झारखंड भाजपा में बिखराव
शीतला सिंह
गत लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी दूसरी बार ज्यादा बहुमत से चुनकर देश की सत्ता में लौट आई, तो कई हलकों में मान लिया गया था कि अब वह चुनावी मुकाबलों में लम्बे वक्त तक अजेय बनी रहेगी। लेकिन उसके बाद जिन दो राज्यों-महाराष्ट्र और हरियाणा-में विधानसभाओं के चुनाव हुए, उनमें उसका अकेली चुनाव लड़ने का प्रयोग भी सफल नहीं रहा और गठबंधन करने का भी। दोनों ही राज्यों में उसकी सीटें घट गईं और एक में तो वह साधारण बहुमत से भी पीछे रह गई। ऐसा विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दे उठाने और मोदी के नायकत्व पर तकिया रखने की उसकी चतुर रणनीति के बावजूद हुआ। हरियाणा में तो उसने जैसे-तैसे फि र से सरकार बना ली, लेकिन महाराष्ट्र में इसके चक्कर में सहयोगी दल शिवसेना से उसकी तीस साल पुरानी दोस्ती टूट गई। उससे बिगाड़ के बाद शिवसेना वहां राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के साथ मिलकर अपनी सरकार बनाने की कवायद में न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने की ओर बढ़ गई है। पहले समझा जा रहा था कि अन्ततरू वह सत्ता में भागीदारी के लिए लौटकर भाजपा के पास ही चली जायेगी, लेकिन अब वहां भी गैरभाजपावाद ही निर्णायक तत्व बन गया दिखता है, जिसके फलस्वरूप तीनों दल मिलकर पांच साल की यानी स्थायी सरकार बनाने के प्रयत्न में मुब्तिला हैं। चुनाव आयोग ने झारखंड विधानसभा का चुनाव महाराष्ट्र व हरियाणा के साथ नहीं कराया तो आरोप लगाया गया था कि उसने ऐसा भाजपा व उसके इकलौते नायक नरेन्द्र मोदी की सुविधा के लिए किया है। एक देश एक चुनाव की समर्थक भाजपा झारखंड में इसलिए बाद में विधानसभा चुनाव के पक्ष में थी क्योंकि उसके मतदाताओं पर उक्त दोनों राज्यों में अपनी सफलता का मनोवैज्ञानिक असर डालना चाहती थी। लेकिन अब उसका दांव उलटा पड़ रहा है और उसके गठबंधन सहयोगी साथ छोड़कर उसके ही विरोध में खड़े हो जा रहे हैं। यहां तक कि बिहार में उसके सहयोग के ही बल पर जीतने वाली लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी भी झारखंड में विद्रोह पर उतारू है और अधिकतम विधानसभा सीटों पर अपने अलग उम्मीदवार लड़ाने के लिए प्रयत्नशील है। हालत यह है कि इस राज्य की अधिकांश पार्टियां भाजपा के विरोध में ही चुनाव मैदान में हैं। उसकी पुरानी सहयोगी आजसू भी अपेक्षित सीटें न मिलने के कारण एकला चलो की राह पर बढ़ गई है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में एक बड़ा अन्तर यह बताया जाता है कि विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों और स्वार्थों से जुड़े होते हैं, जबकि लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों व स्वार्थों से। इसलिए राष्ट्रीय मुद्दों पर मतदाताओं का समर्थन किसे मिला था, विधानसभा चुनाव में यह निर्णायक तत्व नहीं रह जाता। क्योंकि चुनाव जितनी ही छोटी इकाई का होता है, स्थानीय स्वार्थों से प्रभावित मतों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। तब दलीय या सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता बहुत निर्णायक नहीं रह जातीं। यही कारण है कि ग्राम पंचायतों के चुनाव केन्द्र या प्रदेशों के सत्ता दलों से प्रभावित नहीं होते। लोकसभा चुनाव में आमतौर पर मतदाता व्यापक मान्यता, स्वीकार्यता और पहचान वाले नेता पर जोर देते हैं। भले ही उसके घोषित कार्यक्रम भी स्थायी न हों। इसीलिए उक्त चुनाव में स्थानीयता निर्णायक तत्व नहीं बन पाती, लेकिन ग्राम, क्षेत्र या जिला पंचायत अथवा राज्य स्तर के चुनावों में मतदाताओं की मानसिकताएं भिन्न होती हैं। यही कारण है कि ऐसी भी मिसालें हैं कि जो उम्मीदवार पंचायत चुनाव में असफल हो गये थे, उन्हें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों में बहुमत का समर्थन मिल गया। वे उन सदनों में पहुंचे भी और सत्ता में भागीदारी भी निभाई। जहां तक झारखण्ड की बात है, वह विशेष स्थिति वाला आदिवासी बहुल राज्य है और उसके निवासियों की समस्याएं भी दिल्ली व कोलकाता जैसे महानगरों के निवासियों जैसी नहीं हैं। लेकिन गत लोकसभा चुनाव में व्यापक सफलता के बाद भाजपा को लगने लगा है कि वह देश की समूची धरती पर हर हाल में स्वीकार्य हो गई हैं। वह सोच नहीं पा रही कि विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को जिन मुद्दों को निर्णय देना है, लोकसभा चुनाव में उनका अस्तित्व ही नहीं था। इस कारण वे उनकी विचार परिधि में आए ही नहीं थे। वह यह बात समझती तो यह भी समझ ही जाती कि लोकसभा चुनावों में हासिल सफलता को किसी राज्य के विधानसभा चुनाव के लिए निर्णायक नहीं कहा जा सकता। ये चुनाव परस्पर एक दूजे को प्रभावित करते तो छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ हुई कांग्रेस लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटें भाजपा के हाथों हार नहीं जाती। इसी तरह महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में उसे मिली व्यापक सफलता राज्य के विधानसभा चुनाव में उसके काम आई होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और विधानसभा चुनाव में शिवसेना से गठबंधन के बावजूद वह पीछे की ओर घिसटती चली गई। यह तब था, जब कांग्रेस और राकांपा दोनों मिलकर भी उसका मुकाबला करने में सक्षम नहीं दिख रही थीं। कांग्रेस तो इस कदर पस्त थी कि उसके कई विधायक भागकर भाजपा में शामिल होने की कतार में लग गये थे। बड़े नेताओं की अनुपस्थिति के बावजूद विधान सभा चुनाव में उसकी जीत का अनुपात यह संदेश देने वाला था कि निराश होने के बजाय उसे डटकर संघर्ष और प्रयास करने की जरूरत है। भाजपा में पैठ बना चुके सत्ता के अहंकार का ही परिणाम था कि कर्नाटक में कांग्रेस अपने से बहुत छोटे जनता दल सेकुलर के नेता को मुख्यमंत्री बनाकर उसको सत्ता में आने से रोकने में सफल रही। वहां भाजपा की सरकार कांग्रेस व जनता दल सेकुलर के विधायकों को बगावत के लिए उकसाकर तोड़ लेने के बाद ही संभव हो पाई। तब श्बागी्य विधायक राजनीतिक लाभ के लिए प्रयत्नशील थे-सत्ता में भागीदारी न मिल सके, तो अन्य लाभों से उसकी पूर्ति स्वीकार करने के लिए तैयार भी। लेकिन यह प्रवृत्ति भी कांग्रेस से ज्यादातर विधायकों को साथ नहीं ले जा पाई। आदिवासी बहुल झारखंड पर लौटें तो उसका दुर्भाग्य है कि बढ़ती चेतना के फलस्वरूप आदिवासियों में जो नेतृत्व विकसित हुआ, वह भी सत्ता की भूख और भ्रष्टाचार से परे नहीं रह सका। इससे राज्य की राजनीति में स्वार्थहीनता की, जिसे उसका बड़ा गुण बताया जाता रहा है, स्वीकार्यता खासी घटी और लाभ उठाने की प्रवृत्तियां निर्णायक बन गई हैं। फि र भी राज्य में भाजपा के इस तरह के प्रयोग उसको बड़ा लाभ पहुंचाने वाले नहीं दिख रहे हैं।
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बुधवार, 20 नवंबर 2019
झारखंड भाजपा में बिखराव
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