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बुधवार, 20 नवंबर 2019

देश की बढ़ती आर्थिक बदहाली

देश की बढ़ती आर्थिक बदहाली
उपेन्द्र प्रसाद
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत को अगले कुछ वर्षों में ही भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प किया है। 5 ट्रिलियन का मतलब है 50 खरब। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए भारत को 10 प्रतिशत सालाना की विकास दर से विकास करना होगा। इतनी ऊंची दर अभी तक के इतिहास में भारत ने कभी प्राप्त नहीं किया है। लेकिन यदि उस लक्ष्य को हासिल करना है, तो विकास की इस दहाई अंक वाले दर को प्राप्त करना होगा। यह तो हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षा हुई, लेकिन सच्चाई कुछ और है। सच्चाई यह है कि 2016 के 8 नवंबर को खुद प्रधानमंत्री द्वारा नोटबंदी की घोषणा किए जाने के बाद देश की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है। उस बड़े फैसले के बाद इसका शुरू में लड़खड़ाना तो लाजिमी ही था, लेकिन उम्मीद की जा रही थी कि कुछ समय के बाद स्थिति न केवल सामान्य होगी, बल्कि अर्थव्यवस्था विकास के नये युग में पहुंच जाएगी और चैतरफा विकास देखने को मिलेगा। नोटबंदी के कुछ शुरुआती महीनों के बाद अर्थव्यवस्था की हालत थोड़ी सुधरती भी दिखाई पड़ी, लेकिन बहुत जल्द पता चल गया कि वह तो एक छलावा था और धीरे-धीरे नोटबंदी देश की अर्थव्यवस्था को दीर्घकाल के लिए अपने लपेटे में लेने लगा।
उसके बाद विकास की दर गति पकड़ नहीं पाई। उसमें गिरावट होने लगी। गिरावट के बावजूद दर पांच प्रतिशत से ऊपर ही चल रही थी। इसलिए इसके बावजूद हमारे नीति निर्माता यह मानने को तैयार नहीं हुए कि अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में प्रवेश कर गई है। शायद वह गलत भी नहीं थे, क्योंकि पांच प्रतिशत की दर से हो रहा विकास भी विकास ही है। उसको मंदी कैसे कह सकते हैं? भारत ने लंबे समय तक 2 से 3 फीसदी की विकास दर का जमाना देखा जाता है। उस दर को हिकारत से हिन्दू विकास दर कहा जाता था। लेकिन नरसिंहराव सरकार द्वारा 1991 में शुरू की गई नई आर्थिक नीतियों ने कथित हिन्दू विकास दर को अतीत की चीज बना दी और हमारा देश 5 फीसदी के ऊपर ही विकास करता रहा। दहाई अंक में तो विकास की दर कभी नहीं गई, लेकिन किसी-किसी साल यह 8 फीसदी की दर को छू चुकी है। 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार के गठन के बाद अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर हो रही थी। तेल की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरी हुई थीं। इससे तेल उपभोक्ताओं को तो राहत मिल ही रही थी, सरकार के तेल उत्पादों पर लगे टैक्सों से राजस्व का भारी लाभ हो रहा था। सरकार के स्तर पर नीतियों में जो ठहराव मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में देखा जा रहा था, वह समाप्त हो गया, क्योंकि मोदी की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ एक स्थिर सरकार थी। औद्योगिक उत्पादन की स्थिति अच्छी थी और एकाध उत्पादों को छोड़कर कृषि की स्थिति भी अच्छी थी। दालों के मोर्चे पर कुछ समस्याएं आ रही थीं। देश की अर्थव्यवस्था विकास की उच्चतर दर की ओर अग्रसर हो रही थी। इसी बीच नरेन्द्र मोदी ने हजार और 5 सौ के पुराने नोटों को रद्द कर देने का निर्णय किया। उन नोटों को तो रद्द कर दिया, लेकिन उनकी जगह लेने के लिए सरकार के पास पर्याप्त नये नोट नहीं थे। नोटबंदी के बाद जो स्थितियां पैदा होंगी, उसके बारे में केन्द्र सरकार ने कुछ सोच-विचार ही नहीं किया था। जाहिर है, किसी प्रकार की तैयारी भी नहीं की थी। उसका असर बहुत ही मारक हुआ। देश की अर्थव्यवस्था ठिठक गई। नोटों की कमी के कारण बाजार में मातम छा गया। लाखों लोग बेरोजगार हो गए। बैंकों के पास पैसे आने लगे तो उनपर जमा रकम के ब्याज का बोझ भी बढ़ने लगा। बाजार के तहत-नहस हो जाने के कारण और नोटों की कमी के कारण उद्यमी बैंकों से कर्ज लेने के लिए भी सामने नहीं आ रहे थे। बाहर तो चर्चा हो रही थी कि बाहर पड़ा धन बैंकों के पास आ रहा है, लेकिन वह धन बैंकों के लिए बोझ साबित हो रहा था। जाहिर है, पहले से ही अनेक समस्याओं से जूझ रहे बैंक नोटबंदी के उस दौर में नये किस्म की समस्याओं से ग्रस्त होने लगे। भारी पैमाने पर असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी हुई। फिर संगठित क्षेत्र में भी छंटनी होने लगी। इसके कारण बेरोजगारों की फौज बढ़ती गई। जब बेरोजगार बढ़ेंगे, तो उनके पास क्रयशक्ति की कमी हो जाएगी। इसके कारण बाजार में वस्तुओं और सेवाओं की मांग कमजोर हो जाएगी। और यही भारत में हुआ है। मांग पक्ष बहुत ही कमजोर हो चुका है और कोई भी बाजार वस्तुओं की मांग से ही फलता-फूलता है। मांग में आई यह कमी न तो क्षणिक है और न ही अस्थायी, बल्कि यह एक स्थायी फीचर बन गया है। और आज जो आर्थिक विकास दर में कमी आई है, उसका मूल कारण मांग पक्ष का कमजोर होना ही है।अब सरकार के सामने असली चुनौती यह है कि यह मांग पक्ष को कैसे मजबूत करे, लेकिन उसके सामने कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा है। वह सप्लाई पक्ष पर ज्यादा जोर दे रहा है। यानी उद्यमियों और उद्योगपतियों के लिए सुविधाएं देने पर उसका ज्यादा जोर है। उनके लिए कर रियायतें दी जा रही हैं। आवास निर्माण के लिए सरकारी धन से बड़ा कोष तैयार किया जा रहा है, लेकिन लोगों की आय कैसे बढ़े, इस पर सरकार सोच ही नहीं रही है।
ऐसी बात नहीं है कि इस तरह की समस्या कभी पहले कहीं आई नहीं है।  अनेक देशों में अनेक बार इस तरह की समस्याएं आती हैं और इन समस्याओं पर काबू भी पाया जाता रहा है, लेकिन भारत की सरकार ने जो आर्थिक मॉडल अब अपना रखा है, उसके तहत उन कार्यक्रमों को अपनाना संभव नहीं है और सरकार अपना आर्थिक मॉडल बदलने के लिए तैयार नहीं है। यह रोजगार सृजन के लिए अर्थव्यवस्था में सीधे हस्तक्षेप नहीं करना चाहती है। यह काम बाजार और निजी सेक्टर पर छोड़ रही है, लेकिन निजी सेक्टर के वश में वर्तमान आर्थिक बदहाली को दूर करना नहीं है। और अब सरकार को यह सूझ ही नहीं रहा है कि अर्थव्यवस्था के विकास को फि र पटरी पर लाने के लिए वह क्या करे। 
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संस्कृत का धर्म से संबंध
धर्म के कलकल बहते झरने को रोककर, उसे कीचड़ भरा तालाब बनाने के दुष्परिणाम इस देश ने सदियों भुगते हैं, लेकिन आज भी कुछ लोग देश को उसी दलदल में फंसे रहने देना चाहते हैं। धर्म के इन स्वयंभू ठेकेदारों की ताजा करतूत बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में देखने मिली है। यहां संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संस्थान में बतौर शिक्षक डॉक्टर फिरोज खान की नियुक्ति के खिलाफ कुछ  छात्र मोर्चा संभाले हुए हैं और इसे आंदोलन नाम दिया जा रहा है, गोया वे किसी महान उद्देश्य के लिए विरोध कर रहे हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन स्पष्ट कर चुका है कि डॉ. खान की नियुक्ति सारी प्रक्रियाओं का पालन करके हुई है। लेकिन डॉ. खान का विरोध कर रहे छात्र कह रहे हैं कि एक मुस्लिम हमें संस्कृत कैसे पढ़ा सकता है? एक मुस्लिम हमें हमारा धर्म कैसे सिखा सकता है? एक छात्र का तो यह भी कहना है कि बीएचयू के संस्थापक पं. मदन मोहन मालवीय भी ऐसा नहीं चाहते थे। अब जबकि भाजपा ने महामना मालवीय को भी अपना महापुरुष बना लिया है, तो फिर उनके बारे में इस तरह की बातें प्रचारित हो भी सकती हैं और इसके लिए किसी पड़ताल की, तथ्यों की पुष्टि की आवश्यकता नहीं है। जो छात्र संस्कृत को धर्म और संस्कार से जोड़ कर देख रहे हैं, उनकी बुद्धि पर तो तरस आता ही है, उससे ज्यादा पीड़ा उस हिंदुस्तानी समाज को देखकर आती है, जिसने अपनी उदार परंपराओं, प्रगतिशील सोच और विवेकशीलता को क्षुद्र स्वार्थों की राजनीति करने वालों का बंधक बना दिया है। जो गलत है, उसे गलत कहने में अब इस समाज का हलक सूख जाता है।  इसलिए इतिहास, धर्म, संस्कृति, विरासत के साथ खिलवाड़ खुलेआम हो रहा है और समाज चुपचाप बैठा तमाशा देख रहा है।कितने दुख की बात है कि डॉ. फिरोज खान को अपनी नियुक्ति पर, संस्कृत के ज्ञान पर सफाई देनी पड़ रही है, सिर्फ इसलिए कि वे मुसलमान हैं। उन्हें बताना पड़ रहा है कि उनके दादा भजन गाया करते थे, उनके पिता भी संस्कृत के ज्ञाता थे और गौशाला जाकर गायों की सेवा करते थे। अब तक हिंदुस्तानी समाज में ये सारी बातें बेहद आम थीं। हिंदी फिल्मों को ही देख लीजिए, जहां कई सुमधुर भजन उन कवियों की कलम से निकले हैं, जिनका धर्म इस्लाम था। मन तड़पत हरि दर्शन को आज, बैजू बावरा फिल्म के इस भजन को शकील बदायूंनी ने लिखा, नौशाद ने सुरों से सजाया, जिसे मोहम्मद रफी ने आवाज दी। अब क्या इसे और इसके जैसे कई भजनों को हिंदुत्व के ठेकेदार सुनने से पहले कान बंद कर लेंगे? मुस्लिम हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते हैं, पूजा की सामग्री बनाते हैं, बेचते हैं, उत्तर भारत में कई ऐतिहासिक रामलीलाएं बिना मुस्लिमों की भागीदारी के पूरी नहीं होतीं।  इन सबसे हिंदुस्तान के प्राचीन हिंदू धर्म को तो कोई खतरा नहीं हुआ, लेकिन अब एक मुस्लिम शिक्षक के संस्कृत पढ़ाने से जरूर धर्मभ्रष्ट हो जाएगा। ऐसा लगता है कि अब हिंदुस्तान का संविधान नहीं, मनु स्मृति ही हमारे समाज की संचालक बनती जा रही है। जिसमें स्त्रियों और निचली जातियों के लिए वेद का पाठ वर्जित था।  बरसों-बरस संस्कृत को इसी तरह कुछ खास लोगों के लिए आरक्षित करके रखा गया। देवों की भाषा, विश्व की प्राचीनतम भाषा और सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषा कहकर संस्कृत का गुणगान तो खूब हुआ, लेकिन उसके गुणों को पूरे समाज तक पहुंचने से रोका गया। कालिदास, भवभूति, शूद्रक, माघ, भतृहरि आदि कई महान रचनाकार संस्कृत में हुए हैं, लेकिन इनकी रचनाओं से आज की पीढ़ी परिचित ही नहीं है। क्योंकि संस्कृत को क्लासिक भाषा की तरह पढ़ाया ही नहीं जाता है। उसे हिंदू धर्म की शिक्षा देने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें मंत्रोच्चार करके ही समाज गर्व महसूस करे। और समाज का दोहरा चरित्र तो देखिए, जब कोई जर्मन, रूसी, अमेरिकन या अंग्रेज संस्कृत पढ़ता है, संस्कृत की रचनाओं का अपनी भाषा में अनुवाद करता है, तब भी हम खुश होते हैं कि कोई विदेशी हमारी प्राचीन भाषा पढ़ रहा है। लेकिन बात जब अपने ही देश के मुसलमान के संस्कृत शिक्षक होने की आई तो धर्म पर खतरा महसूस होने लगा।  दरअसल धर्म और संस्कृति तो तभी से खतरे में हैं, जब से इन पर कुछ लोग केवल अपना दावा करने लगे हैं और बाकी समाज को इससे दूर रखने लगे हैं, ताकि वे मनमानी कर सकें। अब यह समाज को देखना है कि वह धर्म के महान उद्देश्यों में बाधक बन रही इस राजनीति को कब तक बर्दाश्त करता है। बुद्ध, कबीर या गांधी के नाम की माला जपने से समाज नहीं बदलेगा, खुद कुछ करने से बदलेगा।


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