आर्थिक सुधारों से ही बदलेगी तस्वीर
जीएन वाजपेयी
वर्ष 2014 के आम चुनाव में भाजपा श्सबका साथ, सबका विकास के जिस नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी थी, वह कारगर रहा। इस नारे ने मतदाताओं के मानस को कुछ इस कदर प्रभावित किया कि भाजपा लोकसभा की 282 सीटें जीत गई। फिर आया 2019 का चुनाव, जिसमें श्मोदी है तो मुमकिन है नारे ने असर दिखाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछली बार से भी बड़ी सफलता हासिल करते हुए 303 सीटों के साथ सत्ता में वापस लौटे। 2019 के चुनाव में जीत के बाद भाजपा मुख्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने सबका साथ, सबका विकास नारे में सबका विश्वास और जोड़ दिया। इस नए जुड़ाव के साथ उन्होंने राजनीतिक विमर्श को जो नई दिशा दी, उस पर बहुत ज्यादा टीकाकारों ने गौर नहीं किया। यदि इसकी गहराई से पड़ताल की जाए तो मालूम पड़ेगा कि मोदी एक आम नेता से राजनेता यानी स्टेट्समैन बनने की ओर बढ़ रहे हैं। एक नेता वही होता है, जो अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसी एक तबके के हितों से खिलवाड़ कर सकता है। जबकि राजनेता आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए अपने मूल्यों पर अडिग रहता है। याद करें कि जब पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने कश्मीर पर भारत का पक्ष रखने के लिए तब विपक्ष में नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भेजने का फैसला किया। दलगत भावना से परे लिए गए नरसिंह राव के इस फैसले को अक्सर स्टेट्समैनशिप की मिसाल बताया जाता है।
2019 के चुनाव में भाजपा को 37.4 प्रतिशत मत हासिल हुए। इसका अर्थ है कि 62.6 फीसदी मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व पर भरोसा नहीं जताया। ऐसे में वह महज समर्थन और वृद्धि से बढ़कर अपने दर्शन को बदलते हुए सबका विश्वास जीतने में जुटे हैं। यह एक विचारणीय बदलाव है। वह सभी का विश्वास अर्जित कर देश के सर्वमान्य नेता बनना चाहते हैं, जिसका अर्थ यही है कि वह दलगत राजनीति से परे जाकर नया मुकाम हासिल करने के इच्छुक हैं। अपने पहले कार्यकाल में उन पर आरोप लगे कि कथित गोरक्षकों की शरारती गतिविधियों पर उन्होंने या तो प्रतिक्रिया ही नहीं दी या फिर बहुत देर से ऐसा किया। 2019 के जनादेश के बाद उन्होंने ऐसे किसी भी वाकये पर त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है और यहां तक कि संसद में बयान भी दिया। कहने का अर्थ यह नहीं कि ऐसी अप्रिय घटनाओं पर उन्हें पहले जरा भी दर्द महसूस नहीं हुआ, लेकिन अब यह और स्पष्ट है कि वह भारत का भरोसा हासिल करने के लिए अतिरिक्त प्रयास कर रहे हैं। इसी सिलसिले में 30 अगस्त को कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने हिदायत दी कि वे संवाद और आलोचना के दौरान मर्यादा और शालीनता का परिचय दें। भारत एक जीवंत एवं गतिशील लोकतंत्र है। फिर भी मोदी सरकार के कट्टर आलोचक अलग ही राग अलाप रहे हैं। उनमें से कुछ यहां तक कह रहे हैं कि लोकतंत्र की मूल भावना के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। उनके ऐसे दावों की पड़ताल के लिए कोई भी भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव जैसे पैमानों पर दुनिया के सबसे परिपक्व लोकतंत्रों के साथ इसकी तुलना कर सकता है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाए जाने के खिलाफ दायर याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार करना स्वतंत्र न्यायपालिका की ताजा मिसाल है। स्वतंत्र न्यायपालिका अपने विवेक से कार्यपालिका की गतिविधियों की भी समीक्षा कर रही है, जो परंपरा से इतर है। कुछ मामलों में तो उसने कानून बनाने के निर्देश तक दिए हैं। ऐसा ही एक फैसला मुस्लिम महिलाओं के साथ पक्षपात से जुड़ा था। पिछली सरकारें वोट बैंक छिटकने के डर से ऐसे अदालती निर्देशों पर अमल करने से कतराती थीं। ऐसे में समाज का पीड़ित वर्ग पक्षपात सहने के लिए अभिशप्त रहता था। अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को मूर्त रूप देने की कोशिश की, लेकिन वे प्रयास फलीभूत नहीं हो पाए। मगर 2019 में वह समानता एवं निष्पक्षता के सिद्धांतों को संसद के पटल पर ले आए और उनके साथियों ने सदन में संख्याबल का बखूबी प्रबंध किया। अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में अब्राहम लिंकन ने जब दासता को समाप्त कराने वाला कानून सीनेट से पारित करा लिया था, तब उनके कुछ आलोचकों ने उन पर स्तरहीन सिद्धांतों को अपनाने का आरोप लगाया था। हर एक फैसले के कई पहलू होते हैं। इस मामले में भी कुछ ऐसा हो सकता है, लेकिन अगर मुस्लिम महिलाओं की बेहतरी की बात हो रही है तो यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत में लोकतंत्र फल-फूल रहा है। आर्थिक उत्थान के लिए भारतीयों का एक बड़ा तबका बीते 72 वर्षों से टकटकी लगाए हुए है। इसे केवल आर्थिक वृद्धि से ही संभव बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले पांच वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। राजनीतिक गलियारों और मीडिया की दुनिया में आलोचक इसका उपहास उड़ा रहे हैं। कुछ अर्थशास्त्री इसे असंभव बता रहे हैं तो कुछ इसे लेकर आशंकाएं जाहिर कर रहे हैं। मौजूदा आर्थिक सुस्ती को वे अपनी धारणा की पुष्टि के रूप में पेश कर रहे हैं। जो भी हो, आने वाले समय में मोदी सरकार की क्षमताओं की कड़ी परीक्षा होनी है। पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था देश से गरीबी का समूल नाश भले न कर पाए, लेकिन इससे गरीबों की तादाद घटने की भरी-पूरी संभावनाएं हैं। जन-धन, आधार और मोबाइल यानी जैम, मुफ्त गैस एवं बिजली कनेक्शन, सभी को आवास, किसान सम्मान निधि, मुद्रा और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का बिना किसी भेदभाव के सफल क्रियान्वयन देश की आबादी के एक बड़े और विपन्न् तबके के जीवन स्तर में व्यापक स्तर पर सुधार ला रहा है। हालांकि सुस्ती के भंवर में फंसी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए तत्काल कुछ साहसिक फैसले लेने होंगे, ताकि जीडीपी की ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल हुआ जा सके। मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में जीएसटी, दिवालिया संहिता और रेरा जैसे कुछ प्रमुख संरचनागत सुधार किए। कुछ सुधार अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे सुधार और उनका प्रभावी क्रियान्वयन आने वाले कई दशकों के लिए ऊंची वृद्धि का आधार उपलब्ध करा सकते हैं। वे भारतीयों की आंखों से गरीबी के आंसू पोंछ सकते हैं। भारत लोकतंत्र और जनसांख्यिकी के सुखद संयोग का लाभ उठाने की और अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता। अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार आम आदमी के भरोसे को नहीं तोड़ेगी। उम्मीदों से लबरेज भारत मोदी की तत्परता और उनकी क्षमताओं में पूरा भरोसा रखता है। भारत उनके फैसलों का समर्थन करेगा, भले ही वे निर्णय कितने ही कड़े क्यों न हों।
(लेखक सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)
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गुरुवार, 12 सितंबर 2019
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