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बुधवार, 20 नवंबर 2019

महाराष्ट्रः जनता की हार

महाराष्ट्रः जनता की हार
महाराष्ट्र में राजनीति इस वक्त सांप-सीढ़ी के खेल की तरह हो गई है। भाजपा और शिवसेना दोनों ने गठबंधन किया और उनका मुकाबला करने के लिए एनसीपी-कांग्रेस भी साथ आईं। खेल शुरु हुआ और एनडीए गठबंधन बहुमत की सीढ़ियां चढ़ गया, लेकिन कुर्सी के सांप ने उसे ऐसा काटा कि दोनों फिर से नीचे आ गईं। कुछ सीढ़ियां तो यूपीए गठबंधन भी चढ़ गई है, लेकिन सत्ता उसे नहीं मिल सकती, इसके लिए उसे शिवसेना को साथ लेना पड़ेगा। शिवसेना भी यही चाह रही है कि ये दोनों दल उसे जीवनदान दे दें, फिर से खेल में शामिल करा लें, लेकिन अभी पासा किसके पक्ष में पलटता है, यह तय नहीं हुआ है। उधर भाजपा सबसे अधिक सीटें लेकर भी सर्पदंश भुगत रही है। इस तरह सत्ता की चैसर पर राजनीतिक दलों की गोटियां ऊपर-नीचे हो रही हैं और खेल के रैफरी यानी महाराष्ट्र के राज्यपाल ने फिलहाल राष्ट्रपति शासन लगा दिया है। चुनाव के वक्त उम्मीदवार जीतने के इरादे से ही उतरते हैं, लेकिन जनता से जब वोट मांगते हैं, तो झूठी विनम्रता दिखाते हुए कहते हैं कि हमें सत्ता से नहीं आपकी सेवा से मतलब है। पर जब महाराष्ट्र जैसे उदाहरण सामने आते हैं, तो ऐसे झूठ की पोल खुल जाती है। महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव आयोग ने एक साथ ही चुनाव करवाए थे। भाजपा को उम्मीद थी कि उसे अपने ये दोनों राज्य फिर से आसानी से मिल जाएंगे। मगर ऐसा नहीं हुआ। हरियाणा में भी भाजपा सत्ता से बाहर होते-होते रह गई, जेजेपी को साथ लाने में उसने कांग्रेस से बाजी मार ली और अपनी सरकार बना ली।  हालांकि विरोधी पार्टी को साथ लाने का नतीजा ये है कि केबिनेट के गठन में भाजपा के पसीने छूट रहे हैं। इधर महाराष्ट्र में भी भाजपा के पास सबसे अधिक सीटें तो हैं, लेकिन इतनी नहीं कि वह सरकार बना ले। पिछली बार उसने शिवसेना को किसी तरह मना लिया था, लेकिन पांच सालों में उसे बार-बार अपने से नीचे होने का अहसास कराया। आम चुनावों में भी भाजपा-शिवसेना के बीच कड़वाहट देखने मिली थी, जिसमें ना-ना करते शिवसेना भाजपा के साथ आ ही गई थी। इस बार के विधानसभा चुनावों में भी 50-50 फार्मूले जैसी शर्तें रखी गईं, तब दोनों साथ आए। अब शिवसेना को लग रहा है कि भाजपा अपने वादे से मुकर रही है, तो उसने भी हाथ पीछे खींच लिए। ये दो दोस्तों के बीच का झगड़ा है, जिसमें बिल्ली की तरह पूरी रोटी खाने वाले को राजनीति का चतुर कहते हैं। गोदी मीडिया इस वक्त कांग्रेस से ऐसी ही चतुराई की उम्मीद कर रहा था। और जब उसने भाजपा की परिभाषा वाली चाणक्य नीति नहीं दिखाई तो उसे कोसने वालों की, कांग्रेस खुद को खत्म कर रही है, ऐसा कहने वालों की कमी नहीं है। दरअसल मीडिया का चरित्र ही अब ऐसा हो गया है कि अवसरवादिता को वह सद्गुण की तरह देखती है। शिवसेना की शर्तें अगर भाजपा मान लेती तो ये दोनों दल आज मिलकर सरकार चला रहे होते और बदस्तूर कांग्रेस को कोस रहे होते। मगर अब कांग्रेस निर्णायक स्थिति में है, और शायद यही बात भाजपा पिऋू मीडिया को पच नहीं रही है। एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने विधानसभा चुनावों में अपनी ताकत का अहसास करा दिया है और अब वे अपनी अहमियत भी बतला रहे हैं। एनसीपी-कांग्रेस से शिवसेना ने 11 नवंबर को औपचारिक समर्थन मांगा, लेकिन अभी तक दोनों दलों का रुख साफ नहीं है।एनसीपी ने पहले कहा था कि जनादेश उन्हें विपक्ष में बैठने का मिला है, लेकिन अभी वे सरकार बनाने के लिए ना भी नहीं कर रहे हैं। उधर कांग्रेस के कुछ विधायक चाहते हैं कि शिवसेना को समर्थन दिया जाए, ताकि सरकार में शामिल होने का मौका मिले। लेकिन उन्हें शिवसेना से पिछले रिश्तों को याद करना चाहिए और कर्नाटक का इतिहास भी। अगर कांग्रेस सत्ता के लिए शिवसेना जैसे धुरविरोधी दल के साथ मिलती है, तो भी भाजपा विधायकों को तोड़ने के खेल से बाज नहीं आएगी। इसलिए बेहतर है कि कांग्रेस फूंक-फूंककर ही कदम बढ़ाए। यूं भी महाराष्ट्र में जिस तरह भाजपा को सरकार गठन के लिए अधिक वक्त दिया गया और शिवसेना को कम, उससे समझ आ रहा है कि दिल्ली का दबाव बढ़ रहा है। खबर ये भी है कि भाजपा फिर से सरकार बनाने की कोशिशों में जुट गई है।शिवसेना, कांग्रेस सबने अपने-अपने विधायकों की पांचसितारा सुरक्षा का इंतजाम किया हुआ है, लेकिन कब किसके गढ़ में सेंध लग जाए, कह नहीं सकते। इस पूरे खेल में सरकार आखिर में चाहे जिसकी भी बने, हार तो जनता की ही होगी। इसलिए ज्ञानी लोग कहते हैं कि सोच समझकर मतदान करना चाहिए। 


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