने यह कहकर लोगों को इसके हिसाब-किताब में पड़ने से मना कर दिया कि आइन्स्टीन ऐसे हिसाब-किताब में पड़ते तो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज ही नहीं पाते! बाद में उन्होंने इसकी सफाई दी तो भी अपने कहे की लीपापोती ही करते रहे। इतना भी स्वीकार नहीं कर पाये कि उनके मुंह से गलती से न्यूटन की जगह आइंस्टीन निकल गया था और गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत वास्तव में न्यूटन ने खोजा था। बहरहाल, उनकी इस विद्वता ने कई लोगों को एक वाकया (चुटकुला नहीं) याद दिला दिया। किसानों के कल्याण की कामना में दुबले हुए जा रहे पीयूष गोयल जैसे ही एक नेता एक किसान के खेत में लहलहाती फसल देखकर उस पर भड़कते हुए बोले, बार-बार समझाने के बावजूद तुम लोग उन्नत बीज नहीं बोते। बोते तो इस खेत से तुम्हें गेहू की बेहतर उपज मिल सकती थी। किसान ने कहा, हुजूर, गुस्ताखी माफ हो। इस खेत से गेहू की बदतर या बेहतर कोई भी उपज कैसे मिल सकती है, जब मैंने इसमें गेहूं बोया ही नहीं। इसमें जो पौधे आप देख रहे हैं, गेहू के नहीं, जौ के हैं। इसके बावजूद नेता ने किसान के आईने में अपनी शक्ल नहीं देखी। अपने बर्ताव से उसका यह श्भरम भी तोड़ दिया कि अगली बार उसका कल्याण करने आयेगा तो जौ और गेहूं का फर्क समझने की तमीज सीखकर आयेगा। अफसोस कि न सिर्फ वाणिज्यमंत्री बल्कि परिवहन मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से लेकर प्रधानमंत्री तक इन दिनों उस नेता जैसा ही बर्ताव करते दिखाई दे रहे हैं। वे देश का थोड़ा सा भी भरम बना रहने देते तो उनके ये सौ से ज्यादा दिन देशवासियों को सास के नहीं लगते। लेकिन कैसे रहने दें? कर्ण को जेनेटिक साइंस और गणेश को प्लास्टिक सर्जरी की मिसाल बताकर वे पुरातन का जैसा पुनरुत्थान चाहते थे, उसका लक्ष्य मोरनियों को मोरों के आंसू पीकर गर्भवती कराने के बावजूद हासिल नहीं कर पाये हैं। स्वाभाविक ही, वे हड़बड़ी में हैं और उनकी हड़बड़ी उन्हें इतनी भी इजाजत नहीं दे रही कि हमारे वर्तमान और भविष्य से खेल करने से परहेज रख सकें।


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