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रविवार, 20 अक्टूबर 2019

 विदेशी को हाउडी, स्वदेशी को बाय-बाय 

 विदेशी को हाउडी, स्वदेशी को बाय-बाय 
राजेंद्र शर्मा 
इस तरह भागवत ने आर्थिक नीति तथा फौरी आर्थिक निर्णयों पर, अपने मजदूर बाजू भारतीय मजदूर संघ तथा अपने आर्थिक नीति मंच, स्वदेशी जागरण मंच की आपत्तियों को ही खारिज नहीं किया है बल्कि इन प्रश्नों पर मोदी सरकार के लिए अपने दो-टूक समर्थन के जरिए और इससे भी बढ़कर ठोस आर्थिक सवालों पर, संभवतः पहली बार संघ की बेलाग राय रखने के जरिए, उन्होंने यह भी बता दिया है कि आरएसएस की, मौजूदा नवउदारवादी निजाम से अलग, अपनी कोई स्वतंत्र आर्थिक दृष्टिड्ढ है ही नहीं। वास्तव में, जैसा प्रोफेसर प्रभात पटनायक  रेखांकित करते आए हैं, आरएसएस पर केंद्रित संघ परिवार की मेहनतकश जनता के हितों के नजरिए से मौजूदा नवउदारवादी निजाम से कोई स्वतंत्र नीति ही नहीं होना ही, संघ परिवार के नेतृत्व में हिंदुत्व और कार्पोरेटों के उस गठजोड़ को मजबूती देता है, जिसका आज भारत पर राज चल रहा है। नवउदारवादी व्यवस्था के गहराते संकट के सामने, कार्पोरेटों को अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए, जनता का ध्यान अपनी दशा के वास्तविक मुद्दों से हटाना जरूरी हैऔर हिंदुत्व अपने बहुसंख्यकवादी उन्मत्त राष्टड्ढ्रवाद के जरिए, इसका बहुत कारगर औजार साबित हो रहा है। बेशक, भागवत ने अपने इस बार के दशहरा संबोधन में भी स्वदेशी, स्वसामर्थ्य आदि, का भी काफी मंत्र जाप किया है। यहां तक कि उन्होंने मोदी सरकार के कदमों के तार्किक परिणामों की जिम्मेदारी से, यह कहकर आरएसएस को अलग करने की कोशिश भी की है कि ये कदम परिस्थिति के दबावों का उत्तर देेने के प्रयास में उठाए जा रहे हैं, कि ऐसे कदम भी उठाने को सरकार बाध्य हो रही है आदि। लेकिन, इस सारे शब्दजाल के बावजूद वह इस सच्चाई को छुपा नहीं पाए हैं कि आरएसएस ने अब, फौरी आर्थिक निर्णयों पर भी भाजपा की सरकार से खुद को अलग दिखाना छोड़ दिया है। इसे मोदी-2 के साथ, आरएसएस के पूर्ण एकीकरण का भी संकेतक माना जा सकता है। याद रहे कि मोदी-1 के दौर में भारतीय मजदूर संघ तथा स्वदेशी जागरण मंच पर अंकुश लगाए रखने के बावजूद, आरएसएस को सरकार के आर्थिक निर्णयों का इस तरह खुलकर समर्थन करने की जरूरत महसूस नहीं हुई थी। भागवत के ही पिछली विजयादशमी के संबोधन का आर्थिक चिंतन सिर्फ मोदी सरकार की उपलब्धियों के बखान तक सीमित रहा था। 
वैसे आरएसएस की कार्यनीति में इस बदलाव को भी, गहराते आर्थिक संकट से पैदा हुई जरूरत माना जा सकता है। वास्तव में यह भी मौजूदा संकट की तीव्रता को ही दिखाता है कि जहां मोदी सरकार ने लंबे अरसे तक आर्थिक संकट की सच्चाई को ही नकारने की कोशिश करने के बाद, अब मुश्किल से आर्थिक सुस्ती की बात स्वीकार करना शुरू किया है, वहीं भागवत इसका भरोसा जताना जरूरी समझते हैं कि मंदी के चक्र से हम निश्चित रूप से बाहर आएंगे। हालांकि वह मंदी से पहले तथाकथित लगाना नहीं भूलते हैं। और जाहिर है कि उनके हिसाब से इस आर्थिक सुस्ती या मंदी का संघ समर्थित मोदी सरकार की नीतियों और फैसलों से कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो सिर्फ  विश्व की आर्थिक व्यवस्था (के ) चक्र की गति में आई मंदी के प्रभाव का और श्अमेरिका व चीन में चली आर्थिक प्रतिस्पर्द्घा के परिणामश् का भी, नतीजा है। फिर भी भागवत के विजयदशमी आर्थिक चिंतन की नयी बात यही नहीं है कि इसमें मोदी सरकार की नीतियों का बचाव किया गया है। इसमें नयी बात यह है कि इसमें चाहे बाध्यता कहकर ही हो, विदेशी सीधे पूंजी निवेश की अनुमति देना तथा उद्योगों का निजीकरण जैसे कदमों का भी समर्थन किया गया है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश और निजीकरण के इन कदमों को अर्थव्यवस्था में बल भरने के लिए उठाए गए कदमों के रूप में जरूरी ठहराया जा रहा है। बस, भागवत संघ के बचाव के लिए इसमें इतना जरूर जोड़ते हैं कि कभी-कभी, अपने आर्थिक परिवेश के अनुसार कोई घुमावदार दूर का रास्ता हमें चुनना पड़ सकता है। वैसे आरएसएस के उद्योगों के निजीकरण का समर्थन करने में कुछ भी नया नहीं है। संघ तो हमेशा से ही अर्थव्यवस्था को निजी हाथों में ही छोड़े जाने के पक्ष में रहा है और समाजवाद के औजार बताकर, तमाम सार्वजनिक उद्यमों का विरोध ही करता आया है। इस माने में वह हमेशा से पूंजीवादी आर्थिक नजरिए से बंधा रहा है। नयी बात यह है कि वह अब खुलकर, विदेशी पूंजी के भारतीय अर्थव्यवस्था में आने का भी समर्थन कर रहा है और वह भी कोयले के खनन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से लेकर, प्रतिरक्षा उत्पादन तक में, 100 फीसद विदेशी पूंजी के न्यौते जाने का समर्थन कर रहा है! लेकिन, आरएसएस के ऐसा करने में अचरज की भी कोई बात नहीं है। यह तो मौजूदा नवउदारवादी व्यवस्था का बुनियादी तर्क ही है, जो पूंजी के मामले में स्वदेशी और विदेशी की दीवारों को ढहाने के लिए ही काम करता है। इसी तर्क से पिछली सदी के आखिरी दशक में जब भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने की शुरूआत की गई थी, देसी पूंजी के लिए मैदान खाली करने के साथ ही साथ, विदेशी पूंजी के लिए भी दरवाजे खोलने की शुरूआत की जा रही थी। इस सदी के शुरू के सालों से नरेंद्र मोदी के राज में गुजरात में, बड़ी देशी पूंजी के साथ विदेशी बड़ी विदेशी पूंजी के गठजोड़ पर आधारित विकास का यही मॉडल चला रहा था। और नरेंद्र मोदी के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से, विदेशी पूंजी के लिए दरवाजे चैपट खोलने की नवउदारवाद की इस मुहिम को, पहले से ज्यादा तेज ही किया गया है। अनेक क्षेत्रों में सौ फीसद विदेशी निवेश की इजाजत देने के फैसले, इसी प्रक्रिया के हिस्से हैं। मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के नाम पर मोदी सरकार, इन्हीं कदमों को आगे बढ़ा रही है।लेकिन, मोदी सरकार और आरएसएस के दुर्भाग्य से आर्थिक संकट से निपटने के लिए इस रास्ते पर वे ऐसे वक्त पर दौड़ लगा रहे हैं, जब नवउदारवादी व्यवस्था का मूल तर्क ही खतरे में पड़ गया है। खुद सबसे बड़ी पूंजीवादी व्यवस्था, पूंजी की मुक्त आवाजाही के गीत गाना छोड़कर, अपने देश में रोजगारों की रखवाली के आश्वासन दे रही है। इसके पीछे इस सच्चाई की पहचान है कि उसकी अपनी राष्टड्ढ्रीय सीमाओं में रोजगार का घटना या आयातों के माध्यम से उसकी सीमाओं में बेरोजगारी का आयात होना, मांग को घटाने के जरिए, उसकी अर्थव्यवस्था का आधार ही खोखला कर रहा है।लेकिन, मोदी सरकार तो इस सच्चाई को देखना ही नहीं चाहती है। दस आसियान देशों तथा छरू मुक्त व्यापार समझौते के देशों को जोड़कर, सोलह देशों के प्रस्तावित कंप्रिहेंसिव इकॉनामिक पैक्ट (आरसीईपी) के रास्ते पर मोदी सरकार का बढ़ना भी, इसी सच्चाई को दिखाता है। किसानों तथा खासतौर पर दुग्ध उत्पादकों ही नहीं, ऑटोमोबाइल्स से लेकर इस्पात व कपड़ा तक, अनेक महत्वपूर्ण उद्योगों के भी कड़े विरोध के बावजूद, मोदी सरकार अगले महीने के आरंभ में इस समझौते पर दस्तखत कर सकती है। यह इसके बावजूद है कि भागवत के  उक्त दशहरा संबोधन में ही सरकार से, व्यापार समझौतों के संबंध में सावधानी बरतने का जो आग्रह किया गया था, उससे इशारा पाकर स्वदेशी जागरण मंच ने फौरन प्रस्तावित समझौते के खिलाफ दस दिन के अभियान का ऐलान कर दिया और संघ परिवार के कुछ अन्य संगठनों ने उसके सुर में सुर मिलाया है।बहरहाल, यह मोदी सरकार पर दबाव डालने की किसी वास्तविक कोशिश के बजाय, इसका दिखावा ही ज्यादा लगता है संघ परिवार ने, स्वदेशी से पूरी तरह से मुंह नहीं मोड़ा है। इस मुद्दे पर स्वदेशी जागरण मंच जैसे संघ के बाजुओं के जागकर आवाज उठाने लगने के पीछे एक पेंच और है। इस व्यापार समझौते से अमेरिका बाहर है और जाहिर है कि वह अपने ही कारणों से इसका विरोध कर रहा है। इस मामले में संघ के मोदी सरकार से खुद को जरा सा अलग करने के पीछे, अमेरिका की नाराजगी की चिंता भी हो सकती है। वरना मौजूदा संकट से निपटने के लिए मोदी सरकार द्वारा अब तक उठाए गए सभी कदमों पर, भागवत ने संघ के अनुमोदन की मोहर लगा दी है, जबकि यह स्वतरू स्पष्टड्ढ है कि इन कदमों का एक ही मकसद हैकृकार्पोरेटों के लिए कारोबार करना ज्यादा मुनाफादेह बनाना यानी उनके मुनाफे सुरक्षित करना। जाहिर है कि इससे बढ़ती बेरोजगारी तथा कृषि संकट के चलते पैदा हुए, मांग की कमी के संकट का हल निकलने वाला नहीं है। लेकिन, मोदी सरकार ने इस संकट की तरफ से आंखें ही मंूद रखी हैं। और इसमें भी आरएसएस पूरी तरह से उसके साथ है। यह संयोग ही नहीं है कि मोदी सरकार की तरह, भागवत के आर्थिक चिंतन में भी, बेरोजगारी की दर में रिकार्ड तोड़ बढ़ोतरी का कोई जिक्र तक नहीं है। 


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