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गुरुवार, 21 नवंबर 2019

गांधी संजीवनी को संक्रमण साबित करती सामाजिक समझ.....

गांधी संजीवनी को संक्रमण साबित करती सामाजिक समझ
डॉ. दीपक पाचपोर 
तीन घटनाएं- पहली, भारतीय जनता पार्टी प्रशासित एक राज्य के एक स्कूल में परीक्षा के दौरान सवाल पूछा गया-महात्मा गांधी ने आत्महत्या क्यों की थी?दूसरी, कांग्रेस प्रशासित एक राज्य के पत्रकारिता व जनसंचार विश्वविद्यालय में एक प्रसिद्ध गांधीवादी विद्वान के मुख्य आतिथ्य में गांधीजी पर आयोजित हुए एक सेमीनार के प्रश्नोत्तर सत्र में एक युवा छात्र ने बगैर नाम लिए परंतु बड़े ही स्पष्ट संकेतों में मुस्लिमों के लिए कहा- संक्रमण। तीसरी, जहां न भाजपा की सरकार है न कांग्रेस की। तीसरे दल की है। वहां शालेय छात्रों को बताया गया कि गांधीजी की मौत दुर्घटनावश हुई थी।स्कूली बच्चों को तो आत्महत्या वाले या दुर्घटना वाले सवाल की गंभीरता और उसके पीछे छिपी मंशा समझ में नहीं आई होगी लेकिन पत्रकारिता विश्वविद्यालय में जिस छात्र ने संक्रमण वाली बात कही थी वह वयस्क हो चुका है। उसे मतदान का अधिकार है और वह जल्दी ही (संभवतः) पत्रकारिता या विचारों के प्रसार संबंधी अथवा ऐसे ही किसी पेशे में उतरेगा। स्कूली छात्रों ने  अपनी अल्प समझ के अनुरूप आत्महत्या वाले सवाल का जवाब दिया होगा जबकि पत्रकारिता विश्वविद्यालय के छात्र ने वह सवाल बड़े ही निश्चयात्मक ढंग से पूछा। पूरे आत्मविश्वास के साथ। स्पष्ट है कि उसकी राजनैतिक-सामाजिक मान्यताएं एक तयशुदा बिंदु पर स्थापित हो चुकी हैं। सहपाठी श्रोता छात्र उसके सवाल पर न सिर्फ गदगद थे बल्कि प्रश्नकर्ता के उत्साह को अपनी खिलखिलाहट से हौसला भी दे रहे थे। सवाल की गंभीरता को छात्र नहीं समझ रहा है तो यह चिंताजनक है। अगर समझ रहा है तो यह अधिक चिंता की बात है। यह बेहद कुटिल व सुनियोजित खेल है जो छोटे बच्चों में इस तथ्य को ठूंस रहा है कि गांधी ने आत्महत्या की थी। यह भ्रामक बात इसलिए उनके दिमाग में भरी जा रही है ताकि वे यह न जान सकें कि गांधी की हत्या हुई थी, उनका कोई हत्यारा था और हत्यारे की कोई सामाजिक सोच भी थी। आत्महत्या इसलिए बतानी पड़ रही है कि कुछ समय बाद इतिहास से हत्या, हत्यारे व हत्याकारी विचारधारा की बात मिट जाए। इसी तरह, युवाओं में मुस्लिमों, दलितों, गरीबों, शोषितों, बुद्धिजीवियों, प्रगतिशीलों व समग्र रूप से वैचारिक विरोधियों को संक्रमण समझने व इस नाम से संबोधित करने वालों की संख्या में इन दिनों भरपूर इजाफा हुआ है। उन्हें न सिर्फ अवांछनीय माना जाने लगा है, बल्कि उनसे संबंधित फैसले लेने का अधिकार भी बहुमत वाली सरकार और बहुसंख्यकों ने अपने पास कब्जिया लिया है। गांधी की कथित आत्महत्या या दुर्घटना व अल्पसंख्यकों को श्संक्रमणश् समझने के बीच गहरा संबंध है। जो गांधीजी की हत्या के सही कारणों को छिपाना चाहते हैं, वे ही अल्पसंख्यकों को अवांछनीय समझते हैं व उन्हें इस देश से चलता करना चाहते हैं। सोचिये कि गांधी से विपरीत विचारधारा पर चलने वाले लोग आखिर उनकी मृत्यु के इतने वर्षों के बाद भी किसलिए उनकी लुकाठी से भयभीत होते हैं। कारण है, गांधी की देश में नैतिक उपस्थिति जो केन्द्रीकरण, असमानता, पूंजीवाद, साम्प्रदायिकता के खिलाफ तन जाती है।  जो इस दूषित व मध्ययुगीन विचारों-व्यवस्था के पैरोकार हैं, गांधीजी उनका मकसद आज भी पूरा नहीं होने दे रहे हैं। हालांकि यह विडम्बना अपनी जगह पर बनी हुई है कि गांधी विरोधी शक्तियां और ज्यादातर सरकारें अपने काम गांधीजी के ही नाम पर करती आई हैं लेकिन यह सरकार जिन शक्तियों और विचारों के घोल से बनी है उसे पानी बना देने की ताकत गांधी दर्शन में है। इसलिए वे शक्तियां गांधी के नाम को ही पूर्णतरू विलोपित कर देना चाहती हैं। वर्तमान शासकों की मजबूरी यह है कि दुनिया भारत को उनके नाम से नहीं बल्कि गांधी-नेहरू के कारण जानती है। अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए उन्हें गांधी प्रतिमाओं के समक्ष बार-बार झुकना पड़ता है और विदेशों में कहना भी पड़ता है कि श्दुनिया के हर बच्चे की जुबान पर गांधी का नाम होना चाहिये।श् इसी बोझ व लाचारगी को हमेशा के लिए मिटाने हेतु एक सुनियोजित व चरणबद्ध तरीके से वे गांधी विसर्जन का गुपचुप अभियान चला रहे हैं। छोटे बच्चों को गांधी द्वारा आत्महत्या किए जाने के पाठ पढ़ाने से इसकी शुरुआत की गई है। भविष्य में बच्चों को यह पढ़ने को भी मिल सकता है कि गांधीजी ने गोडसे की हत्या की थी और आत्मग्लानि में खुदकुशी कर ली थी। समाज में गांधी के प्रति बचपन से नफरत की घुट्टी पीकर यह पीढ़ी जब कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पहुंचती है तो उन्हें अल्पसंख्यकों, दलितों, समतावादियों, बुद्धिजीवियों, प्रगतिशील व आधुनिक विचारकों-व्यक्तियों को संक्रमण मान लेने में कोई गुरेज नहीं होता। आशंका है कि आगे किसी भी क्षेत्र में जाने वाली यह पीढ़ी अपने-अपने स्तर पर समाज की जहरखुरानी करेगी। अगर ये लोग मीडिया और लेखन के क्षेत्र में जाते हैं तो इन्हीं विचारों को समाज में फैलाएंगे। यह बेहद खतरनाक स्थिति होगी। वैसे ये शक्तियां काफी पहले से गांधी के कामों और दर्शन के खिलाफ रही हैं। बापू की छोड़ी वैचारिक विरासत के प्रति उनका विरोध आज भी कम नहीं हुआ है। उनके लिए गांधीवादी विचारों और मान्यताओं को समाप्त करना इसलिए जरूरी है क्योंकि गांधी समानता, नागरिक स्वातंत्र्य, बंधुत्व, साम्प्रदायिक सौहार्द्र, शक्तियों के विकेन्द्रीकरण के विचारों को फैलाते रहे हैं जबकि ये शक्तियां असमानता, और वर्णीय-वर्गीय श्रेष्ठता की सामाजिक प्रणाली में भरोसा करती हैं। संसाधनों, अवसरों, उत्पादन और पूंजी के केन्द्रीकरण में उनका विश्वास है। इसलिए वे न सिर्फ गांधी बल्कि उन सभी व्यक्तियों-संगठनों- विचारों का सफाया करना चाहती हैं जिनका उद्देश्य समतामूलक, शोषणरहित, विकेंद्रित व धार्मिक सद्भाव वाला समाज रचने में है। विचारों, समूहों और संस्कृति की विविधता में जो यकीन नहीं करते, वे लोग बापू की बातें करने वालों को या तो खत्म कर देंगे अथवा उन्हें राष्ट्रीय विचारधारा से अलग कर देंगे।  यह न हो सका तो उन्हें बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी। आत्महत्या-दुर्घटना संबंधी सवाल से लेकर संक्रमण तक की विचारधारा के पीछे यही अभियान चलाया जा रहा है। ऐसा नहीं कि पहले ऐसे व्यक्तियों, संगठनों और शक्तियों की हमारे समाज में उपस्थिति नहीं थी। बेशक थी, परंतु वे समाज की नियति और नीति को निर्धारित करने की सामर्थ्य नहीं रखते थे। चूंकि अब सत्ता एवं उसके माध्यम से समग्र समाज पर उनकी पकड़ बन गई है, उनका प्रयास यही है कि अगले कुछ वर्षों में हमारे परिदृश्य व स्मृतियों से गांधी को पूरी तरह से बेदखल कर दिया जाए। इसके तहत पिछले कुछ समय से गांधी विरोधी तत्व दो स्तरों पर कार्य कर रहे हैं। एक-गांधी को या तो इतिहास से गायब किया जाए अथवा उनका ऐसा चरित्र हनन किया जाए कि वे नई पीढ़ी के लिए घृणा के पात्र बनकर रह जाएं। उनका नामो-निशान तक मिटा देने के लिए शैक्षिक पाठ्यक्रमों से उनका शनैः शनैः विलोप कर दिया जाए। इसीलिए उनकी हत्या को आत्महत्या बताया जा रहा है। चरित्र हत्या के लिए गांधीजी के असंख्य फोटोशॉप्ड (कांट-छांट किये हुए) चित्र इंटरनेट के माध्यम से प्रसारित किए जाते हैं। उनके बारे में तथ्यात्मक व ऐतिहासिक भ्रम पैदा किए जा रहे हैं। नई टेक्नालॉजी ने ऐसे लोगों का काम आसान कर दिया है। जिस प्रकार हम नहीं जानते कि पिछले सैकड़ों सालों के दौरान नष्ट हो चुके अनगिनत शिलालेखों, भोजपत्रों, कपड़ों पर किन लोगों के नाम लिखे गए थे, उनके बारे में क्या उल्लेखित किया गया था, और जिस प्रकार वह सारा कुछ नष्ट हो गया, वैसे ही धीरे-धीरे उन दस्तावेजों को भी नष्ट कर दिया जाएगा जिनमें या तो गांधी का उल्लेख है अथवा मानवता को उनके योगदान की चर्चा है। कमजोर विपक्ष, मरणासन्न मीडिया, पूंजीवादी प्रश्रय, राष्ट्रवाद का मुलम्मा और अंध राजनैतिक श्रद्धा के चलते प्रतिरोध के अभाव की जो स्थिति निर्मित हुई है, उससे उत्साह पाकर गांधीजी से नफरत करने तथा उनके विचारों में विश्वास न रखने वाले लोग-संगठन उन्हें नष्ट करने पर तुले हैं। अब गांधी दर्शन को तो नागरिकों को बचाना होगा क्योंकि गांधी न सत्ता के थे, न राजनैतिक दलों के। उनका संबंध व जुड़ाव एकमेव जनता से था। हम सबके लिए जरूरी है कि नई पीढ़ी के मन में उनके प्रति भरे जा रहे जहर के खिलाफ उन्हें वास्तविकता बताई जाए। उन्हें यह भी बताना आवश्यक है कि गांधी उनके लिए, हमारे लिए, संपूर्ण मानवता के लिए क्यों अपरिहार्य हैं। दरअसल, मूर्छित समाज के लिए गांधीजी तो संजीवनी हैं। उन्हें संक्रमण समझना भूल होगी।


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