करतारपुर के बहाने अमन की बात
भवदीप कांग
करतारपुर कॉरिडोर को भारत और पाकिस्तान के मध्य श्शांति के मार्ग के रूप में निरूपित किया जा रहा है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले अनुच्छेद 370 को भारत सरकार द्वारा निष्प्रभावी किए जाने के बाद दोनों देशों के बीच तनाव चरम पर है और ऐसे में इस परियोजना का महत्व कहीं ज्यादा बढ़ गया है। वास्तव में, दोनों देशों के मध्य फिलहाल संवाद की यही एक कड़ी बची है, क्योंकि पाकिस्तान पहले ही बौखलाहट में भारत से राजनयिक संबंधों को काफी हद तक घटा चुका है और रेल व बस सेवा को रोकने के अलावा उसने आपसी कारोबार को भी बंद कर दिया है।
ऐसे माहौल में बीते बुधवार को अटारी सीमा पर दोनों देशों के बीच करतारपुर कॉरिडोर (जो डेरा बाबा नानक को पाकिस्तान में स्थित गुरुद्वारा दरबार साहिब से जोड़ेगा) को लेकर तीसरे दौर की वार्ता हुई। इसमें कोई अंतिम सहमति तो नहीं बन सकी, चूंकि पाकिस्तान हरेक सिख श्रद्धालु से 20 डॉलर फीस लेने पर अड़ गया और साथ ही साथ उसने श्रद्धालुओं की सहायता के लिए भारतीय प्रोटोकॉल अधिकारी की इजाजत देने से भी इनकार कर दिया। फिर भी अच्छी खबर यह है कि मुख्य मसले सुलझ गए हैं। यह कॉरिडोर सालभर खुला रहेगा और रोज 5000 सिख श्रद्धालु बगैर वीजा के करतारपुर साहिब तक जा सकेंगे। इसके साथ यह भी तय हुआ कि भारत और पाकिस्तान मिलकर रावी नदी के दोनों ओर पुल बनाएंगे और पाकिस्तान लंगर व प्रसाद वितरण के लिए जरूरी व्यवस्थाएं करेगा। पाकिस्तान ने इस कॉरिडोर को गुरु नानक जी के 550वें प्रकाश पर्व (जो 12 नवंबर को आ रहा है) से पूर्व खोलने का वादा किया है। एक अस्थायी सड़क बनाई जाएगी, ताकि निर्धारित समयसीमा का पालन हो सके। इस संदर्भ में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने मंगलवार को कहा कि यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम बाहर से आने वाले सिख श्रद्धालुओं को हरसंभव सुविधाएं मुहैया कराएं। उन्होंने ऑन-अराइवल वीजा देने का वादा किया और कहा- श्करतारपुर सिखों का मदीना है और ननकाना साहिब मक्का है। हम (मुस्लिम) किसी को मक्का या मदीना से दूर करने की कल्पना भी नहीं कर सकते। यहां पर यह समझना होगा कि इमरान ने यह वादा इसलिए नहीं किया कि उन्हें सिख समुदाय की फिक्र है या वे सिखों की धार्मिक भावनाओं का आदर करते हैं। ऐसा तो उन्होंने पाकिस्तान की छवि सुधारने की कोशिश के तहत किया, जो सिख लड़कियों के अपहरण, जबरन धर्मांतरण और निकाह की हालिया घटनाओं के चलते काफी कलंकित हो चुकी है। वैश्विक समुदाय को इस बारे में कोई भ्रम नहीं कि पाकिस्तानी सत्तातंत्र का अपने यहां के सिखों (या कहें कि समूचे अल्पसंख्यक समुदाय) के प्रति कैसा रवैया है। यदि सिख समुदाय की ही बात करें तो इस संदर्भ में पाकिस्तान का मानवाधिकार रिकॉर्ड हैरान करने वाला है। पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक वहां सिख समुदाय तेजी से घट रहा है। बीस साल पहले पाकिस्तान में 40,000 सिख मौजूद थे, जो अब घटकर महज 8000 रह गए। इनमें अफगानिस्तान से आए सिख शरणार्थी भी शामिल हैं। आखिर बाकी सब कहां गायब हो गए? सिखों के तेजी से घटते आंकड़ों की एक ही वजह हो सकती है- जबरन धर्मांतरण। पाकिस्तान के सशस्त्र बलों और सरकार में सिखों का प्रतिनिधित्व नगण्य है (मेजर हरचरण सिंह ऐसे पहले सिख थे, जो वर्ष 2007 में पाकिस्तानी सैन्य अफसर बने)। इसके बावजूद पाकिस्तान अपनी छोटी-सी सिख आबादी को खालिस्तान के नारों को हवा देने के लिए इस्तेमाल करने बाज नहीं आता। इसकी हालिया मिसाल एक पाकिस्तानी सिख लीडर का वह वीडियो है, जिसमें वह तमाम सिखों से कश्मीर पर पाकिस्तानी रुख का समर्थन करने और अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का विरोध करने की अपील कर रहा है। ये पाकिस्तान के हताश-निरर्थक प्रयास हैं, क्योंकि खालिस्तानी भावनाएं तो कब की दफ्न हो चुकीं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह कट्टर राष्ट्रवादी शख्स हैं, जो जंग में भी हिस्सा ले चुके हैं। वे असंतुष्टों को एक इंच भी जगह देना गवारा नहीं कर सकते। पर वे एक सिख भी हैं और इस नाते इस बात को लेकर बेहद उत्सुक हैं कि करतारपुर कॉरिडोर इस साल गुरुपर्व (12 नवंबर) तक बनकर तैयार हो जाए। गौरतलब है कि भारत-पाकिस्तान का विभाजन करने वाली रेडक्लिफ रेखा ने गुरुनानक की जन्मस्थली ननकाना साहिब और उनके अंतिम दिनों का ठिकाना रहे करतारपुर के दरबार साहिब को भारत से जुदा कर दिया। सरहद से महज 4-5 किमी की दूरी पर स्थित गुरुद्वारा भारत से भी साफ नजर आता है। बीएसएफ ने तो इसके लिए दस फुट ऊंचा एक चबूतरा भी तैयार किया है, जिस पर चढ़कर श्रद्धालु इसके दर्शन कर सकते हैं। 1960 के दशक में जमीन की अदला-बदली की बात भी चली थी, ताकि करतारपुर भारत का हिस्सा बन सके, पर दोनों देशों में तनाव बढ़ने के कारण यह विचार ठंडे बस्ते में चला गया।
बहरहाल, करतारपुर कॉरिडोर बनाने का विचार सबसे पहले वर्ष 1999 में पेश किया गया था, जब अटल बिहारी वाजपेयी बस से लाहौर गए थे, लेकिन पिछले साल जाकर ही इसकी नींव डल पाई। यह प्रस्तावित गलियारा भले ही महज 6 किमी का हो, लेकिन इसका महत्व भौगोलिक दायरों से कहीं बढ़कर है। इस कॉरिडोर परियोजना के बहाने पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय समुदाय के समक्ष यह दिखाना चाहता है कि वह भारत से संबंध सामान्य करने की दिशा में पहला कदम आगे बढ़ाने की सियासी मंशा रखता है। हालांकि उसे यह एहसास हो चुका है कि वह भारत से कोई सौदेबाजी करने या किसी तरह की रियायत पाने के लिए कॉरिडोर का इस्तेमाल नहीं कर सकता। भारतीय पक्ष ने यह साफ कर दिया कि पाकिस्तानी जमीन से आतंकवाद का निर्यात पूरी तरह रुकने के बाद ही द्विपक्षीय संवाद की राह खुल सकती है। भारत ने कश्मीर को अपना श्अंदरूनी मामला करार देते हुए इस पर किसी भी तरह की बातचीत से स्पष्ट इनकार किया है। भारत सरकार का करतारपुर कॉरिडोर पर बातचीत को द्विपक्षीय संवाद के दायरे से अलग रखने का रवैया बार-बार सही साबित हुआ है। पाकिस्तान एक ओर तो करतारपुर पर बातचीत करता है, तो दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले होते हैं। बीते बुधवार को भी जहां अटारी में करतारपुर को लेकर दोनों पक्षों में बातचीत चल रही थी, वहीं लंदन में पाकिस्तानी प्रदर्शनकारी भारतीय दूतावास को घेरते हुए नारेबाजी कर रहे थे, यातायात अवरुद्ध कर रहे थे और खिड़कियों के कांच फोड़ रहे थे। यह स्पष्टतरू पाकिस्तान का दोगला रवैया है और भारत इसके झांसे में नहीं आने वाला। पाकिस्तान कश्मीर मसले पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन जुटाने में नाकाम रहते हुए लगभग पूरी तरह अलग-थलग पड़ चुका है। तमाम देश इस पर सहमत हैं कि ये भारत का अंदरूनी मामला है। यदि इमरान खान अक्ल से काम लें तो वे धार्मिक कूटनीति का इस्तेमाल शांति की दिशा में कदम बढ़ाने और संबंध सुधार के प्रति गंभीरता दर्शाने के रूप में कर सकते हैं। गौरतलब है कि भारत और पाकिस्तान, दोनों ही परमाणु शक्ति-संपन्न् देश हैं, जिनके मध्य छोटी-बड़ी लड़ाइयों, गहरे असंतोष और अविश्वास का स्याह इतिहास रहा है। करतारपुर कॉरिडोर एक ऐसा अहम पड़ाव बन सकता है, जहां से दोनों देशों के मध्य संबंध सुधार की नई राह खुले। पाकिस्तान इसका लाभ उठाए तो बेहतर है।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं)
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माया का बदलता सियासी रुख
प्रदीप सिंह
देश और राजनीतिक दलों के इतिहास में कभी-कभी किसी बड़ी घटना के साथ होने वाली सामान्य-सी घटना बड़े बदलाव की नींव रख देती है। संसद के दोनों सदनों में जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन करने और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने के प्रस्तावों का बहुजन समाज पार्टी ने समर्थन किया। सुनने में यह बात बहुत सामान्य-सी लगती है, क्योंकि कई अन्य विपक्षी दलों ने भी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया, लेकिन मायावती के इस फैसले से देश की राजनीति को एक नई दिशा में ले जाने की विपक्षी दलों की कोशिश को बड़ा झटका लगा। वह दिशा है, देश में दलित-मुस्लिम समीकरण की नई राजनीति गढ़ने की। मायावती का दलित जनाधार कितना भी कम हो गया हो, लेकिन वह आज भी देश में दलित समाज की सबसे बड़ी नेता हैं। कश्मीर मुद्दे पर राज्यसभा में सत्तारूढ़ दल को मिले इतने बड़े (दो तिहाई) समर्थन से विपक्षी दलों को जितना बड़ा झटका लगा, उससे बड़ा धक्का मायावती के रुख से लगा। मायावती वहीं नहीं रुकीं। उन्होंने बाकायदा इसे अपनी पार्टी की विचारधारा और बाबासाहब डा. भीमराव आंबेडकर के विचारों से जोड़कर व्यापक आयाम दिया। उन्होंने कहा कि बाबासाहब शुरू से ही जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के खिलाफ थे। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबासाहब ने जम्मू-कश्मीर के लिए इस विशेष प्रावधान का न केवल ड्राफ्ट तैयार करने से मना कर दिया था, बल्कि जब अपने राजनीतिक दल रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया तो उसके घोषणा पत्र में अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने की बात लिखी। बहुत से लोगों को लग रहा है कि बसपा मुखिया आजकल कुछ बदली-बदली नजर आ रही हैं, लेकिन मायावती के रुख में आया बदलाव राजनीतिक संस्कृति के लिहाज से सुखद अनुभूति देने वाला है, क्योंकि आज राष्ट्रीय और सामाजिक हित को तरजीह देने की राजनीतिक संस्कृति विलुप्त सी होती जा रही है। मुद्दा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का हो, विपक्षी नेताओं के श्रीनगर जाने के विरोध का हो या दिल्ली में रविदास मंदिर पर हुए प्रदर्शन का समर्थन न करने का हो या फिर पार्टी मंच पर अपने परिजनों को नहीं बैठाने का हो- इन सभी बातों से मायावती एक बदलाव का संकेत दे रही हैं। सवाल है कि इस बदलाव के जरिए वह अपनी राजनीति को किस नई दिशा में ले जाना चाहती हैं? दिशा और दशा कोई भी हो, लेकिन उनका आत्मविश्वास गजब का है। मायावती के पास इस बात का विकल्प था कि वह कश्मीर मुद्दे पर भ्रमित करने वाला रुख अख्तियार कर लेतीं, ताकि यह लगता कि वह समर्थन भी कर रही हैं और विरोध भी। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यही करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें न खुदा मिला और न ही विसाले सनम। इस कदम से बसपा प्रमुख ने एक बार फिर बताया कि वह आंबेडकर और कांशीराम की उस परंपरा की वास्तविक वारिस हैं, जिसमें मुद्दों पर साफगोई से कोई समझौता नहीं किया जाता। बाबासाहब हों या कांशीराम, इन दोनों ने कभी मुस्लिम तुष्टीकरण का प्रयास नहीं किया। इस देश में किसी पार्टी के किसी नेता ने सार्वजनिक मंच से जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी के बारे में यह कहने का साहस नहीं किया कि श्बुखारी का बुखार तो मैं उतारूंगा। कांशीराम ने लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क की जनसभा में यह बात तब कही थी, जब बुखारी का जलवा कायम था। पिछले कई सालों से देश की राजनीति में दलित-मुस्लिम समीकरण बनाने की कोशिश हो रही है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी ने जय मीम-जय भीम का नारा दिया था। साल 2019 के चुनावों में भी अखिलेश यादव से लेकर कांग्रेस तक तमाम विपक्षी दलों ने इस राजनीतिक समीकरण को उभारने की कोशिश की। उन्हें लगता है कि हिंदू एकता को तोड़ने और भाजपा को परास्त करने का यही सबसे कारगर औजार है। इसलिए चुनाव के दौरान इन पार्टियों और खासतौर से इनके समर्थक बुद्धिजीवियों की ओर से विभिन्न् राज्यों व चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं के आंकड़े देते समय यह बताया जाता था कि इतने हिंदू, इतने मुसलमान और इतने फीसदी दलितध्आदिवासी मतदाता हैं। जैसे दलित, आदिवासी हिंदू धर्म की बजाय किसी और धर्म के अनुयायी हों। मायावती के एक कदम ने इस नई राजनीतिक धुरी बनाने के प्रयासों को पलीता लगा दिया। इस संभावित धुरी के केंद्र में मायावती ही हो सकती थीं। उनका एक बयान इस धुरी को हकीकत बनाने की दिशा में ले जा सकता था। हालांकि तुलना बेमानी है और यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि मायावती का यह भाव स्थायी रहेगा, लेकिन यदि उनके रुख में निरंतरता बनी रहती है तो कभी न कभी मायावती के इस रुख की तुलना बाबासाहब के हिंदू धर्म छोड़ करके इस्लाम या ईसाई धर्म न ग्रहण करने के कदम से होगी। दलित-मुस्लिम गठजोड़ की धुरी मायावती को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में ला सकती थी, लेकिन यह दूसरी बार हो रहा है कि किसी दलित नेता ने हिंदू एकता को तोड़ने के प्रयास से परहेज किया। कुछ लोग कह सकते हैं कि मायावती यह सब मोदी सरकार के दबाव में कर रही हैं। ऐसे लोगों को याद दिलाना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में जब बसपा-भाजपा की पहली सरकार बनी तो मायावती ने न केवल ज्यादातर अहम विभाग भाजपा को दिए, बल्कि विभागों के वितरण में जरा भी देर नहीं लगाई। इससे भी बड़ी बात यह कि वह 2002 के गुजरात दंगे के बाद विधानसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में प्रचार करने चली गईं। मायावती ने यह निर्भीकता बाबासाहब और कांशीराम से सीखी है, लेकिन एक सवाल है जिसका जवाब अभी मिलना बाकी है। मायावती यह ऐसे समय कर रही हैं जब उनका गैर दलित ही नहीं, गैर जाटव दलित भी मोदी-शाह की राजनीति ने तोड़ लिया है। इतना ही नहीं, दलित राजनीति में भी कई तरह के आंतरिक संघर्ष चल रहे हैं। प्रकाश आंबेडकर, जिग्नेश मेवानी और चंद्रशेखर जैसे दलित नेता उनके लिए मुश्किल का सबब बनते रहे हैं। हाल में दिल्ली में संत रविदास का मंदिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से तोड़े जाने पर भारी प्रदर्शन हुआ। संत रविदास दलितों में भगवान की तरह पूजे जाते हैं। इस प्रदर्शन में चंद्रशेखर की प्रमुख भूमिका थी। इस मुद्दे पर भी मायावती ने एक परिपक्व नेता की तरह ऐसे प्रदर्शनों की राजनीति का विरोध किया। वह आसानी से इस मुद्दे को ढाल बनाकर राजनीतिक लाभ उठा सकती थीं, लेकिन उन्हें पता है कि ऐसे आंदोलनों के समर्थन से दूसरे समाज के लोगों को जोड़ने में मदद नहीं मिलेगी। यह भी उन्होंने कांशीराम से ही सीखा है। उत्तर प्रदेश में पहली बार सरकार बनते ही कांशीराम ने डीएस-फोर और बामसेफ को भंग कर दिया था, क्योंकि सत्ता की राजनीति के लिए दलित समाज के अलावा दूसरे वर्गों का भी समर्थन चाहिए था। क्या मायावती की नई राह उन्हें दूसरे वर्गों का समर्थन दिलाएगी? डगर कठिन है और संघर्ष लंबा।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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गुरुवार, 12 सितंबर 2019
करतारपुर के बहाने अमन की बात
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