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बुधवार, 20 नवंबर 2019

नई करवट लेती मराठा सियासत 

नई करवट लेती मराठा सियासत 
अनुराग चतुर्वेदी
विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद शिवसेना के अप्रत्याशित रुख के चलते महाराष्ट्र सियासी भंवर में इस कदर उलझ गया कि वहां राष्ट्रपति शासन लागू करने की नौबत आ गई। शिवसेना और भाजपा ने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था और उनकी महायुति का जिस प्रकार अंत हुआ है, उसे जनादेश का अपमान कहना गलत नहीं होगा। शिवसेना-भाजपा का तकरीबन तीन दशक तक साथ रहा, लेकिन बीते पांच वर्षों से शिवसेना और भाजपा में जिस तरह की तनातनी चल रही थी, वह सामान्य नहीं थी। शिवसेना भले ही महाराष्ट्र में फडणवीस सरकार में शामिल थी, लेकिन उसने एक तरह से विपक्ष की स्पेस ले ली थी और इसलिए जब पिछले विधानसभा होने जा रहे थे, तब भाजपा की ओर से यहां तक कहा गया कि विपक्ष है कहां? हम किससे चुनाव लड़ें?
हालांकि बाद में घटनाक्रम बदला और ईडी की कार्रवाई के चलते राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और पुराने मराठा क्षत्रप शरद पवार में फिर से जान आ गई, जिससे चुनाव एकतरफा होने से बच गए। चुनाव के दौरान शिवसेना को भाजपा से सीट बंटवारे में कम पर संतोष करना पड़ा। लोकसभा चुनावों में भी भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपार लोकप्रियता के मद्देनजर पुणे, नासिक और नागपुर में शिवसेना को एक भी सीट नहीं दी। पहली बार मुंबई में भी भाजपा ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ी व जीती। एक समय ऐसा था, जब भाजपा का महाराष्ट्र में खास प्रभाव नहीं था। उसकी निर्भरता शिवसेना पर थी। राम मंदिर आंदोलन और हिंदुत्व दोनों को जोड़ने का सीमेंट था। हालांकि 2014 में हुए आम चुनाव के बाद हालात बदलने लगे। अब भाजपा का प्रभाव लगातार बढ़ रहा था, जिससे शिवसेना को यह भय सताने लगा कि भाजपा उसका अस्तित्व शून्य कर देगी या उनके साथ गोवा की महाराष्ट्र गोमांतक पार्टी जैसा व्यवहार करेगी। लिहाजा वह सचेत हो गई और जैसे ही उसे चुनाव नतीजों के बाद लगा कि भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है तो उसने तेवर दिखाने शुरू कर दिए। उसने किसी श्गुप्त समझौते की दुहाई देकर भाजपा को झुकाने की रणनीति अपनाई। हालांकि भाजपा उसके दबाव के आगे नहीं झुकी। नतीजतन, दोनों के रास्ते अलग हो गए। बहरहाल, शिवसेना के इस रुख को देखते हुए सवाल उठता है क्या अब उसकी विचारधारा भोथरी हो गई है? क्या राजनीतिक जोड़तोड़ या अवसरवाद वक्त की जरूरत है? शायद हां। जब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी सोमनाथ मंदिर जाकर जनेऊ के साथ अपनी गोत्र बताते हैं, दूसरी तरफ शिवसेना के आदित्य ठाकरे मुंबई के उपनगर माहिम की मखदूम दरगाह में जाकर शीश झुकाते हैं तो लगता है कि राजनीतिक दल अपने जनाधार को नए समाज-समुदाय में खोज रहे हैं। शिवसेना ने मराठी मानुस का मुद्दा कई वर्ष पूर्व नेपथ्य में धकेल दिया था। उसके नेता अब इस मुद्दे को उतनी शिद्दत से नहीं उठाते हैं, जितना पहले उठाते थे। शिवसेना अब बालासाहब ठाकरे की पार्टी नहीं रही। वह बदल चुकी है। आने वाले समय में महाराष्ट्र में नए अवसरवादी गठबंधन बनने की संभावना है। हमारे देश में कई समुदाय अतीत से प्रेरित रहते हैं। इतिहास की त्रासदियां उनके कंधों से नहीं उतर पाती हैं। पानीपत में मराठाओं की हार, शिवाजी के काल में मुगल सल्तनत के जुल्म और संत तुकाराम एवं उनकी वाणी आज भी महाराष्ट्र के अवचेतन में है। जब भी दिल्ली की सल्तनत ताकतवर हो जाती है, तब उसका प्रतिकार यहां अपने तरीके से होता है। इंदिरा गांधी के तानाशाहीपूर्ण शासन के खिलाफ वामपंथी और दक्षिणपंथी राजनीतिक संगठन एक साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार हो गए थे। समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का नारा मजबूत और एकाधिकारवादी तत्कालीन केंद्र सरकार के खिलाफ दिया था और उसके चलते कई अलग-अलग विचारधारा के दल एक मंच पर आए और अपनी सरकार बनाने में सफल रहे। इस दौरान जो दल अपनी विचारधारा पर दृढ़ रहे, वे लंबी दूरी तक चले और जिन दलों ने अपनी विचाराधारा से समझौता किया, वे जल्दी बिखर गए। समाजवादी विचारधारा और भाजपा की विचाराधारा में यह अंतर साफ दिखता है। इस समय महाराष्ट्र में शिवसेना जैसे दल को लगता है कि राजनीतिक तराजू एक तरफ झुक गई है और उसको संतुलित करने के लिए अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियों को एक मंच पर आना जरूरी है। यह भाजपा के उभार और एकसत्तावान हो जाने का समय है। राकांपा और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता भाजपा में जा चुके हैं। पिछली विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता राधाकृष्ण विखे पाटील अब भाजपा में हैं। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे शिवसेना, कांग्रेस के रास्ते भाजपा में जा चुके हैं। ऐसे में इन दलों की स्थिति आज भी बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। वैसे पिछले विधानसभा चुनाव का कोई सबसे बड़ा विजेता रहा, तो वो शरद पवार ही हैं। चुनाव के पहले, चुनाव के बीच में और चुनाव के बाद भी गतिविधियों की धुरी पवार ही बने हुए हैं। शरद पवार द्वारा सतारा में बारिश में भीगते हुए भाषण देने की छवि आज भी मतदाता के मन में अंकित है।
शरद पवार और भाजपा के रिश्ते भी कभी मधुर, तो कभी कड़वाहट भरे रहे हैं। भाजपा ने राकांपा के कई नेताओं को अपनी तरफ मिलाकर पवार को काफी कमजोर कर दिया और मराठा आरक्षण का दांव खेलते हुए उनका सामाजिक आधार भी छीनने की कोशिश की। बहरहाल, इस वक्त सबसे अहम सवाल यही है कि महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन कब तक रहेगा? यह सच है कि महाराष्ट्र में फिलहाल सरकार गठन की राह कठिन है। सबसे बड़ी बात अविश्वास की है। सभी पार्टियों को अपनी पारी का इंतजार था। अगर शिवसेना, राकांपा और कांग्रेस का गठबंधन होता भी है, तो उस गठबंधन में तीन पूर्व-मुख्यमंत्री होंगे। दिग्गज नेताओं के अहं भी टकराएंगे। इन दलों की विचारधारा में भी भिन्न्ता है। हालांकि तीनों ही दल परिवारवादी हैं। यदि ताजा सूरतेहाल में शिवसेना के समर्थक वर्ग को यह लगे कि उसके नेता सत्ता की खातिर अपनी मूल विचारधारा व सिद्धांतों को तिलांजलि दे समझौतावादी हो गए हैं तो यह संदेश पार्टी को कमजोर कर सकता है। वहीं यदि शिवसेना यह संदेश देने में सफल रहती है कि मराठी अस्मिता को कायम रखने की खातिर उसने यह कदम उठाया है तो प्रादेशिक संगठन के रूप में उसकी साख बनी रह सकती है। राकांपा शरद पवार के प्रकाश से चमक रही पार्टी है। शरद पवार के जीवन में इस पार्टी की ख्याति है। कांग्रेस की हालत खराब है और उसका सामाजिक आधार अभी भी सुधरा नहीं है। विगत विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे कमजोर स्थिति में थी। कांग्रेस में एक से बढ़कर एक नेता हैं, पर कार्यकर्ता नहीं हैं। इस तरह इन तीनों दलों की अपनी मुश्किलें हैं और यदि इनका गठजोड़ होता है तो यह साथ कितना निभ पाएगा, कहना कठिन है।
बदले हालात में भाजपा के लिए भी विकट स्थिति है। उसे तय करना होगा कि वह येन-केन-प्रकारेण जरूरी संख्याबल जुटाकर सरकार बनाने का प्रयास करे या फिर शिवसेना के धोखे, नैतिक पतन को मुद्दा बनाए। भाजपा आज सबसे बड़ा राष्ट्रीय दल है। उसे क्षेत्रीय दलों से निपटने की नई रणनीति बनानी होगी।
(लेखक मुंबई स्थित वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)


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