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बुधवार, 20 नवंबर 2019

आस्था बनाम अधिकार

आस्था बनाम अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के फैसले के खिलाफ दायर की गई पुनर्विचार याचिकाओं पर आज यह तय किया कि इस मामले को बड़ी बेंच में भेजा जाएगा। पांच जजों की बेंच में से तीन जजों ने यह फैसला लिया, अब इस मामले को 7 जजों की बेंच सुनेगी और तय करेगी कि क्या महिलाओं को इस मंदिर में प्रवेश का अधिकार है या नहीं है।
अदालत ने पुराने फैसले पर स्टे नहीं लगाया है, इसका मतलब ये है कि महिलाएं अब भी मंदिर में जाने की अधिकारी हैं। वो अधिकार, जो उन्हें सदियों के बाद हासिल हुआ है, जिसके लिए उन्हें बरसों लड़ना पड़ा है। गौरतलब है कि सबरीमााला में भगवान अयप्पा के मंदिर में महिलाओं का प्रवेश अब तक वर्जित था, क्योंकि भक्त उन्हें नैतिक ब्रह्मड्ढचारी मानते हैं। सभी धर्मों में अपने-अपने भगवानों को लेकर इस तरह की बहुत सी मान्यताएं, कथाएं प्रचलित हैं। जिनका समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन करें तो पता चलता है कि किसी खास समाज की जरूरतों, वक्त के तकाजों और माहौल के अनुकूल लोगों को ढालने, या उन्हें सीख देने के लिए वे मान्यताएं गढ़ी गई होंगी। समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र, दर्शनशास्त्र के अध्येता इस बात को तफ्सील से समाज को समझा सकते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही इन मान्यताओं पर कब धर्म का मुलम्मा चढ़ जाता है, कहना कठिन है। और एक बार बात धार्मिक हो गई तो आज के माहौल में वहां तर्कों की गुंजाइश खत्म ही हो गई है। वो भारत और था, जहां तर्क और शास्त्रार्थ को सम्मान मिलता था, परस्पर विरोधी विचारों का आदर था, अब ऐसा नहीं है। बल्कि अब तो आस्था का सवाल भी सुविधानुसार सरल या कठिन बन जाता है। जैसे जब अयोध्या पर फैसला आना था, तो बार-बार यही कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट का जो भी फैसला होगा, वो सबको मान्य होना चाहिए। सबको संयम से उसे स्वीकार करना चाहिए। और ऐसा ही हुआ भी।
भाजपा समेत लगभग तमाम राजनैतिक दलों ने इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार किया। समाज ने समझदारी का परिचय दिया। यह एक आदर्श स्थिति है, जो हर वक्त कायम होनी चाहिए। लेकिन जब पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को जाने की इजाजत दी, तो तब सबने इस फैसले को स्वीकार नहीं किया था। दो महिलाओं ने मंदिर में प्रवेश किया तो उसके बाद विरोध-प्रदर्शन शुरु हो गया। केरल पहले बाढ़ की तबाही से जूझा और फिर सबरीमाला मुद्दे पर छिड़े आंदोलन से। एक ज्ञानी ने तो यह भी कह दिया कि केरल में बाढ़ इसलिए आई क्योंकि भगवान अयप्पा नाराज हैं। इस तरह के कुतर्कों, सड़ी-गली मान्यताओं के खिलाफ समाज ने एकजुटता नहीं दिखाई, राजनैतिक दलों ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने नहीं कहा। बल्कि तब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि हम अयप्पा श्रद्धालुओं के साथ पूरी तरह खड़े हैं। भाजपा चाहती और केन्द्र सरकार इच्छाशक्ति दिखाती, तो जो दम कश्मीर में दिखाया गया, अयोध्या में जिस तरह स्थिति नियंत्रण में रखी गई, वही स्थिति केरल में भी हो सकती थी। वहां भी महिलाओं के हक को मारने के लिए किए जा रहे आंदोलन पर रोक लग सकती थी। लेकिन बहुसंख्यकों की आस्था के सवाल की आड़ में भाजपा सरकार ने कुछ नहीं किया। महिलाओं के हक की बात करना और उस बात पर पूरी तरह अमल करना, इन दो बातों पर एक जैसी मजबूती से टिके रहना आसान नहीं है। और मोदी सरकार ने पिछले साल ही साबित कर दिया था कि उसमें ये मजबूती बिल्कुल नहीं है। इसलिए सबरीमाला मंदिर मामला, अनुच्छेद 370 या अयोध्या विवाद की तरह हल नहीं हो सका है। अभी भी फैसला सुप्रीम कोर्ट को ही करना है कि आस्था और अधिकार में जीत किसकी होगी? सबरीमाला मंदिर के कपाट पहली पूजा के लिए इसी शनिवार को खुलने वाले हैं। सुप्रीम कोर्ट का पुराना फैसला अभी बरकरार है, इसलिए यह देखने वाली बात रहेगी कि क्या फिर से कोई विरोध-प्रदर्शन होगा या अयोध्या की तरह यहां भी स्थिति को नियंत्रण में रखा जाएगा। वैसे समाज को इस बात पर बार-बार विचार करना चाहिए कि हमें देश को संविधान के मुताबिक चलाने देना चाहिए या धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप। जहां धर्म के मुताबिक देश चलते हैं, वहां किस तरह के खतरे समाज के लिए होते हैं, यह देखने के लिए दुनिया पर निगाह फेरनी चाहिए। पुरातन भारत में सती प्रथा भी मान्य थी और बालविवाह भी। लेकिन प्रगतिशील समाज बनने के लिए रूढ़ियों के बंधन को तोड़ना पड़ता है। जिसकी हिम्मत भारतीय समाज को दिखानी चाहिए।


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