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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

रोजगारपरक उद्योगों को मिले बढ़ावा 

रोजगारपरक उद्योगों को मिले बढ़ावा 
जीएन वाजपेयी
भारत ने 1947 में आजादी हासिल की। इसके बावजूद करोड़ों भारतीय अभी भी आर्थिक उत्थान की बाट जोह रहे हैं। ऐसे में सबका साथ, सबका विकास जैसा नारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है। उनके सभी कार्यक्रम मसलन जनधन, आधार, शौचालय, मुफ्त रसोई गैस और बिजली कनेक्शन, सबके लिए आवास, किसान सम्मान, मुद्रा, आयुष्मान भारत, सामाजिक सुरक्षा आवरण और पेंशन इत्यादि का लक्ष्य लोगों को गरीबी की जद से बाहर निकालना है। मुझे इन योजनाओं से जुड़ी कुछ बैठकों में भाग लेने का अवसर मिला है। एक बार साउथ ब्लॉक के गलियारों में प्रधानमंत्री से बातचीत का अवसर भी मिला। वह गरीबी को खत्म करने के बारे में सोचते रहते हैं। देश में दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं की जा सकती। राजनीतिक इच्छाशक्ति का संबंध सत्तारूढ़ दल और उसके नेता की ताकत और प्रतिबद्धता से होता है। भारत का आर्थिक उत्थान 2014 और 2019 में मोदी के चुनाव प्रचार अभियान के केंद्र में था। मतदाताओं ने भी पूर्ण बहुमत और मजबूत नेता के पक्ष में मतदान किया। प्रधानमंत्री मोदी ने अगले पांच वर्षों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डॉलर के स्तर पर ले जाने का लक्ष्य रखा है। अनेक अर्थशास्त्री, टिप्पणीकार और विपक्षी नेता इस लक्ष्य का उपहास उड़ा रहे हैं। उन्होंने 2014 में 272 सीटों और 2019 में 300 सीटों का लक्ष्य रखा और उससे अधिक की प्राप्ति यही दर्शाती है कि वर्ष 2024 तक उनका यह संकल्प भी पूरा हो सकता है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि विविध पहलुओं पर निर्भर करती है। इनमें घरेलू और विदेशी, दोनों कारक भूमिका निभाते हैं।
राजनीतिक सफलता दिलाने वाले कारकों से इनकी भूमिका एकदम अलग होती है। प्रबंधन का पहला सिद्धांत होता है कि कोई लक्ष्य तय किया जाए। इस लिहाज से उन्होंने यह कर लिया है। फिलहाल भारतीय अर्थव्यवस्था कुछ चुनौतियों से जूझ रही है। कुछ ढांचागत एवं चक्रीय पहलू भी उसकी राह में परेशानी खड़ी कर रहे हैं। ऐसे माहौल में अर्थव्यवस्था को ऊंची वृद्धि के दौर में दाखिल करना खासा जटिल काम है। इस मामले में सरकार को वैसा ही दृढ़ संकल्प दर्शाना होगा, जैसा उसने तीन तलाक को समाप्त करने और अनुच्छेद 370 एवं 35ए को हटाने में दिखाया।
मांग में सुस्ती और निवेश में ठहराव को दूर करने के लिए सरकार को कुछ साहसिक फैसले करने होंगे। इसके लिए ढांचागत सुधारों के साथ ही कुछ तात्कालिक कदम उठाने होंगे। ढांचागत सुधारों में भूमि एवं श्रम सुधारों के साथ ही सरकारी बैंकों के विनिवेश जैसे कुछ अनछुए पहलुओं पर काम करने की दरकार होगी ताकि निवेश के गुणात्मक प्रभाव को बढ़ाया जा सके। उत्पादकता को बढ़ाना ही सभी ढांचागत सुधारों के मूल में होना चाहिए। उत्पादकता ही ऊंची जीडीपी वृद्धि को दिशा देती है और यहां तक कि अपेक्षाकृत कमजोर निवेश के बावजूद यह तरीका कारगर होता है। कराधान सहित प्रत्येक नीतिगत मोर्चे पर स्पष्टता एवं निरंतरता भी सुनिश्चित करनी होगा। इस कड़ी को मजबूत करने से संस्थागत एवं विदेशी निवेशकों का भरोसा हासिल किया जा सकता है।
मौजूदा आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए सरकार का खास ध्यान उन उद्योगों को उबारने के इर्द-गिर्द केंद्रित होना चाहिए जो बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन करते हैं या अन्य उद्योगों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इनमें कृषि, भवन निर्माण, बुनियादी ढांचा, खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यटन, रत्न एवं आभूषण और वाहन जैसे तमाम अन्य क्षेत्र शामिल हैं। फिलहाल ये सभी क्षेत्र मंदी की जकड़ में हैं। इन सभी के मर्ज के लिए इलाज की कोई एक ही पुड़िया नहीं है। मंदी के शिकंजे से बाहर निकालने के लिए प्रत्येक क्षेत्र की मदद के लिए प्रभावी उपाय करने होंगे। इन क्षेत्रों की वृद्धि से रोजगार के लाखों-लाख अवसर सृजित होंगे। इससे समग्र्र मांग में व्यापक रूप से इजाफा होगा। यह सीमेंट, इस्पात और अन्य सामग्र्री से संबंधित क्षेत्रों को भी फायदा पहुंचाएगा। इस कवायद में जहां वित्त मंत्रालय समन्वयक की भूमिका निभा सकता है, वहीं क्षेत्र विशेष से जुड़े मंत्रालय को ही कायाकल्प का पूरा जिम्मा संभालना होगा। नौकरशाही और न्यायिक प्रक्रियाओं ने उत्पादकता की राह में गंभीर अवरोध पैदा किए हैं। 1990 के दशक में हुए आर्थिक सुधारों के चलते उदारीकरण और निजीकरण की बयार ने हालात बदलने का काम किया। इससे पूंजी और निवेश का एक अहम सिलसिला कायम हुआ। पूंजी और निवेश जैसे दो अहम स्तंभों का आधार फैसलों को सक्षम रूप से लागू करने पर टिका है। निवेश करते समय निवेशक जिन जोखिमों का आकलन करते हैं, उन्हें लेकर वे समायोजन जरूर कर सकते हैं, लेकिन करार को मूर्त रूप देने और परियोजनाओं में अनिश्चितता गवारा नहीं कर सकते। किसी भी नीति को जमीन पर साकार होने में कुछ वर्ष, यहां तक कि अक्सर दशक भी लग जाते हैं। भारत में तो यह चुनौती और बड़ी हो जाती है। इससे लागत बढ़ती जाती है, फायदा घटता जाता है और आर्थिक बोझ बढ़ जाता है। अगर सांकेतिक जीडीपी वृद्धि आठ प्रतिशत हो तो 15 प्रतिशत की सांकेतिक वृद्धि के आधार पर अनुमानित राजस्व प्राप्तियों की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में परिसंपत्तियों को भुनाने की तत्काल जरूरत महसूस होती है। टुकड़ों में बिक्री या स्वामित्व के मोर्चे पर बाजीगरी से काम नहीं चलने वाला। इसके बजाय रणनीतिक विनिवेश की राह अपनानी होगी। सरकार को बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए खजाने का मुंह खोलना होगा। यह इसलिए जरूरी है ताकि इस निवेश का असर चालू वित्त वर्ष में ही महसूस हो और मंदी पर काबू पाया जा सके। यदि लगे तो राजकोषीय अनुशासन के मामले में कुछ छूट ली जा सकती है, लेकिन यह केवल बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश की शर्त पर ही हो। वैसे भी यह क्षेत्र शिद्दत से सुधार का इंतजार कर रहा है और इसमें अर्थव्यवस्था को व्यापक रूप से फायदा पहुंचाने की विपुल संभावनाएं हैं। कारों की खरीद को प्रोत्साहन देने से पहले सरकार को सड़कें बनाने में निवेश करना चाहिए। प्रधानमंत्री को संवाद स्थापित करने की कला में महारत हासिल है। अपने इस कौशल का उपयोग उन्हें सभी क्षेत्रों के उद्यमियों और निवेशकों का प्रत्येक मोर्चे पर हौसला बढ़ाने में करना होगा। उन्हें आधुनिक भारत का सपना इस तबके के बीच लोकप्रिय बनाना होगा। इस साल 15 अगस्त को पीएम मोदी ने लाल किले की प्राचीर से कहा था कि संपत्ति सृजित करने वालों का सम्मान करना होगा। प्रधानमंत्री को यह आश्वस्त करना होगा कि वास्तविक गलतियां और नुकसान स्वीकार्य होंगे तथा कानूनी ढंग से कमाई स्वागतयोग्य है। देश मोदी पर भरोसा करता है। निश्चित रूप से वह इन उम्मीदों पर खरे भी उतरेंगे।
(लेखक सेबी व एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)


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