मिटानी ही होगी विषमता की खाई
बिल गेट्स
मेरी पत्नी मेलिंडा और मैं दुनिया भर में गरीबी के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस मुहिम में हमारा पूरा ध्यान स्वास्थ्य और शिक्षा पर है। आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि किसी भी देश में गरीबी घटाने, अवसरों को बढ़ाने और समृद्धि को लाने में इन दोनों पहलुओं की सबसे अहम भूमिका होती है। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में हमें अक्सर स्वास्थ्य और शिक्षा की दयनीय दशा के बारे में पढ़ने-सुनने को मिलता है। अब ताजातरीन आंकड़ों और उनकी पड़ताल करने के नए तौर-तरीकों की मदद से हम इस बात के बारीक विश्लेषण में भी सक्षम हो गए हैं कि गरीबी, बीमारी और अशिक्षा या अल्पशिक्षा दुनिया भर में जिला-दर-जिला और समुदाय-दर-समुदाय को कैसे प्रभावित कर रही है? अच्छी खबर यह है कि बीते दो दशकों में गरीबी में खासी कमी आई है। यह सकारात्मक प्रभाव मानव समाज को सुकून देने वाला है। दुनिया के तमाम देशों में स्कूली शिक्षा बढ़ रही है। इसके साथ ही प्रत्येक देश में शिशु मृत्युदर भी घटी है। यहां तक कि दुनिया के सबसे गरीब से गरीब देशों में भी शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बेहद महत्वपूर्ण मोर्चों पर 99 प्रतिशत स्थानीय आबादी की स्थिति में सुधार हुआ है। इन अच्छी खबरों के बीच कुछ बुरी खबरें भी हैं। तमाम आंकड़े इन देशों में निरंतर कायम असमानता यानी विषमता की ओर भी संकेत करते हैं। उच्चतम और निम्नतम के बीच की खाई और चैड़ी होती जा रही है। करीब पचास करोड़ लोग यानी प्रत्येक 15 में से एक व्यक्ति ऐसी जगह पर रहने के लिए मजबूर है, जहां शिक्षा एवं स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधा का अभाव है। हमें स्थिति में भले ही सुधार होता दिख रहा हो,लेकिन सबसे निचले पायदान पर मौजूद तबकों की प्रगति इस रफ्तार से नहीं हो रही कि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। इसका अर्थ यह है कि समग्र्र तस्वीर भले ही बेहतर दिख रही हो, लेकिन हाशिये पर मौजूद लोग अभी भी बहुत पीछे छूटे हुए हैं।
ऐसी असमानता हमें हर जगह दिखाई पड़ सकती है। मिसाल के तौर पर भारत को ही लें। भारत में शिशु एवं मातृ मृत्युदर के मामले में व्यापक सुधार के बावजूद कई राज्यों एवं जिलों के आंकड़े अब भी हमें चुनौती पेश करते नजर आते हैं। नीति आयोग का स्वास्थ्य संबंधी हालिया सूचकांक इस विषमता को दर्शाता है। इसके अनुसार केरल, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले राज्य हैं। इसकी तुलना में हम बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे जिन राज्यों में बहुत शिद्दत से काम में जुटे हैं, वहां स्थिति में उतना सुधार नहीं दिखता। इन राज्यों में आज भी बाल व मातृ मृत्युदर ऊंची और शिक्षा का स्तर लचर बना हुआ है। महिलाओं के लिए तो यह चुनौती और भी बड़ी है। दुनियाभर में लड़कियां और महिलाएं पढ़ाई-लिखाई की तुलना में ऐसे कार्यों पर ज्यादा वक्त खर्च कर रही हैं, जिनका उन्हें कोई मेहनताना नहीं मिलता। वैश्विक कामकाजी आबादी में लैंगिक खाई तकरीबन 24 प्रतिशत है। इसमें महिलाओं की हिस्सेदारी न केवल कम है, बल्कि पक्षपातपूर्ण कानूनों एवं नीतियों, लैंगिक आधार पर होने वाली हिंसा के चलते उनके लिए सफलता की राह तलाशना और मुश्किल हो जाता है। ऐसे में समावेशी विकास और सतत आर्थिक वृद्धि के लिए आवश्यक है कि शिक्षा एवं पोषण में निवेश बढ़ाया जाए। यह उन देशों के लिए तो नितांत अपरिहार्य है, जो इस मोर्चे पर आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं। इसका अर्थ है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर ज्यादा ध्यान देना होगा।
यदि उचित नियोजन एवं पर्याप्त वित्तीय संसाधनों के साथ प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को साध लिया गया तो वे जरूरतमंद तबके के सभी लोगों तक पहुंच सकती हैं। इससे लोगों की स्वास्थ्य संबंधी 90 प्रतिशत जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। इसके साथ ही गुणवत्तापरक शिक्षा के दायरे का भी व्यापक रूप से विस्तार करना होगा। 1980 में जहां भारत में 7.4 करोड़ बच्चों ने स्कूलों में दाखिला लिया था, वहीं उनकी संख्या अब बढ़कर 13 करोड़ से अधिक भले ही हो गई हो, लेकिन हमें उस शिक्षा की गुणवत्ता भी परखनी होगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि गुणवत्ता का स्तर भी अलग-अलग है। इसकी राह में आने वाले अवरोधों को दूर करने के लिए प्रयास करने होंगे। उन सामाजिक बंदिशों को तोड़ना होगा, जो बहुत काबिल महिलाओं के लिए भी उनकी काबिलियत, कला और कौशल के उचित उपयोग में अवरोध उत्पन्न् करती हैं। यह सब असंभव नहीं है। आखिरकार दुनिया ने यह देखा है कि हमने शिशु मृत्युदर को घटाने में कैसे सफलता हासिल की और किस तरह शिक्षा के मोर्चे पर स्थिति को बेहतर बनाया जा रहा है। दुनिया भर में नीतिगत सुधारों के दम पर लैंगिक भेदभाव घटाने में भी मदद मिली है। भारत में डिजिटल गवर्नेंस जैसे माध्यमों में निवेश की कोशिश से खासतौर से महिलाओं को अपनी तकदीर खुद लिखने का जरिया मिला है। सभी भारतीयों को बैंक खाता खुलवाने में मदद, विशेष सरकारी पहचान पत्र और वित्तीय सेवाओं के उपयोग को मोबाइल फोन से जोड़ने जैसी पहल समाज के वंचित वर्गों को भी विकास की मुख्यधारा से जोड़ने का काम कर रही हैं। इनके माध्यम से लोग जीवनोपयोगी बुनियादी ढांचे से जुड़ रहे हैं। इन सुधारों को यदि बेहतरीन गरीब-हितैषी डिजिटल सेवाओं और सक्षम कानूनों के साथ जोड़ दिया जाए तो करोड़ों लोगों के जीवन-स्तर में आशातीत सुधार की पर्याप्त संभावनाएं हैं। यही वजह है कि मैं स्वयं को आशावादी कहता हूं। ऐसा इसलिए नहीं कि मुझे लगता है कि दुनिया खुद-ब-खुद बेहतर होती जाएगी। मेलिंडा और मैं कल्पनाजीवी नहीं हैं। असल में हम इस वजह से आशावादी हैं, क्योंकि हमने देखा है कि जब सरकारें, कंपनियां और गैर-लाभकारी संस्थाएं सुधार के लिए प्रतिबद्ध होकर और साथ मिलकर काम करती हैं तो यकीनन हालात सुधरते हैं और लोगों का जीवन-स्तर बेहतर होता है।
आज ऐसी तमाम वजहें मौजूद हैं, जिनसे आशावादी हुआ जा सकता है। वैश्विक रुझान प्रगति के लिए अवसरों की तस्वीर दिखाते हैं। अब यह भारत सहित पूरे विश्व पर निर्भर करता है कि हम कैसे सबके लिए इसे संभव बनाएं, ताकि दुनिया के हर कोने में हर किसी को इस अवसर का लाभ मिल सके।
(लेखक बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के को-चेयर हैं)
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बुधवार, 20 नवंबर 2019
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